महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव के बाद की वो कहानी तो याद ही होगी कि कैसे एनसीपी को तोड़ कर अजित पवार ने सुबह-सुबह सीएम पद की शपथ ले ली थी और देंवद्र फडणवीस उनके डिप्टी (सीएम) बने थे. तब तीन दिन की सरकार बना कर इन नेताओं ने यह दिखा दिया था कि राजनीति का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं है. अब उस सरकार के बनने के बारे में इस चुनाव के बीच जो बात सामने आई है, उसने राजनीति को नंगा कर दिया है. साथ ही, राजनीतिक (खास कर सत्ताधारी) पार्टियों और कॉरपोरेट जगत के बीच मजबूत होते रिश्तों से लोकतंत्र को बचाने की अहमियत पर नए सिरे से सोचने की जरूरत पेश कर दी है. इस रिश्ते को हम किस हद तक मजबूत होने देंगे, यह तय करने की भी जरूरत खड़ी हुई है.
खतरनाक संकेत दे रही भाजपा की चुप्पी
नवंबर 2019 में महाराष्ट्र में एनसीपी (अजित पवार के तोड़े गए गुट) और बीजेपी की सरकार बनाने के लिए हुई ‘डील’ में गौतम अडानी की सीधी या पर्दे के पीछे से भागीदारी की बात सामने आ रही है. पहले अजित पवार का यह कहना कि बैठक में अदानी शामिल थे, फिर शरद पवार का कहना कि अदानी मेजबान थे, यही संकेत दे रहा है. हालांकि अजित पवार बाद में बयान से पलट गए और देवेंद्र फडणवीस भी चाचा-भतीजे के दावे को खारिज कर रहे हैं, लेकिन वह या कोई और भाजपाई नेता पवार की बात को गलत साबित नहीं कर पा रहे हैं.
दोनों पवार भाजपा पर जो आरोप लगा रहे हैं, वे बेहद गंभीर हैं. शरद पवार का कहना है कि उन्हें उनके नेताओं ने बताया था कि भाजपा की ओर से सरकार बनाने के एवज में एनसीपी नेताओं पर से केस हटाने का आश्वासन दिया गया था. यह ऐसा आरोप है जिसे भाजपा गलत मानती है तो उसे शरद पवार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए. वह तो अभी उनके साथी भी नहीं हैं. भाजपा की चुप्पी दावों के सच होने का संकेत ही मजबूत कर रही है.
पवार बनाम पवार, भाजपा पर वार
अजित पवार ने चुनाव के बीच में ही इस बात को उजागर क्यों किया? खास कर तब जब वह भाजपा के साथ सरकार में हैं? ये सवाल भी अहम है. क्या गलत तरीके से सरकार बनाए जाने की पोल खोल इस बार चुनाव से पहले ही सरकार बनाने-बिगाड़ने के खेल से जुड़ा है? ऐसा भी हो सकता है. अजित पवार के बयान से जहां शरद पवार की छवि धोखेबाज, शातिर नेता की बनती है, वहीं शरद पवार के आरोपों से भाजपा पर ईडी-सीबीआई को अपनी मशीनरी की तरह इस्तेमाल करने के आरोप पुख्ता होते हैं. तो हो सकता है, अजित पवार ने एनसीपी (शरद पवार) की जड़ काटने के मकसद से बीच चुनाव में बयान दिया हो और शरद पवार ने बयान देकर भाजपा को नुकसान पहुंचाने का जवाबी खेल खेला हो.
सीमा तो तय करनी ही होगी
जो भी हो, पर यह सवाल अब टालने लायक नहीं रहा है कि राजनीति में कॉरपोरेट वर्ल्ड की घुसपैठ और दखल कहां तक जायज है? इनके बीच का संबंध कोई नया नहीं है. उद्योगपति नेताओं को पैसे देते हैं और बदले में सरकार से अपना काम करवाते हैं. यह बात जनता की समझ से बाहर नहीं है. आज के धनकुबेर सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल भी खेलने लगे हैं, यह बात भी जनता समझती है. अजित या शरद पवार के दावे से इसकी पुष्टि भर होती है.
उद्योपतियों की दखलअंदाजी इस स्तर तक बढ़ जाने की एक वजह यह है कि बीतते समय के साथ राजनीतिक पार्टियों की कॉरपोरेट घरानों पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है. कॉरपोरेट घराने भी अपना करोबार बढ़ाने के लिए राजनीतिक पार्टियों को दी जाने वाली आर्थिक मदद को निवेश के रूप में देखने लगे हैं. उनका मकसद अपने फायदे की सरकारी नीतियां बनवाना, संसाधनों पर कब्जा करना, दिवालिया कंपनियों को कम कीमत पर खरीदना और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना हो गया है.
यह किस स्तर तक हो रहा है, इसका सच सामने लाने का एक मौका था जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड से जुड़े केस सुने और उन पर फैसला सुनाया. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के फैसले में शायद इस पहलू पर ध्यान ही नहीं दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की जांच के आदेश दिए होते कि क्या चुनावी बॉन्ड से चंदा देने वालों ने किसी भी तरह से इसका गलत फायदा भी लिया या चंदा किसी दबाव में आकर दिया गया, तो स्थिति साफ हो सकती थी.
आर्थिक उदारीकरण (1980-90 के दशक) के बाद से ही नेताओं और उद्योपतियों के बीच अलग तरह का रिश्ता (देन-लेन वाला) मजबूत होने लगा था. पार्टियों की भी जरूरत बढ़ती गई थी, क्योंकि पार्टियां किसी संगठन की तरह नहीं, बल्कि कॉरपोरेट संस्था की तरह चलाई जाने लगीं. चुनाव का खर्च लगातार बढ़ने लगा. इन सब कारणों से पार्टियों को पैसे की जरूरत बढ़ी. यह जरूरत पूरी करने के लिए उद्योगपति आगे आते गए. धीरे-धीरे वे चंदे का कर्ज भी जम कर वसूलने लगे.
भारत में राजनीति और पैसे के बीच संबंध आजादी के पहले भी था. धीरे-धीरे राजनीति में पैसे का असर बढ़ता गया. यह सही संकेत नहीं था, इसे भी काफी पहले समझा जा चुका है. इसके बावजूद समस्या कम होने के बजाय बढ़ती ही गई है.
1957 में ही बॉम्बे हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला ने एक केस की सुनवाई करते हुए राजनीति पर धन के प्रभाव को लेकर चिंता जताई थी. उन्होंने कहा था कि राजनीतिक दलों को वित्तीय सहायता देने की कोई भी कोशिश लोकतंत्र के मूल तत्वों पर बुरा असर डाल सकती है. यह खतरा तेजी से बढ़ सकता है और अंततः देश में लोकतंत्र का गला घोंट सकता है.
आजादी के पहले भी जी.डी. बिड़ला, जमनालाल बजाज जैसे उद्योगपतियों ने महात्मा गांधी और कांग्रेस को आर्थिक सहायता प्रदान की. इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन तब तक जब तक सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लिया जाए और इसी सोच से दिया भी जाए. इस जरूरत की हद तक अगर उद्योगपतियों से संबंधों को सीमित रखा जाए तो गलत फायदा उठाने की उनकी मंशा पर काबू रखा जा सकता है. पर ये संबंध इस हद तक सीमित रह नहीं पाए.
1920 के दशक के अंत तक भारत के पूंजीपतियों ने कांग्रेस के साथ एक तरह से गठबंधन शुरू कर दिया था. आजादी के बाद भी पूंजीपतियों के साथ कांग्रेस के संबंध घनिष्ठ होते गए.
धीरे-धीरे चंदा या सहयोग ‘कॉरपोरेट फंडिंग’ का रूप लेता गया. 1969 में इंदिरा गांधी सरकार ने कंपनी अधिनियम की धारा 293ए को हटा दिया, जिससे कॉरपोरेट फंडिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लग गया. इसका मकसद नेताओं और उद्योगपतियों के आर्थिक रिश्तों पर प्रहार करना बताया गया. लेकिन, यह मकसद पूरा नहीं हुआ. दोनों के आर्थिक रिश्ते पर्दे के पीछे, अवैध तरीके से मजबूत बने ही रहे. ‘ब्रीफकेस कल्चर’ नाम का टर्म इसी दौर में चलन में आया. 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने कॉरपोरेट फंडिंग को फिर से वैध कर दिया. इसके बाद भी नेताओं-उद्योपतियों के रिश्ते मजबूत करने वाले कदम उठते ही चले गए.
नेताओं और कारोबारियों के रिश्तों में पारदर्शिता आए, यह सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रहा. चुनाव लड़ने और पार्टी चलाने का खर्च बढ़ता गया. इसके साथ ही पैसे की जरूरत भी बढ़ती गई. इसी जरूरत के साथ उद्योगपतियों की राजनीति में घुसपैठ भी बढ़ती गई.
Tags: Ajit Pawar, Maharashtra Elections, Sharad pawar
FIRST PUBLISHED :
November 17, 2024, 15:49 IST