4 दिसंबर 2025 से राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का भारत दौरा शुरू होगा, और यह दौरा दिल्ली—मॉस्को रक्षा संबंधों में नई ऊर्जा भरने की क्षमता रखता है. संभावना है कि इस दौरे में रूस, भारत को अपनी पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान SU-57 का औपचारिक प्रस्ताव रख सकता है. तो एक ऐसा प्रस्ताव जिसे भारतीय वायुसेना की घटती स्क्वाड्रन संख्या, दो-मोर्चे के खतरे और AMCA की लंबी देरी के बीच नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होगा.
प्रश्न: क्या भारत इस प्रस्ताव को तत्काल युद्धक क्षमता बढ़ाने के अवसर के रूप में देखेगा, या फिर इसे अपनी दीर्घकालीन स्वदेशी योजनाओं से टकराव समझेगा?
भारत की वायु शक्ति आज एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर है, जहाँ तत्काल ऑपरेशनल ज़रूरतें और दीर्घकालीन रणनीतिक आत्मनिर्भरता—दोनों आमने-सामने खड़ी हैं. पुराने लड़ाकू विमान तेज़ी से रिटायर हो रहे हैं, तेजस की डिलीवरी धीमी है, और AMCA का प्रोटोटाइप अगले दशक से पहले आना मुश्किल दिखता है. ऐसे में SU-57 का प्रस्ताव आना महज़ एक डील नहीं, बल्कि एक टेस्ट है. क्या भारत फिर वही ऐतिहासिक देरी दोहराएगा, या इस बार समय रहते निर्णायक कदम चुनेगा?
भारतीय वायुसेना निसंदेह बेहद ताकतवर है, उसके पास नई तकनीक वाले हथियार हैं, जिस वजह से दुश्मन देश उससे भिड़ने से डरते हैं. लेकिन असली मुश्किल आने वाले कल की है. हमारे पुराने विमान धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं और नए विमान समय पर नहीं आ पा रहे हैं. हमारा स्वदेशी विमान ‘4.5 Gen. का तेजस’ भी देरी से बन रहा है. सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि जहाँ चीन हमसे काफी आगे निकल चुका है और छठी पीढ़ी के विमान बना रहा है, वहीं हमारा अगला बड़ा 5 Gen. विमान ‘AMCA’, साल 2010 से बनने की शुरुआती अवस्था में है और उसे आने में अभी 15-20 साल और लगेंगे.
दरअसल, भारत ने दीर्घकालीन लक्ष्य — AMCA जैसे पांचवीं पीढ़ी के स्वदेशी कार्यक्रम — तो तय कर लिए, लेकिन Short-term Operational Readiness के प्रश्न को अपेक्षित गंभीरता नहीं दी. तेजस की डिलीवरी में समय लग रहा है, AMCA के प्रोटोटाइप का समय अगले दशक तक खिंच गया है. ऐसे समय में ‘Stop-Gap’ नहीं, बल्कि ‘Strategic-Capability Bridging’ की जरूरत है.
प्रश्न: क्या आत्मनिर्भरता को तत्काल ऑपरेशनल खालीपन भरने का एकमात्र विकल्प बना दिया गया है, जबकि उसे एक समानांतर रणनीतिक मार्ग के रूप में भी आगे बढ़ाया जा सकता था?
किसी भी फौज की असली ताकत सिर्फ उसके आज के हथियारों से नहीं, बल्कि उसके पिछले कई सालों के फैसलों और भविष्य के लिए की गई तैयारी से तय होती है. यहीं हमारी मुश्किल शुरू होती है. हमारे कई लड़ाकू विमान बहुत पुराने हो चुके हैं. MIG-21 तो पहले ही रिटायर हो गया है और जैगुआर जैसे विमान भी अब रिटायर होने के कगार पर हैं. पिछले तीन दशकों में नए विमान खरीदने या बनाने के ठोस फैसले नहीं लिए गए. इसी वजह से वायुसेना के विमानों के स्क्वाड्रन की संख्या घटकर सिर्फ 31 रह गई है, जबकि जरूरत इससे कहीं ज्यादा की है. इस सबकी जड़ में बड़े फैसले लेने में आनाकानी और देरी, मौके गंवाना, और काम को समय पर न पूरा कर पाना जैसी समस्याएं रही हैं.
साफ है कि भारत के लिए अब विकल्प बहुत सीमित हैं. हमारी पूरी ऑफेंसिव ताकत बस दो विमानों, SU-30 MKI और महज 36 राफेल पर टिकी है. हाल के वर्षों में आख़िरी फाइटर इंडक्शन 36 राफेल या तेजस का रहा. इसके बाद कोई निर्णायक बढ़त नहीं दिखाई दी है. यानी, हमारी ताकत में कोई बड़ी बढ़त नहीं हुई, जबकि पुराने विमान लगातार रिटायर होते जा रहे हैं.
इसी दौरान ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ हो चुका है और उसका अगला संस्करण पाकिस्तान के रुख पर निर्भर है. दुश्मन को तैयारी का काफी लम्बा समय मिल गया है. अब जब हालात फिर से तनावपूर्ण हो सकते हैं, तो सिर्फ हवाई जहाजों का होना काफी नहीं है. असल में जरूरत है पूरी तैयारी की — यानी पर्याप्त संख्या में आधुनिक विमान, अच्छे हथियार.
राफेल केस: साल 2000 में वायुसेना ने स्पष्ट संकेत दिया कि सोवियत दौर के MiG-21 को बदलने के लिए Medium Multi-Role Combat Aircraft (MMRCA) की ज़रूरत है. यह वह क्षण था जब भारत अपनी अगली पीढ़ी की एयर पावर की नींव रख सकता था. लेकिन सात साल तक निर्णय लंबित रहा और अगस्त 2007 में 126 एयरक्राफ्ट के लिए RFP जारी हुआ.
2014 में केंद्र सरकार बदलने के बाद आनन-फ़ानन में 23 सितंबर 2016 को भारत और फ्रांस के बीच Inter-Governmental Agreement पर हस्ताक्षर हुए, जिसके तहत 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद हुई. जबकि मूल MMRCA योजना के अनुसार 126 विमान लिए जाने थे. सात स्क्वाड्रन आती, लेकिन वास्तविकता में सिर्फ दो स्क्वाड्रन ही इंडक्ट की गईं. समय पर डिलीवरी में फ्रांस ने रिकॉर्ड प्रदर्शन किया — पहले पाँच राफेल 27 जुलाई 2020 को अंबाला पहुंचे, 10 सितंबर 2020 को भारतीय वायुसेना में औपचारिक रूप से शामिल हुए, और आख़िरी राफेल 15 दिसंबर 2022 को डिलीवर होते ही IAF ने ट्वीट किया – “The Pack is Complete”.
प्रश्न: सवाल अब भी बना हुआ है जब राफेल रिकॉर्ड समय पर डिलीवर हो रहे थे, तब समय रहते राफेल के और आर्डर क्यों नहीं दिए गए?
उस समय — या उसके बाद के वर्षों में — यदि 2 या 3 अतिरिक्त स्क्वाड्रन का ऑर्डर दे दिया जाता, तो आज भारतीय वायुसेना को घटती स्क्वाड्रन संख्या को लेकर इतनी चिंता नहीं करनी पड़ती. दिसंबर 2022 से आज दिसंबर 2025 – तीन साल — यानी उसी समय कम से कम 2-3 राफेल स्क्वाड्रन और ऑर्डर की जा सकती थीं, ताकि वायुसेना की लड़ाकू क्षमता एक ‘Waiting Mode’ में न चली जाए.
एयर डिफेन्स: भारत ने अपनी एयर डिफेंस क्षमताओं (जैसे S-400, MR-SAM) पर ठीक ही ज़ोर दिया है, और ऑपरेशन सिंधूर जैसे युद्धों में उनकी प्रभावशीलता दिखी है. हालाँकि, यह सफलता एक विशेष परिदृश्य — जहाँ दुश्मन अपेक्षाकृत कमज़ोर है या हमला सीमित रहा है. एयर डिफेंस प्रणालियाँ मूलतः रक्षात्मक और प्रतिक्रियाशील होती हैं; यानी वे दुश्मन की पहल पर निर्भर करती हैं. ये सिस्टम फाइटर जेट्स की कुछ कमी की भरपाई कर सकते हैं. फाइटर जेट नहीं बन सकते.
ऑपरेशन सिन्दूर के दौरान भारत ने अपने स्वदेशी एयर डिफेन्स और सुपरसोनिक ब्रह्मोस का बखूबी इस्तेमाल किया. मगर असली परीक्षा तब होती है जब शत्रु आपके बराबर या आपसे अधिक शक्तिशाली हो. आपके दो-मोर्चों पर युद्ध की स्थिति कभी भी बन जाती है. ऐसे में केवल रक्षा पर्याप्त नहीं है. युद्धक क्षमता और प्रतिरोध शक्ति आक्रामक वायु शक्ति से आती है. पर्याप्त संख्या में आधुनिक फाइटर जेट्स (जैसे राफेल, एसयू-30एमकेआई, और भविष्य में AMCA) ही दुश्मन के इलाके में जाकर उसकी योजनाओं को नष्ट कर सकते हैं, उसे रक्षात्मक बना सकते हैं, और दोनों मोर्चों पर एक साथ दबाव बनाए रख सकते हैं.
एयर डिफेंस सुरक्षा का ‘ढाल’ है, लेकिन फाइटर जेट्स जीत की ‘तलवार’ हैं. दोनों का संतुलन ही भविष्य की जटिल चुनौतियों के लिए भारत को पूरी तरह तैयार कर सकता है. आधुनिक एयर डिफेंस सिस्टम ज़रूरी, लेकिन लड़ाकू विमानों की कमी का स्थायी समाधान नहीं है.
राष्ट्रपति पुतिन और SU-57: SU-57 की डील बेहद ज़रूरी है. भारत के सामने वायुसेना के स्क्वाड्रन घटने और दो मोर्चों पर सामरिक दबाव का संकट है. ऐसे में, रूस द्वारा प्रस्तावित SU-57 डील एक त्वरित लाभ देगा. यह विमान आधिकारिक रूप से पांचवीं पीढ़ी का है और सुखोई से पूर्ण तकनीक ट्रांसफर के वादे के साथ आता है. भारत के पास पहले से ही SU-30MKI के साथ सुखोई प्लेटफॉर्म पर काम करने का व्यापक अनुभव, तकनीकी ज्ञान और रखरखाव का ढांचा मौजूद है, जिससे इसे अपनाना सैद्धांतिक रूप से आसान होगा है. AMCA जैसे स्वदेशी कार्यक्रमों की डिलीवरी में लम्बे समय को देखते हुए, यह डील एक त्वरित और ठोस समाधान है. जो 5-10 वर्षों में ही वायु सेना की ऑफेंसिव क्षमता में भारी बढ़ोतरी कर सकती है.
हालाँकि, बड़े पैमाने की खरीदारी (लगभग 10 स्क्वाड्रन) भारत के महत्वाकांक्षी स्वदेशी AMCA कार्यक्रम के लिए वित्तीय और रणनीतिक प्राथमिकता को गंभीर रूप से हानि पहुँचा सकती है, जिससे दीर्घकालिक तकनीकी आत्मनिर्भरता का लक्ष्य धूमिल हो सकता है. इन परिस्थितियों में, सबसे विवेकपूर्ण रास्ता एक संतुलित और सतर्क रणनीति अपनाना हो सकता है.
भारत रूस के साथ एक छोटे पैमाने की प्रारंभिक डील पर विचार कर सकता है, जैसे कि 4-5 स्क्वाड्रन की सीमित खरीद और संयुक्त उत्पादन. इससे वायु सेना को इस प्लेटफॉर्म की वास्तविक क्षमताओं का मूल्यांकन करने, रूस के वादों की परख करने और अपने तकनीशियनों को प्रशिक्षित करने का समय मिल जाएगा, बिना AMCA जैसे दीर्घकालिक स्वदेशी कार्यक्रमों के बजट एवं प्राथमिकता को पूरी तरह से ट्रांसफर किए. साथ ही, इस सौदे को AMCA के लिए इंजन या सेंसर जैसी महत्वपूर्ण तकनीक के ट्रांसफर के लिए एक सपोर्ट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तरह, भारत तात्कालिक क्षमता की कुछ कमी को पाटते हुए भी अपनी भविष्य की तकनीकी स्वतंत्रता को सुरक्षित रख सकता है.
यह निर्णय भविष्य के इतिहासकारों द्वारा आंका जाएगा. “जब करना चाहिए था, तब क्यों नहीं किया?” यह वही कड़वा सवाल है जो पिछले तीन दशकों की रक्षा नीति से पूछा जाता रहा है. आज, हम उसी सवाल के एक नए संस्करण के सामने खड़े हैं. क्या हम उन चूकों से सीख पाएंगे? ड्रोन, साइबर युद्ध और एंटी-एक्सेस एरिया डेनायल (A2/AD) व्यवस्थाओं के युग में, वायु शक्ति की भूमिका पहले से कहीं अधिक निर्णायक है. इसलिए, SU-57 पर निर्णय सिर्फ ‘हां’ या ‘ना’ का नहीं होना चाहिए. यह, यह स्पष्ट करने का निर्णय होना चाहिए कि
क्या हम ‘खरीदने की मानसिकता’ से आगे बढ़कर ‘रणनीतिक क्षमता निर्माण’ की मानसिकता अपना सकते हैं?
क्या हम इस सौदे को AMCA के लिए तकनीकी सीढ़ी, हमारे इंजीनियरों के लिए प्रशिक्षण का मैदान और वायुसेना के लिए तत्काल ऑफेंसिव पावर प्रोवाइड कर सकते हैं?
अगर हां, तो यह आगे बढ़ने का कदम है. अगर नहीं, तो हम इतिहास को दोहराने के जोखिम में हैं.

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