Independence Day 2025: The Lost Stories of Forgotten Fighters

23 hours ago

इंटरनेट डेस्क (नई दिल्ली) अदिति शुकला।

1. खुदीराम बोस वो &Boy Revolutionary&य जो फांसी के वक्त भी मुस्कुराया

खुदीराम बोस, जिन्हें "बॉय रेवोल्यूशनरी" कहा जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे युवा क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने सिर्फ़ 18 साल की उम्र में फांसी का सामना किया। 3 दिसंबर 1889 को मिदनापुर, बंगाल के हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम बचपन में ही अनाथ हो गए और बड़ी बहन के पास पले। स्कूल के दिनों में ही उन्होंने श्री अरविंद और सिस्टर निवेदिता के भाषण सुने, जिससे उनमें क्रांति की चिंगारी भड़क उठी। 15 साल की उम्र में ब्रिटिश शासन के खिलाफ पर्चे बांटने पर पहली बार गिरफ्तार हुए और जल्द ही अनुषीलन समिति से जुड़कर बम बनाना और सरकारी अफसरों को निशाना बनाना शुरू किया। इस दौरान कलकत्ता के मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड की क्रूरता, खासकर एक 15 वर्षीय सुषील सेन को कोड़े लगवाने की घटना, ने क्रांतिकारियों को बदले के लिए उकसाया। ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर भेज दिया, लेकिन खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी ने उसका पीछा किया। उन्होंने जासूसी कर उसकी दिनचर्या जानी और यूरोपियन क्लब से लौटते समय बम से हमला करने का प्लान बनाया। 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम ने एक गाड़ी पर बम फेंका, जिसे वे किंग्सफोर्ड की समझ रहे थे, पर उसमें मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी थीं, जो मारी गईं। खुदीराम पैदल भागते हुए 25 मील दूर वैनी स्टेशन पहुंचे, जहां पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। उनके पास से रिवॉल्वर, नक्शा और गोलियां मिलीं। प्रफुल्ल ने पकड़े जाने से पहले खुद को गोली मार ली। खुदीराम ने शुरू में हमले की जिम्मेदारी ली, लेकिन बाद में इनकार कर दिया। 21 मई 1908 को मुकदमा शुरू हुआ और 13 जुलाई को हाई कोर्ट ने फांसी की सजा बरकरार रखी। 11 अगस्त 1908 को, महज 18 साल 8 महीने 8 दिन की उम्र में, उन्होंने हंसते हुए फांसी का सामना किया। भीड़ फूलों की मालाएं लेकर जेल के बाहर उमड़ी थी, और उनका अंतिम संस्कार कोलकाता में बड़े जनसमूह के साथ हुआ। उनकी शहादत ने युवाओं में आजादी की लहर तेज कर दी और वे अमर क्रांतिकारी के रूप में याद किए जाते हैं।

2. चापेकर ब्रदर्स: पुणे के तीन भाई जिनकी गोलियों से कांप उठा ब्रिटिश राज

चापेकर ब्रदर्स – दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव – सिर्फ नाम भर नहीं, बल्कि एक ऐसी क्रांतिकारी चिंगारी थे, जिसने अंग्रेजी हुकूमत के दिल में खौफ पैदा कर दिया। उनका जन्म पुणे के चापेकर परिवार में हुआ, जो धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से गहराई से जुड़ा था। उनके पिता हरिकृष्ण चापेकर एक सुप्रसिद्ध कीर्तनकार थे, जो अपने कीर्तनों में समाज सुधार और राष्ट्रभक्ति की बातें किया करते थे। यही से तीनों भाइयों में देशप्रेम की भावना बचपन से ही अंकुरित हुई। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, जब पूरी दुनिया रानी विक्टोरिया के डायमंड जुबली का जश्न मना रही थी, महाराष्ट्र के पुणे में अंग्रेजी राज का दूसरा ही चेहरा दिखाई दे रहा था। 1896 में फैले प्लेग ने शहर को दहला दिया था। लेकिन राहत देने की बजाय रैंड और उसकी प्लेग कमेटी ने शहर को सैन्य शिविर की तरह बदल दिया। तलाशी के नाम पर घरों में घुसना, मंदिरों और पूजास्थलों का अपमान करना, महिलाओं के साथ बदसलूकी, और लोगों की संपत्ति छीनना—इन अत्याचारों ने जनता को विद्रोह के लिए मजबूर कर दिया। चापेकर भाइयों ने यह तय किया कि अब अंग्रेजों को सबक सिखाना ही होगा। कई दिनों की योजना के बाद, 22 जून 1897 की रात, जब रैंड और उसका साथी लेफ्टिनेंट आयर्स समारोह से लौट रहे थे, तो दामोदर और बालकृष्ण ने अंधेरे में घात लगाकर उनकी गाड़ी पर गोलियां बरसाईं। रैंड वहीं ढेर हो गया और आयर्स कुछ दिनों बाद दम तोड़ बैठा। यह घटना सिर्फ पुणे ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में क्रांतिकारी चेतना का नया दौर लेकर आई।
अंग्रेज सरकार बौखला उठी। दामोदर सबसे पहले पकड़े गए और अप्रैल 1898 में उन्हें फांसी दी गई। बाद में बालकृष्ण व वासुदेव भी गिरफ्तार हुए और 1899 में दोनों को फांसी के फंदे पर झुला दिया गया। इनके छोटे भाई भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे, लेकिन अंग्रेजों ने पूरे परिवार को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फांसी से पहले दामोदर चापेकर ने कहा था "यदि मुझे सौ बार जन्म मिले, तो सौ बार मैं मातृभूमि की सेवा और बलिदान के लिए ही जन्म लूंगा।" आज पुणे में "चापेकर चौक", "चापेकर वस्ती" और कई सार्वजनिक स्थल उनके नाम पर हैं। उनकी गाथा यह साबित करती है कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल बड़े युद्धों और राजनेताओं की कहानियों में नहीं छिपी, बल्कि छोटे-छोटे समूहों और साहसी युवाओं के लहू में भी पनपी।

3. अरुणा आसफ अली: &भारत की ग्रैंड ओल्ड लेडी&य जिसने अंग्रेज़ों को ललकारा

अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा के कालका में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता उपेन्द्र नाथ गांगुली ब्रिटिश सरकार में अधिकारी थे, लेकिन अरुणा के विचार बचपन से ही स्वतंत्रता की ओर झुकते गए। शिक्षा उन्होंने नैनीताल और दिल्ली में पाई। छात्र जीवन में ही वे महात्मा गांधी के विचारों और स्वतंत्रता की चर्चाओं से गहराई से प्रभावित हुईं।1928 में उन्होंने प्रख्यात वकील और कांग्रेसी नेता आसफ अली से विवाह किया। यह विवाह उस समय सामाजिक रूप से साहसिक कदम था, क्योंकि यह अंतरधार्मिक विवाह था और इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का सामना भी करना पड़ा। लेकिन यही विवाह उनके जीवन को सीधे भारत की आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा तक ले आया।
1942 का भारत छोड़ो आंदोलन उनका निर्णायक क्षण बना। 9 अगस्त 1942 को जब मुंबई (तब बंबई) के गोवालिया टैंक मैदान में स्वतंत्रता सेनानी एकत्र हुए, तब ब्रिटिश पुलिस ने सभा पर लाठीचार्ज किया और अधिकतर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। माहौल दमन और भय का था, लेकिन अरुणा जी ने आगे बढ़कर सभा स्थल पर तिरंगा फहरा दिया। यह क्षण आंदोलन के इतिहास में अमर हो गया एक महिला ने, बिना किसी डर के, खुलेआम अंग्रेज़ शासन को ललकारा। इसके बाद वे भूमिगत हो गईं और गुप्त प्रेस व संदेशों के माध्यम से आंदोलन का संचालन करने लगीं। अंग्रेज सरकार ने उनके सिर पर 5,000 रुपये का इनाम रखा, लेकिन वे गिरफ्त से दूर रहीं। इस दौरान उन्होंने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्वतंत्रता की अलख जलाए रखी। आजादी के बाद वे सक्रिय राजनीति में रहीं और दिल्ली की पहली निर्वाचित महिला मेयर बनीं। उन्होंने शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक सुधार के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किए। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली, लेकिन उनके विचार और नेतृत्व शैली नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा बने रहे।1992 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार और 1997 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सही समय पर उठाया गया साहसी कदम पूरे राष्ट्र को नई दिशा दे सकता है

4. बिना दास : 21 साल की वो जांबाज लड़की, जिसने ब्रिटिश राज को सीधी चुनौती दे दी

सिर्फ 21 साल की उम्र में बिना दास ने इतिहास रच दिया, जब उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ हथियार उठाने वाली पहली महिलाओं में जगह बनाई। कोई प्रोफेशनल हत्यारिन नहीं थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने बंगाल के गवर्नर स्टैनली जैक्सन (जो इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान भी रह चुके थे) पर पांच गोलियां दागीं। इस साहसिक कदम ने कई युवा महिलाओं को आजादी की लड़ाई में कूदने के लिए प्रेरित किया। बिना दास का जन्म एक नामी ब्रह्मो शिक्षक बेनी माधव दास और समाजसेविका सरला देवी के घर हुआ। उनकी बड़ी बहन कल्याणी दास भी स्वतंत्रता सेनानी थीं। बिना1928 में बनी &छात्रि संघ&य (Women Students Association) से जुड़ीं। उनकी मां ने &पुण्य आश्रम&य नाम का हॉस्टल खोला, जहां कई क्रांतिकारी महिलाएं रहतीं और बम छुपाए जाते थे। इन्हीं में से एक क्रांतिकारी, कमला दास गुप्ता, ने बिना को वह रिवॉल्वर दी जिससे उन्होंने गवर्नर पर हमला किया। 6 फरवरी 1932 को कलकत्ता यूनिवर्सिटी में गवर्नर का दीक्षांत भाषण चल रहा था। बिना, जो देखने में एक शांत-सी छात्रा लग रही थीं, अपनी गाउन के नीचे रिवॉल्वर छुपाकर बैठी थीं। जैसे ही गवर्नर बोल रहे थे, बिना खड़ी हुईं, रिवॉल्वर निकाली और गोली चला दी। पहली दो गोलियों से गवर्नर बच गए, और वाइस-चांसलर हसन सुहरावर्दी उन्हें बचाने के लिए कूद पड़े। फिर भी बिना ने तीन और गोलियां चलाईं, लेकिन गवर्नर बाल-बाल बचे। इस दौरान एक प्रोफेसर, डॉ। दिनेशचंद्र सेन, घायल हो गए।
अखबारों में अगले दिन सुर्खियां थीं कि 'कलकत्ता की ग्रैजुएट छात्रा ने गवर्नर को मारने की कोशिश की।' बिना को गिरफ्तार कर 9 साल की सजा सुनाई गई। पूछताछ में उन्होंने अपने साथियों के नाम बताने से इंकार कर दिया और अदालत में कहा, 'मैंने गवर्नर पर गोली चलाई क्योंकि वो उस सिस्टम का प्रतीक है जिसने करोड़ों भारतीयों को ग़ुलाम बनाया है। मेरा उद्देश्य इस तानाशाही को चोट पहुंचाना था, भले ही इसके लिए मुझे मरना पड़े।' जेल में रहते हुए उन्होंने भूख हड़तालें कीं, जहरीली चींटियों के बीच पैर रखे और आग में हाथ डालकर अपना साहस परखा। रिहाई के बाद वो &क्विट इंडिया मूवमेंट&य और &जुगांतर&य संगठन से जुड़ीं। कलकत्ता कांग्रेस कमेटी की सचिव रहते हुए उन्हें फिर तीन साल जेल में रहना पड़ा।
1947 में उन्होंने साथी क्रांतिकारी ज्योतिष भौमिक से शादी की, लेकिन पति की मौत के बाद ऋषिकेश जाकर साधारण जीवन जीने लगीं। उन्होंने कभी स्वतंत्रता सेनानी पेंशन स्वीकार नहीं की। उनकी मौत बेहद दुखद थी – सड़क किनारे उनकी लाश मिली, पहचानने में एक महीना लग गया। जिस आजाद भारत के लिए उन्होंने सबकुछ दांव पर लगाया, वहीं उनका अंत गुमनाम, बेसहारा और बेआवाज हुआ। लेकिन बिना दास की कहानी हमें याद दिलाती है कि असली देशभक्ति अक्सर इतिहास की किताबों से कहीं बाहर लिखी जाती है।

5. गंगादीन मेहतर : 1857 के असली शेर जिसने अकेले 200 ब्रिटिश सैनिक मार गिराए

गंगादीन मेहतर, जिन्हें लोग प्यार से गंगू पहलवान या गंगू बाबा भी कहते थे, 1857 की क्रांति के ऐसे वीर योद्धा थे जिनका नाम आज भी सुनकर गर्व होता है। कानपुर के चुन्नीगंज के रहने वाले गंगादीन सिर्फ एक पहलवान ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के लिए डर का दूसरा नाम थे। वह नाना साहेब पेशवा की सेना में मिड-लेवल जूनियर कमीशन्ड ऑफिसर थे और 1857 के विद्रोह में उनका रोल इतना बड़ा था कि अंग्रेज उनके नाम से कांपते थे। 1857 की लड़ाई में गंगादीन का साहस देखने लायक था। कहते हैं कि उन्होंने अकेले करीब 200 ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। उनकी लड़ाई की रणनीति, ताकत और जज्बा ऐसा था कि दुश्मन के पास बचकर भागने का भी रास्ता नहीं बचता था। उनकी तलवारबाजी और शारीरिक ताकत का किस्सा पूरे इलाके में मशहूर था। अंग्रेज समझ गए थे कि अगर गंगादीन को नहीं रोका गया, तो वह उनके पूरे प्लान को तहस-नहस कर देंगे। इसलिए उन्होंने गंगादीन को पकड़ने या मारने के लिए हर कोशिश शुरू कर दी। महीनों की मशक्कत के बाद आखिरकार ब्रिटिश सैनिक उन्हें पकड़ने में सफल हुए। उन्हें कैद कर लिया गया और अदालत में पेश किया गया, लेकिन गंगादीन के चेहरे पर डर का नामोनिशान तक नहीं था।
8 सितंबर 1859 को अंग्रेजों ने उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी देने का फैसला किया ताकि बाकी लोग डर जाएं और विद्रोह शांत हो जाए। फांसी से पहले गंगादीन ने वो ऐतिहासिक शब्द कहे जो आज भी आजादी के दीवानों के दिल में गूंजते हैं: 'इस भारत की मिट्टी में हमारे पूर्वजों का खून और बलिदान बसा है, एक दिन ये जरूर आजाद होगी।' फांसी के तख्ते पर चढ़ते समय उन्होंने कोई पछतावा नहीं दिखाया, बल्कि मुस्कुराते हुए फांसी का फंदा चूमा। उनके हौसले और आत्म-सम्मान ने वहां खड़े हर शख़्स को हैरान कर दिया। अंग्रेजों ने सोचा था कि उनकी मौत से डर फैल जाएगा, लेकिन उल्टा, गंगादीन की शहादत ने और भी लोगों को क्रांति में कूदने के लिए प्रेरित किया। गंगादीन मेहतर की कहानी हमें याद दिलाती है कि आजादी किसी एक दिन में नहीं मिली, बल्कि इसके लिए असंख्य गुमनाम नायकों ने अपनी जान दी। उनकी बहादुरी, बलिदान और अटूट आत्मविश्वास भारतीय इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। अफसोस कि मुख्यधारा के इतिहास में उनका नाम कम लिया जाता है, लेकिन कानपुर और आसपास के इलाकों में गंगू बाबा की वीरता के किस्से आज भी बुजुर्गों की ज़ुबान पर हैं।

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