Opinion: नीतीश कुमार के नजरिये पर 'नजर' डालने वाले जरा खुद भी तो आईना देखें!

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पटना. नीतीश कुमार से जुड़ा बुर्का विवाद 15 दिसंबर 2025 का है. तब पटना में आयोजित एक सरकारी कार्यक्रम से शुरू हुआ था जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उस कार्यक्रम में नव नियुक्त आयुष डॉक्टरों को नियुक्ति पत्र वितरित कर रहे थे. इसी दौरान मुस्लिम महिला डॉक्टर नुसरत परवीन, जो हिजाब/नकाब में थीं, मंच पर नियुक्ति पत्र लेने पहुंचीं. वीडियो में दिखता है कि नीतीश कुमार ने “यह क्या है?” कहते हुए उनका नकाब नीचे की ओर खींच दिया. यह दृश्य कैमरे में कैद हो गया और देखते ही देखते सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसके बाद विपक्षी दलों-आरजेडी और कांग्रेस के साथ-साथ कई मुस्लिम संगठनों और नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी. इसे महिला की गरिमा, धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन बताया गया. अब इस विवाद में अब जमीयत उलेमा-ए-हिंद (एमएम) के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी की एंट्री हो गई तो यह मामला नये सिरे से गर्मा गया, क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बिना शर्त माफी की मांग की है.

मौलाना की बिना शर्त माफी की मांग

मौलाना मदनी का कहना है कि हिजाब केवल पहनावे का विषय नहीं है, बल्कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धार्मिक आस्था जैसे मौलिक संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है. उनके अनुसार, किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा इस तरह का व्यवहार न केवल संबंधित महिला का अपमान है, बल्कि इससे पूरे समाज की भावनाएं आहत होती हैं. उन्होंने आशंका जताई कि इस तरह की घटनाएं निचले स्तर के अधिकारियों को भी हिजाब पहनने वाली महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं. ऐसे में नीतीश कुमार बिना शर्त माफी मांगें.

सवालों में सिलेक्टिव संवेदनशीलता

मदनी की कड़ी प्रतिक्रिया के साथ ही एक बड़ा सवाल भी सामने आ गया है-क्या यही संवेदनशीलता अतीत की अन्य घटनाओं में भी दिखाई गई थी? आलोचकों का कहना है कि यही मौलाना और यही राजनीतिक व सामाजिक समूह तब खामोश रहे, जब राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर महिलाओं के साथ सार्वजनिक मंच पर अमर्यादित व्यवहार के आरोप लगे थे. ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यहां मुद्दा वास्तव में महिला सम्मान का है या अपने खुद के नजरिये का और राजनीतिक सुविधा का?

अशोक गहलोत का घूंघट विवाद जानें

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से जुड़ा घूंघट विवाद 2 सितंबर 2023 का है. बांसवाड़ा जिले में एक राहत शिविर के दौरान गहलोत एक हिंदू महिला का घूंघट हटाते हुए नजर आए थे. उन्होंने यह कहते हुए ऐसा किया कि घूंघट प्रथा महिला सशक्तिकरण में बाधा है. विडंबना यह रही कि उसी मंच पर, उसी महिला के ठीक पीछे एक मुस्लिम महिला बुर्के में खड़ी थीं, जिनसे गहलोत पूरी सम्मानजनक भाषा में बात करते दिखे. उस समय स्त्री गरिमा पर थोड़ी चर्चा जरूर हुई, लेकिन वैसा राजनीतिक और सामाजिक उबाल नहीं देखा गया जैसा आज नीतीश कुमार के मामले में है.

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्रीअशोक गहलोत से जुड़ी घूघट हटाने की घटना 2 सितंबर 2023 को बांसवाड़ा जिले में एक राहत शिविर के दौरान की है.

सिद्धारमैया का दुपट्टा प्रकरण जानिए

थोड़ा और पीछे जाएं तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का 28 जनवरी 2019 का वह मामला याद आता है जब मैसूरु की एक सभा में बहस के दौरान एक महिला कार्यकर्ता का दुपट्टा खिंच गया था. सिद्धारमैया ने इसे “एक्सीडेंट” बताया और महिला ने कोई औपचारिक शिकायत भी नहीं की. हालांकि बीजेपी ने इसे महिला अपमान का मामला बताया था, लेकिन उस समय न तो व्यापक सामाजिक आंदोलन खड़ा हुआ और न ही लगातार नैतिक उपदेश सुनाई दिए. यह चुप्पी भी आज के शोर के साथ तुलना करने पर सवाल खड़े करती है.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से जुड़ी दुपट्टा खींचने की घटना 28 जनवरी 2019 को मिसुरु में एक सार्वजनिक सभा के दौरान हुई थी.

नीतीश कुमार की छवि और घेराबंदी

नीतीश कुमार के लंबे राजनीतिक जीवन को देखें तो उन पर न भ्रष्टाचार का आरोप है, न परिवारवाद की छाया, न संपत्ति विस्तार का दाग. वे अब तक राजनीतिक आचरण और सार्वजनिक मर्यादा के मामलों में अपेक्षाकृत बेदाग रहे हैं. यही कारण है कि जानकार मानते हैं कि यह विवाद उनके जीवन का लगभग इकलौता ऐसा प्रसंग है, जिसे इतना बड़ा नैतिक संकट बनाकर पेश किया जा रहा है. आलोचकों का कहना है कि हाल के वर्षों में उन्हें दक्षिणपंथ, वामपंथ और मध्यमार्ग-तीनों से अलग एक “चौथी धारा” में खड़ा करने की कोशिश हो रही है जहां उनकी राजनीति में होने की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

महिला सम्मान या सियासी नजरिये की लड़ाई?

हिजाब विवाद ने यह साफ कर दिया है कि भारतीय राजनीति में मुद्दों से ज्यादा नजरिये मायने रखते हैं. महिला सम्मान, धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकार जैसे गंभीर विषय तब ही विश्वसनीय लगते हैं, जब उनका पैमाना सभी के लिए समान हो. नीतीश कुमार का यह प्रकरण गलती, असहजता या असावधानी हो सकता है-इस पर बहस हो सकती है. लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीति में नैतिकता भी चयनात्मक यानी सिलेक्टिव हो गई है? शायद यही इस पूरे विवाद का असली केंद्र यही है.

नीतीश कुमार के बहाने दोहरे मापदंड पर सवाल

नीतीश कुमार का यह विवाद उनके लंबे राजनीतिक जीवन का अपवाद है, लेकिन प्रतिक्रिया का पैमाना असहज करता हुआ नजर आता है. घूंघट और दुपट्टा खींचने जैसी घटनाओं पर जिस तरह की चुप्पी पहले देखी गई, उसकी तुलना में आज का कथित आक्रोश कई सवाल छोड़ जाता है. साफ है कि बहस महिला सम्मान से आगे निकलकर राजनीतिक नजरिये और सुविधा की लड़ाई बन चुकी है. दरअसल, राजनीति में सिद्धांत और आचरण एक जैसे हों, तभी नैतिकता की बात वजनदार लगती है-वरना हर विवाद सिर्फ एक नया सियासी औजार बनकर रह जाता है.

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