हिंदुओं से जुड़ा वह कानून, जिस पर नेहरू से भिड़ गए थे डॉ. राजेंद्र प्रसाद

24 minutes ago

भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की आज 141वीं जयंती है. बिहार के जीरादेई गांव में 3 दिसंबर 1884 को जन्मे उस सादगी पसंद विद्वान को आज पूरा देश ‘राजेंद्र बाबू’ या ‘देशरत्न’ कहकर याद करता है. उन्होंने न सिर्फ संविधान निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई, बल्कि स्वतंत्र भारत की वैचारिक दिशा तय होने के निर्णायक मोड़ पर अपनी स्पष्ट राय और दृढ़ रुख से इतिहास को प्रभावित किया. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के ठीक बाद भारत के दो सबसे बड़े कद के नेताओं, पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच सबसे तीखी टक्कर हिंदू समाज को बदलने वाले एक कानून पर हुई थी. वह कानून था हिंदू कोड बिल…

एक तरफ नेहरू और आंबेडकर थे, जो हिंदू समाज को आधुनिक, वैज्ञानिक और समानतावादी बनाना चाहते थे. दूसरी तरफ थे डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जो मानते थे कि हिंदू परंपराओं और जनभावनाओं को कुचलकर सुधार नहीं लाए जा सकते. यह टकराव इतना गहरा था कि राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री निवास के बीच चिट्ठियों का लंबा दौर चला, संगठन में फूट पड़ने तक की नौबत आ गई और देश की पहली सरकार में दरार साफ दिखने लगी.

सबसे पहले समझिए कि हिंदू कोड बिल था क्या?

आजादी के तुरंत बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अक्टूबर 1947 में संविधान सभा में एक ड्राफ्ट पेश किया. इसके तहत हिंदुओं के लिए विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, संपत्ति और रखरखाव के एकसमान कानून बनाने थे. लड़कियों को पैतृक संपत्ति में बराबर का हक, एक ही पत्नी की शर्त, अंतरजातीय विवाह को मान्यता और तलाक का अधिकार जैसी बातें इसमें थीं.

नेहरू इसे महिलाओं की मुक्ति और आधुनिक भारत की नींव मानते थे. लेकिन उस दौर में हिंदू समाज के बड़े हिस्से में इसे ‘हिंदू धर्म पर हमला’ माना गया. संविधान सभा के अध्यक्ष होने के नाते डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सबसे पहले हस्तक्षेप किया. उन्होंने कहा कि इतना बड़ा बदलाव बिना जनता की राय के नहीं होना चाहिए. परंपराएं अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग हैं, इसलिए पहले जनमत लेना चाहिए. उनका तर्क था कि लोकतंत्र में जनता की भावनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. नेहरू इस बात से सहमत नहीं थे. उनके लिए यह वैज्ञानिक चेतना और समाजवाद का सवाल था. वे मानते थे कि मंदिरों और पूजा-पाठ से ऊपर उठकर बड़े उद्योग, अस्पताल, स्कूल और लैबोरेट्री बनानी हैं. वह धर्म को निजी मामला और सामाजिक सुधारों को सरकार की जिम्मेदारी मानते थे.

नेहरू से क्यों खफा हो गए थे डॉ. राजेंद्र प्रसाद?

यह विवाद इतना बढ़ गया कि धार्मिक नेता और रूढ़िवादी संगठन सड़कों पर उतर आए. संत करपात्री जी महाराज ने हजारों साधु-संतों के साथ संसद तक मार्च के लिए निकल पड़े. हालांकि पुलिस ने उन्हें रोक दिया. संसद परिसर के बाहर खूब हंगामा था, अंदर संविधान सभा में तनाव. नेहरू ने ठान लिया था कि बिल पास कराकर रहेंगे, भले ही सारी आलोचना खुद पर ले लें. राजेंद्र प्रसाद इससे क्रोधित हो गए. उन्होंने नेहरू को एक कड़ा पत्र लिखा, जिसमें उन्हें ‘अन्यायपूर्ण और अलोकतांत्रिक’ तक कह दिया. यह पत्र भेजने से पहले उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल को दिखाया. पटेल ने समझाया कि गुस्से में पत्र न भेजें, पार्टी फोरम में बात करें.

एक सवाल यह भी उठता है कि सरदार पटेल ने ऐसा क्यों कहा? वह वक्त सितंबर 1949 का था. भारत का संविधान पूरा होने ही वाला था और उसके तुरंत बाद राष्ट्रपति चुनाव होने थे. नेहरू उस पद के लिए तत्कालीन गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को चाहते थे. लेकिन पटेल और राजेंद्र प्रसाद की संगठन पर मजबूत पकड़ थी. कांग्रेस के अधिकांश सांसद और कार्यकर्ता पटेल-प्रसाद खेमे के साथ थे. पटेल नहीं चाहते थे कि चुनाव से पहले नेहरू से सीधी भिड़ंत हो. आखिर नेहरू कांग्रेस का चेहरा थे और जनता के बीच सबसे लोकप्रिय.

सिर्फ हिंदुओं के लिए ही कानून क्यों?

पटेल की रणनीति काम कर गई. कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में राजेंद्र प्रसाद को ही उम्मीदवार बनाया. 26 जनवरी 1950 को सुबह ठीक 10 बजकर 24 मिनट पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली. हालांकि राष्ट्रपति बनने के बाद भी विवाद थमा नहीं. 1950-51 में हिंदू कोड बिल पर बहस चलती रही. डॉ. आंबेडकर इस बिल को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मिशन मानते थे. कहा जाता है कि नेहरू और आंबेडकर में इस मुद्दे पर कई बार तीखी बहस हुई.

आंबेडकर लंदन से अर्थशास्त्र में पीएचडी थे और देश की आर्थिक योजना में भी बड़ी भूमिका चाहते थे, लेकिन नेहरू ने उन्हें सिर्फ कानून मंत्रालय तक सीमित रखा. इससे दोनों के बीच कड़वाहट और बढ़ी. संसद के बाहर आंदोलन तेज था. करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में साधु-संतों ने अनशन तक किया. राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू को फिर पत्र लिखा. इस बार कहा कि संसद देश का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर रही, क्योंकि पहला आम चुनाव अभी होना बाकी है. उन्होंने पूछा कि अगर सुधार करने हैं तो सिर्फ हिंदुओं के लिए क्यों? सब धर्मों के लिए एकसमान नागरिक संहिता यानी आज की UCC लाएं.

समान नागरिक संहिता पर क्या थी नेहरू की राय?

नेहरू ने जवाब दिया कि नया-नया देश है, अल्पसंख्यकों को हिंदू बहुसंख्यक से बचाने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा चाहिए. इसलिए अभी हिंदू कोड बिल ही ला रहे हैं. राजेंद्र प्रसाद ने साफ लिख दिया कि अगर बिल संसद से पास भी हो गया तो वे उस पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे. नेहरू ने कानूनी विशेषज्ञों से राय ली. सबने कहा कि राष्ट्रपति संसद के फैसले को मानने को बाध्य है. लेकिन नेहरू ने जल्दबाजी नहीं की. वे जानते थे कि संगठन टूटने की नौबत नहीं आनी चाहिए. इसलिए 1952 के आम चुनाव तक बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया. डॉ. आंबेडकर को यह रवैया पसंद नहीं आया. अक्टूबर 1951 में उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और अलग पार्टी बनाकर लोकसभा चुनाव लड़े.

फिर 1952 के आम चुनाव में नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला. राजेंद्र प्रसाद फिर राष्ट्रपति चुने गए. इसके बाद 1955-56 में हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में बांटकर पास कराया गया- हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम. इनमें बहुत सारी संशोधनें की गईं, कई रूढ़िवादी प्रावधान हटा दिए गए, लेकिन मूल ढांचा वही रहा. आज ये चारों कानून हिंदू समाज की नींव हैं.

आज जब हम डॉ. राजेंद्र प्रसाद को याद करते हैं तो सिर्फ संविधान सभा के अध्यक्ष या पहले राष्ट्रपति के रूप में नहीं, बल्कि उस साहसी आवाज के रूप में याद करते हैं जिसने सत्ता के सामने खड़े होकर कहा था कि सुधार जरूरी हैं, लेकिन जनभावनाओं को कुचलकर नहीं. नेहरू आधुनिकता और वैज्ञानिक सोच के प्रतीक थे तो राजेंद्र बाबू भारतीय संस्कृति और जनमानस के. दोनों के बीच टकराव था, लेकिन देशहित में समझौता भी किया.

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