'बच्चा न पूरी तरह लड़का है न लड़की, दिल्ली एम्स में आ रहे सैकड़ों केस',

2 hours ago

’10 दिन का एक बच्चा एम्स की ओपीडी में आया. गरीब परिवार से था. बच्चा बीमार और डिहाइड्रेटेड था. पेरेंट्स ने वैसे उसे लड़की की तरह रखा था लेकिन उसका जननांग थोड़ा अलग था और संदिग्ध था. हालांकि उसके लड़कों वाली टेस्टीज भी नहीं थीं. उसकी जांच की गईं तो सोडियम कम और पोटेशियम बढ़ा हुआ पाया गया. उसका अल्ट्रासाउंड भी किया और पेरेंट्स को बताया कि यह लड़की ही है लेकिन आगे चलकर कुछ सर्जरी करनी होंगी तो इसकी लाइफ एकदम नॉर्मल होगी.

करीब 10 दिन बाद वही बच्चा नए पेशेंट के रूप में वापस एम्स में आया और उसे माता-पिता नहीं बल्कि किन्नर लेकर आए, उन्होंने कहा कि बच्चा शॉक में है. हालांकि हमारे रेजिडेंट ने बच्चे को पहचान लिया था. उसका इलाज किया और पेरेंट्स को भी बुलाया समझाया लेकिन उन्होंने बच्चे को अपनाने और घर ले जाने से मना कर दिया. आखिरकार बच्चा चाइल्ड केयर होम में भेजा गया. एम्स में उसका लगातार इलाज चला और डेढ़ साल की उम्र में कारा के द्वारा उसको विदेशी नागरिक ने गोद ले लिया. फिलहाल वो बच्चा एकदम ठीक है…….’

यह एक मामला है, लेकिन ऐसे ही सैकड़ों मामले एम्स नई दिल्ली में आ रहे हैं जब बच्चा न तो पूरी तरह लड़का है और न ही पूरी तरह लड़की है. कई बार पेरेंट्स सामाजिक लांछन या शर्मिंदगी की वजह से इन बच्चों को पालने से मना कर देते हैं, जबकि यह एक डिसऑर्डर ऑफ सेक्स डेवलपमेंट (DSD) बीमारी है और इसका 100 फीसदी कारगर इलाज है. यह कहना है एम्स में पीडियाट्रिक एंडोक्राइनोलॉजी की प्रोफेसर इंचार्ज डॉ. वंदना जैन का.

क्या है डीएसडी, क्या होते हैं लक्षण ?

एम्‍स में डीएसडी को लेकर जानकारी देते न‍िदेशक डॉ. एम श्रीन‍िवास और डॉ. वंदना जैन

डॉक्टर वंदना बताती हैं कि आज इस बीमारी को डिसऑर्डर ऑफ सेक्स डेवलपमेंट डीएसडी कहा जाता है. ऐसी करीब 150 जेनेटिक कंडीशंस हैं, जिनकी वजह से ये बीमारियां सामने आ रही हैं. यह बीमारी हर 4 से 5000 बच्चों में से एक बच्चे में देखी जा रही है. आमतौर पर इसका पता बचपन में या नवजात अवस्था में चल जाता है लेकिन कुछ ऐसे भी मामले होते हैं, जब प्यूबर्टी के समय ये सामने आते हैं. जब उम्र के अनुसार चीजें नहीं होती तो इस बीमारी का पता चलता है, जैसे किशोरावस्था में आते आते लड़की का पीरियड न आना, ब्रेस्ट का विकास न होना आदि, वहीं लड़कों में टेस्टीज का साइज न बढ़ना, इनका ब्रेस्ट डेवलप होने लगना या यूरिन में ब्लड आना आदि. ये सिर्फ जेनिटल इश्यूज ही नहीं हैं बल्कि कई बार ये विकार बच्चे के लिए जानलेवा भी हो जाते हैं. इन डिसऑर्डर्स के पीछे कई बार ऐसी कई ट्यूमर या किडनी संबंधी गंभीर बीमारियां छिपी होती हैं, जिनका समय पर इलाज हो पाता है.

एम्स के डायरेक्टर बोले, एम्स में अब तक आए लाखों मामले
वहीं एम्स के निदेशक डॉ. एम श्रीनिवास ने कहा, जब बच्चा जन्म लेता है तो तत्काल से पूछा जाता है कि मेरा बच्चा लड़का है या लड़की है, आमतौर पर वह सही होता है और डॉक्टर बता देते हैं, लेकिन बहुत थोड़े मामले ऐसे भी होते हैं, जिनमें थोड़ा संदेह होता है. उस स्थिति में कुछ जांचें करनी पड़ती हैं. इसके लिए कुछ ब्लड टेस्ट, एक्सरे, अल्ट्रासाउंड आदि करने होते हैं, उसके बाद बताया जाता है कि आपका बच्चा मेल है, फीमेल या कुछ डिसऑर्डर से ग्रस्त है और इसकी जांच करके बताएंगे कि क्या कर सकते हैं.

जहां तक जेंडर की बात है तो तीन स्तर पर जेंडर तय होता है. पहला है जीन या क्रोमोसोम के लेवल पर, दूसरा फेनोटाइप के आधार पर कि वह बाहर से दिखता कैसा है, महिला है या पुरुष है और तीसरा होता है विचार के आधार पर कि वह सोचता कैसा है, खुद को महिला या पुरुष मानता है. अभी तक एम्स नई दिल्ली में ऐसे लाखों मामले नवजात स्तर पर और प्यूबर्टी के स्तर पर सामने आ चुके होंगे, जब बच्चा न पूरी तरह मेल है और न ही फीमेल है.

एम्स में है इस बीमारी का स्पेशल क्लीनिक
एम्स नई दिल्ली में इस बीमारी का स्पेशल डीएसडी क्लीनिक चलाया जा रहा है. जिसमें पीडियाट्रिक सर्जन, साइकेट्रिस्ट और एंडोक्राइनलोजिस्ट की टीम इस बीमारी के बच्चों का इलाज करती है और बेहतर रिजल्ट देखने को मिल रहा है.

ये बीमारी कलंक नहीं, दुखी न हों पेरेंट्स
डॉ. श्रीनिवास कहते हैं कि अगर बच्चे के जेंडर का पता नहीं चल पा रहा है तो आपको दुखी नहीं होना है, बल्कि उसे डॉक्टरों को दिखाना है कि कहां क्या परेशानी है. उसे पूरी तरह ठीक किया जा सकता है. लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि आपको उस बच्चे को ऐसी जगह दिखाना है जहां डॉक्टरों की पूरी टीम समर्पित है, इसमें पीडियाट्रिक एंडोक्राइनोलॉजिस्ट, पीडियाट्रिक सर्जन, साइकेट्रिस्ट, एनाटॉमी से एक्सपर्ट सभी हैं. एम्स में ऐसी ही टीम काम कर रही है, जो सभी फैक्टर्स को देखकर फैसला करती है कि बच्चे को पूरी तरह महिला बनाना है या पुरुष बनाना है. इसके लिए दवाओं से लेकर सर्जरी तक की सुविधा एम्स में मौजूद है.डॉ. श्रीनिवास ने जोर देकर कहा कि यह ट्रांसजेंडर कंडीशन से एकदम अलग है, इसका उससे कोई लेना देना नहीं है. यह एक बीमारी है जिसका इलाज किया जाता है.

बच्चों और पेरेंट्स की काउंसलिंग है जरूरी
इस बारे में एम्स के डीएसडी क्लीनिक में साइकेट्रिस्ट डॉ. राजेश सागर ने कहा कि इस बीमारी को लेकर इतना ज्यादा सोशल स्टिग्मा है कि न तो इसके बारे में ज्यादा बात होती है और न ही इसके इलाज को लेकर लोग जागरुक हैं. वैसे तो यह एक सामान्य बीमारी है और इसका इलाज हो सकता है लेकिन देखा जाता है कि पेरेंट्स और खुद बच्चे के मन पर इस बीमारी का गहरा असर पड़ता है. लोग इस सदमे में चले जाते हैं कि यह तो बेटा था अब इसे बेटी के रूप में कैसे स्वीकार करें, समाज क्या कहेगा, लोग क्या कहेंगे. मेरे ही बच्चे के साथ ऐसा क्यों हुआ? तो एम्स में इसके लिए काउंसलिंग की जाती है. लोगों को इलाज के लिए भी तैयार किया जाता है.

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