भारत में पहले कई दिनों तक बारिश होती थी, सूरज नहीं दिखता था, अब ऐसा क्यों नहीं

4 hours ago

भारत में पहले कई कई दिनों की ऐसी बारिश होती थी कि जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता था. सूरज नजर नहीं आता था. काम-धाम रुक जाते थे. आवागमन पर बहुत असर पड़ता था. विशेष रूप से 20वीं सदी के मध्य और सातवें – आठवें दशक तक ऐसा आमतौर पर होता ही था लेकिन अब खासकर पिछले तीन दशकों से मानसून का पैटर्न ऐसा बदला है कि पूरे दिन भी बारिश नहीं हो पाती. या कहीं कहीं कुछ घंटों में ऐसी मूसलाधार बारिश हो जाती है कि बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं.

1950-1980 के दशक तक कई क्षेत्रों में खासकर पश्चिमी घाट (जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल), पूर्वोत्तर भारत (असम, मेघालय) और गंगा के मैदानी क्षेत्रों में मानसून के चरम महीनों (जून से सितंबर) में 5 से 10 दिनों तक लगातार हल्की से मध्यम बारिश होना सामान्य बात थी. कुछ स्थानों पर ये अवधि और लंबी 15-20 दिन भी हो सकती थी, जैसे चेरापूंजी और आसपास के इलाकों में.

पहले मानसून का पैटर्न अधिक स्थिर और समान रूप से वितरित था. लगातार बादल छाए रहते थे. बारिश रुक-रुक कर या हल्की बूंदाबांदी के रूप में कई दिनों तक चलती थी. यह वह समय था जब लोग बताया करते थे कि इतनी बारिश हो रही है कि कई दिनों तक सूरज भी नजर नहीं आ रहा. जैसा गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में भी मां के व्रत को लेकर लिखा है.

100 साल पहले जब कई कई दिन तक बारिश होती रहती थी और सूरज तक नहीं दिखता था. (news18)

गांधीजी ने इसे लेकर क्या लिखा है 

महात्मा गांधी की मां पुतलीबाई चतुर्मास के दौरान सूर्य दर्शन व्रत रखती थीं. इस व्रत में वे सूर्य के दर्शन किए बिना भोजन नहीं करती थीं. गांधीजी ने अपनी आत्मकथा “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” (The Story of My Experiments with Truth) में इसका जिक्र किया है. उन्होंने लिखा,

बरसात के मौसम में, जब कई दिनों तक बादल छाए रहते और सूर्य दिखाई नहीं देता था, उनकी मां दो-तीन दिन तक भोजन नहीं करती थीं. इस दौरान युवा मोहनदास (गांधीजी) सुबह से आकाश पर नजर रखते थे ताकि सूर्य दिखने पर तुरंत मां को सूचित कर सकें, जिससे वे अपना व्रत तोड़कर भोजन कर सकें.

गांधीजी की आत्मकथा में लिखा गई ये बात 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत के दौरान गुजरात के पोरबंदर जैसे क्षेत्रों से संबंधित है, जहां मानसून के दौरान 3-7 दिनों तक लगातार बादल छाए रहना और बारिश होना आम बात थी. सामान्य तौर पर मानसून के चरम समय में ऐसी स्थिति बार-बार देखी जाती थी.

गांवों में चले जाइए आज भी ऐसा कहने वाले बुजुर्ग मिल जाएंगे और साहित्य में लिखा मिलेगा कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में “सप्ताह भर की बारिश” या “लगातार मूसलाधार बारिश” होती थी, खेती और जीवनशैली पर असर डालती थी.

मौसम विभाग के पुराने रिकॉर्ड्स क्या कहते हैं

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के पुराने रिकॉर्ड्स (1901-1980) के अनुसार, सामान्य मानसून सीजन में भारत के कई हिस्सों में 50-100 बारिश के दिन (Rain Days) दर्ज किए जाते थे, जिनमें से कई बार लगातार 5-10 दिनों तक बारिश होती थी.

पश्चिमी घाट (महाराष्ट्र, गोवा, केरल) – जून-जुलाई में 7-15 दिनों तक लगातार बारिश के रिकॉर्ड मिलते हैं.
पूर्वोत्तर भारत – मेघालय जैसे क्षेत्रों में 20-30 दिनों तक रुक-रुक कर बारिश सामान्य थी.
उत्तर भारत (उत्तर प्रदेश, बिहार) – 5-10 दिनों की बारिश के दौर बार-बार आते थे.

अब बदल गया बारिश का पैटर्न

पहले की तुलना में अब जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश के पैटर्न में बदलाव हो गया है. अब लंबी अवधि की हल्की बारिश कम होती है. इसकी बजाय कम समय में भारी बारिश देखने को मिलती है. दिल्ली में जहां पहले 7-10 दिन हल्की बारिश होती थी, अब 1-2 दिन में ही उतनी ही बारिश हो जाती है.

अब लंबी अवधि की हल्की बारिश कम होती है. इसकी बजाय कम समय में भारी बारिश देखने को मिलती है. (news18)

क्यों बारिश के पैटर्न में आया बदलाव

पिछले तीन चार दशकों में बारिश के पैटर्न में आए बदलाव के कई वजहें हैं. वैसे बारिश के पैटर्न में यह बदलाव सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है.

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग

पिछले कुछ दशकों में भारत सहित पूरी दुनिया में औसत तापमान बढ़ा है, जिससे मौसम के पैटर्न में असामान्यता आई है. तापमान बढ़ने से वातावरण में नमी की क्षमता भी बढ़ जाती है, जिससे कभी-कभी कम दिनों में ही बहुत तेज बारिश हो जाती है. लगातार कई दिनों तक हल्की-हल्की बारिश की घटनाएं कम हो गई हैं. समुद्री सतह के तापमान में बदलाव ने मानसून की गतिशीलता को प्रभावित किया है, जिससे बारिश का समय और तीव्रता अनिश्चित हो गई है

एल नीनो और ला नीना प्रभाव

एल नीनो जैसी घटनाएं, जो प्रशांत महासागर में होती हैं, भारत में मानसून को कमजोर कर सकती हैं, जिससे बारिश की अवधि और मात्रा में कमी आती है. पहले ये प्रभाव कम स्पष्ट थे, लेकिन अब इनका असर अधिक दिखाई देता है.

अब कुछ ही घंटों में ऐसी मूसलाधार बारिश हो जाती है कि बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है. (news18)

तेज बारिश में वृद्धि, कुल वर्षा में कमी

अब कम दिनों में ही भारी बारिश हो जाती है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है, लेकिन पूरे मानसून सीजन में कुल बारिश की मात्रा या बारिश के दिनों की संख्या में कमी देखी जा रही है.

एरोसोल और प्रदूषण का असर

वायुमंडल में एरोसोल (धूल, धुआं, प्रदूषक कण) की मात्रा बढ़ने से बादलों के बनने की प्रक्रिया प्रभावित होती है. इससे बादलों की विशेषताएं बदल जाती हैं. वो जल्दी बारिश नहीं कर पाते या बारिश की दर कम हो जाती है.

हवा की दिशा और नमी का असंतुलन

कई बार बादल तो बन जाते हैं, लेकिन हवा की दिशा या नमी का स्तर पर्याप्त नहीं होता, जिससे बारिश नहीं हो पाती. कभी-कभी ऊपर की हवा का तापमान या दबाव भी बारिश को रोक देता है.

मानसून का समय से पहले या बाद में आना

हाल के वर्षों में मानसून कभी जल्दी आ जाता है, तो कभी देर से. कभी-कभी एक ही दिन में कई राज्यों में मानसून पहुंच जाता है, जिससे बारिश का वितरण असमान हो जाता है.

वनों की कटाई और शहरीकरण

पेड़ों की कटाई, शहरीकरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी स्थानीय जलवायु और वर्षा के चक्र को प्रभावित करता है.

क्या फुहार या रिमझिम वाली हल्की बारिश कम हो गई

हां, भारत में फुहार या रिमझिम जैसी हल्की बारिश कम होती जा रही है. मानसून की हवाएँ अब पहले की तरह लगातार नमी नहीं लातीं, जिससे रिमझिम बारिश की अवधि कम हो गई. IMD के एक अध्ययन (1951-2015) के अनुसार, भारत में हल्की बारिश (2.5-15.5 मिमी/दिन) के दिनों में 10-15% की कमी दर्ज की गई है, जबकि भारी बारिश की घटनाएँ 20-30% बढ़ी हैं.

पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर भारत – यहां अभी भी हल्की बारिश होती है, लेकिन इसकी अवधि और नियमितता पहले की तुलना में कम है. मेघालय जैसे क्षेत्रों में अब भी रिमझिम बारिश देखी जाती है, लेकिन कुल मिलाकर कम अवधि के लिए.
मध्य और उत्तरी भारत – यहां हल्की बारिश की घटनाएं काफी कम हो गई हैं. इसकी बजाय बाढ़ या सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाएं बढ़ी हैं.
दक्षिण भारत – तमिलनाडु और केरल में मानसून और उत्तर-पूर्वी मानसून के दौरान हल्की बारिश अब भी होती है, लेकिन निरंतरता पहले से कम है.

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