रतन टाटा के इस किस्से पर तो बननी चाहिए मूवी! हिट नहीं, हो जाएगी सुपर-डुपर हिट

30 minutes ago

Tata Indica story: अमेरिका के डेट्रॉयट शहर में कार बनाने वाली कंपनी फोर्ड के हेडक्वार्टर में रतन टाटा (Ratan Tata) और बिल फोर्ड (Bill Ford) के बीच एक मीटिंग चल रही थी. बिल फोर्ड कंपनी के चेयरमैन थे. यह साल 1999 के आसपास की बात है. मीटिंग का एजेंडा साफ था – टाटा इंडिका (Tata Indica) कार का पैसेंजर व्हीकल बिजनेस फोर्ड को बेचना. टाटा मोटर्स को इंडिका प्रोजेक्ट में भारी नुकसान हो रहा था और कंपनी के बोर्ड को लग रहा था कि शायद यही सही रास्ता है कि बिजनेस बेच दिया जाए. मीटिंग में जाते समय और मीटिंग करते वक्त रतन टाटा का दिल पसीजा जा रहा था.

ज़रा सोचिए, उस मीटिंग हॉल में कैसा माहौल रहा होगा. एक तरफ भारत के सबसे बड़े ग्रुप का चेयरमैन, जिसने अपनी मेहनत से एक कार बनाई, और दूसरी तरफ अमेरिकी कार मार्केट का बड़ा खिलाड़ी. रतन टाटा ने डील की बात शुरू की, लेकिन बिल फोर्ड और उनकी टीम का रवैया बहुत ही अपमानजनक था. बिल फोर्ड ने रतन टाटा से लगभग तल्ख़ लहजे में कहा, “जब आपको पैसेंजर कार बनाने का ज्ञान नहीं था, तो आपने यह बिजनेस शुरू ही क्यों किया? हम आपका यह बिजनेस खरीदकर आप पर एक एहसान कर रहे हैं.” इस एक वाक्य ने रतन टाटा को अंदर तक हिलाकर रख दिया. उन्होंने उस समय क्या-क्या सोचा होगा, यह तो केवल वही जानते होंगे.

इस अपमान ने मीटिंग का रुख पूरी तरह बदल दिया. रतन टाटा ने उसी पल डील को ठुकरा दिया और अपनी टीम के साथ वापस भारत लौट आए. यह घटना सिर्फ एक असफल बिजनेस डील नहीं थी, बल्कि यह टाटा ग्रुप के लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हुई. रतन टाटा ने तय किया कि वह अब अपनी कार कंपनी को बेचेंगे नहीं, बल्कि इसे इतना बड़ा और सफल बनाएंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी. यही वह अपमान की आग थी, जिसने उन्हें अपनी कार कंपनी को बचाने और उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की प्रेरणा दी. आज, उसी टाटा ग्रुप ने अपनी प्रतिष्ठित एसयूवी (SUV) में से एक, टाटा सिएरा (Tata Sierra) को आधुनिक रूप में मात्र 11.49 लाख रुपये की शुरुआती एक्स-शोरूम कीमत पर इलेक्ट्रिक और पेट्रोल दोनों वेरिएंट में लॉन्च किया है. कंपनी को पोर्टफोलियो में अब कई पैसेंजर व्हीकल हैं और इस मार्केट में कंपनी का कद काफी बड़ा हो चुका है.

रत्न टाटा का जन्मदिन: 28 नवंबर

रतन टाटा की शुरुआती ज़िंदगी बहुत आरामदायक नहीं थी. भले ही वह भारत के सबसे बड़े बिजनेस घराने ‘टाटा’ में पैदा हुए, लेकिन उनके माता-पिता का तलाक हो गया था, और उनकी परवरिश उनकी दादी नवाबाई ने की थी. कह सकते हैं कि उनकी परवरिश बहुत ही ज़मीनी थी. उन्होंने अपनी पढ़ाई यूएस (US) में की, आर्किटेक्चर और स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग की डिग्री ली. पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह भारत लौटे, तो उन्होंने शुरुआती दिनों में जमशेदपुर में टाटा स्टील के साथ काम शुरू किया. वह सीन कैसा रहा होगा कि इतने बड़े परिवार का वारिस, कोयला और चूना पत्थर को फावड़े से हटा रहा है. यह उस ट्रेनिंग का हिस्सा था, जहां उन्हें ज़मीन से जुड़ना सिखाया गया.

फिर आया 1991, जब रतन टाटा को जे.आर.डी. टाटा से टाटा ग्रुप की बागडोर मिली. उस समय टाटा ग्रुप बहुत बड़ा था, लेकिन बिखरा हुआ भी था. रतन टाटा का सबसे बड़ा सपना था कि वह भारत के आम आदमी के लिए एक सस्ती और अच्छी कार बनाएं. यह सिर्फ बिजनेस नहीं था, बल्कि एक भावनात्मक फैसला था. वह चाहते थे कि जो परिवार स्कूटर पर बच्चों को बिठाकर सफर करते हैं, उन्हें एक सुरक्षित और आरामदायक गाड़ी मिले.

टाटा इंडिका: पहली शुद्ध भारतीय पैसेंजर कार

इस सपने को पूरा करने की पहली सीढ़ी थी – टाटा इंडिका (Tata Indica). इस प्रोजेक्ट में बहुत पैसा लगा, बहुत मेहनत हुई. इंडिका को 1998 में मार्केट में उतारा गया. रतन टाटा ने इस गाड़ी को “भारत की पहली पूरी तरह से भारतीय पैसेंजर कार” कहकर लॉन्च किया. लोगों ने उम्मीद भी जगाई, लेकिन शुरुआत में इंडिका को बड़ा झटका लगा. गाड़ी को लेकर ग्राहकों ने शिकायतें कीं. एक पुरानी कहावत है, “सपने देखना आसान है, पर उन्हें ज़मीन पर उतारना मुश्किल.”

शुरुआती सेल उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई. घाटा बढ़ता गया और कंपनी पर बड़ा आर्थिक दबाव आ गया. अब यहीं से रतन टाटा और इंडिका की कहानी और दिलचस्प हो जाती है. घाटे को देखते हुए, बोर्ड में यह चर्चा शुरू हो गई कि इस घाटे वाले कार बिजनेस को बेच देना चाहिए. रतन टाटा का दिल नहीं मान रहा था, पर बिजनेस में भावनाओं से ज़्यादा गणित काम करता है.

तब, एक दिन रतन टाटा और उनकी टीम, अमेरिका की मशहूर कार कंपनी फोर्ड (Ford) के हेडक्वार्टर पहुंचे. यह वह पल था जब उन्हें बिजनेस में संभवत: सबसे कड़वा घूंट पीना पड़ा. रतन टाटा और उनकी टीम के लिए यह सिर्फ बिजनेस मीटिंग नहीं थी, यह एक अपमान था. उनका मज़ाक उड़ाया गया. उस अपमान ने रतन टाटा को अंदर तक चोट पहुंचाई. उन्होंने तुरंत ही बिजनेस बेचने का फैसला बदल दिया. वह डील को बीच में ही छोड़कर वापस भारत आ गए.

अपमान की आग में तपकर हो गए कुंदन

आपने भी सुना होगा कि अपमान की आग में जो निर्णय लिए जाते हैं, वे या तो इंसान को बर्बाद कर देते हैं, या फिर उसे आसमान की ऊंचाई पर पहुंचा देते हैं. रतन टाटा ने ठान लिया कि वह अपनी कार कंपनी को बेचेंगे नहीं, बल्कि इसे दुनिया की बेस्ट कंपनियों में से एक बनाकर दिखाएंगे.

भारत लौटने के बाद रतन टाटा ने पूरी लगन से इंडिका के प्रॉडक्शन और डिज़ाइन पर काम किया. उन्होंने कमियां सुधारीं, प्रोडक्ट को बेहतर बनाया और कुछ ही सालों में इंडिका की सेल आसमान छूने लगी. यह उनके लिए एक बड़ा टर्निंग पॉइंट था.

2008 में वक्त का पहिया घूमा, टाटा बने किंग

वक्त का पहिया हमेशा घूमता है और घूमा भी. यह बात है साल 2008 की, जब अमेरिका में बहुत बड़ा आर्थिक संकट आया था. उसी समय फोर्ड कंपनी घाटे में चल रही थी. वही फोर्ड कंपनी, जिसके चेयरमैन ने रतन टाटा की टीम का अपमान किया था. उनके लग्जरी कार डिवीज़न में दो बहुत ही प्रतिष्ठित ब्रांड थे- जगुआर (Jaguar) और लैंड रोवर (Land Rover). फोर्ड इन दोनों को बेचना चाहती थी.

अब, आठ साल बाद, पासा पलट चुका था. इस बार फोर्ड की टीम अपनी इन दोनों प्रतिष्ठित कंपनियों को बेचने के लिए टाटा ग्रुप के हेडक्वार्टर ‘बॉम्बे हाउस’ पहुंची. बिल फोर्ड खुद अपनी सबसे शानदार कंपनियों को बेचने के लिए उनके सामने थे.

रतन टाटा एक महान बिजनेस लीडर हैं, उन्होंने कभी बदले की भावना से काम नहीं किया. उन्होंने पूरी शालीनता से फोर्ड के साथ डील की. उन्होंने जगुआर और लैंड रोवर (JLR) को लगभग 2.3 बिलियन डॉलर (उस समय लगभग 10,000 करोड़ रुपये में) में खरीद लिया. उन्होंने न सिर्फ डील की, बल्कि उन्होंने बिल फोर्ड से कहा कि वह फोर्ड के बचे हुए बिजनेस में भी मदद करेंगे.

यह डील महज एक डील नहीं थी, यह बिजनेस की दुनिया के लिए एक बड़ा सबक था.

टाटा मोटर्स को दिलाई नई पहचान

जब जगुआर लैंड रोवर, टाटा ग्रुप के पास आई, तो वह घाटे में थी. लेकिन रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा मोटर्स ने इन दोनों ब्रिटिश ब्रांडों को फिर से खड़ा किया. आज JLR टाटा मोटर्स के लिए सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने वाला डिवीज़न है और दुनियाभर में इसकी एक अलग पहचान है. इस सफलता ने टाटा मोटर्स के मार्केट कैप को कई गुना बढ़ा दिया.

रतन टाटा की कहानी सिर्फ कार बनाने की नहीं है, यह हार न मानने की कहानी है. इंडिका के बाद उन्होंने देश की सबसे सस्ती कार, टाटा नैनो (Nano) को बनाने का सपना देखा और उसे पूरा भी किया. नैनो का आइडिया उन्हें तब आया, जब उन्होंने एक परिवार को स्कूटर पर असुरक्षित तरीके से यात्रा करते देखा. यह भी एक इमोशनल और ज़मीनी फैसला था. नैनो ने भले ही उम्मीद के मुताबिक बिजनेस नहीं किया, पर इसने रतन टाटा को एक विजनरी लीडर के रूप में स्थापित कर दिया.

9 अक्टूबर 2024 को रतन टाटा इस दुनिया को अलविदा कह गए. इससे पहले वो ऐसा काम कर गए कि बिजनेस जगत में उनका नाम हमेशा सम्मान से लिया जाता रहेगा. रतन टाटा के जीवन के इस किस्से पर एक मूवी बने तो शर्तिया वह सुपर-डुपर हिट हो सकती है.

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