एक क्लिक, 1000 कहानियां… कैमरे के जादू को सलाम! सदियों पुराना है इसका इतिहास

1 day ago

Camera Day: 29 जून. तारीख आम है, लेकिन मायने बहुत गहरे हैं. यही वो दिन है जब कैमरे जैसी एक चुपचाप देखने वाली मशीन को सलाम किया जाता है. कैमरा, जो सिर्फ तस्वीरें नहीं लेता, बल्कि पल के पीछे की धड़कनों को पकड़ता है. मुस्कुराहटों, आंसुओं, विदाई, जीत, जश्न और विद्रोह… हर एहसास को उसकी सबसे सच्ची शक्ल में थाम कर रखता है. ‘नेशनल कैमरा डे’ कोई तकनीकी जश्न नहीं है, ये उन अनगिनत कहानियों की तारीख है, जिन्हें किसी ने कैमरे की नजर से देखा, कैद किया और हमें सौंप दिया.

कैमरे ने क्या-क्या नहीं देखा!

कई बार तस्वीरें उतनी बड़ी बातें कह जाती हैं, जो हजार स्पीच भी न कह पाए. गांधी जी का नमक सत्याग्रह, नेताजी का परेड, जलियांवाला बाग की मूक चीखें, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की उथल-पुथल, कारगिल के मोर्चे से आई वो तस्वीर जिसमें फौजी की जेब में मां की तस्वीर थी… ये सब कुछ किसी रिपोर्टर की कलम से नहीं, सबसे पहले एक कैमरे की क्लिक से आया. कैमरा यकीन दिलाता है कि जो आंख से नहीं दिखा, वो भी सच था.

हालांकि कैमरे की यात्रा नई नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहरे में हैं. 11वीं सदी के ‘कैमरा ऑब्स्क्योरा’ से लेकर आज के 200 मेगापिक्सल वाले मोबाइल कैमरों तक, ये तकनीक लगातार इंसानी संवेदना से जुड़ती चली आई है. बीच में डगुएरियोटाइप आया, फिल्म रोल कैमरा आया, फिर डिजिटल युग में डीएसएलआर और अब मिररलेस और AI कैमरे. लेकिन कैमरे का दिल आज भी वही है, सच को पकड़ने की ईमानदार कोशिश.

कैमरा ऑब्स्क्युरा सिद्धांत, जेम्स एस्कोफ की किताब A short account of the eye and nature of vision में दर्शाया गया है.

कैमरा का इतिहास : एक टाइमलाइन

1021 ई. – अल्हाज़ेन (Ibn al-Haytham) ने ‘Camera Obscura’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया. यह एक अंधेरे कमरे में छोटा छेद करके बाहर की तस्वीर को उल्टा प्रोजेक्ट करता था.

1816 ई. – जोसेफ नाइसफोर नीप्स ने पहली बार एक स्थायी तस्वीर कैमरा ऑब्स्क्यूरा की मदद से बनाई. यह फोटो पेपर पर बनी लेकिन लंबे समय तक टिक नहीं पाई.

1826 ई. – नीप्स ने ‘हेलीओग्राफी’ तकनीक से पहली स्थायी तस्वीर खींची, जिसे आज की सबसे पुरानी फोटो माना जाता है.

1839 ई. – लुई डागेरे ने ‘डागेरेओटाइप’ कैमरा विकसित किया. यह व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल होने वाला पहला कैमरा था.

1841 ई. – हेनरी फॉक्स टैलबॉट ने ‘कैलोटाइप’ प्रक्रिया विकसित की जिससे नेगेटिव से कई प्रिंट बनाए जा सकते थे.

1888 ई. – जॉर्ज ईस्टमैन ने पहला कोडक कैमरा बाजार में उतारा. इसका नारा था: ‘You press the button, we do the rest.’ इसमें रोल फिल्म का प्रयोग होता था.

1900 ई. – Kodak Brownie लॉन्च हुआ. यह सस्ता और पोर्टेबल कैमरा था, जिससे फोटोग्राफी आम लोगों तक पहुंची.

1925 ई. – जर्मन कंपनी Leica ने पहला 35mm फिल्म कैमरा पेश किया. यह कॉम्पैक्ट और हाई-क्वालिटी कैमरा था.

1948 ई. – पोलरॉयड कैमरा आया जिससे मिनटों में फोटो निकलती थी.

1975 ई. – कोडक के इंजीनियर स्टीवन सैसन ने पहला डिजिटल कैमरा बनाया. इसका रेजोल्यूशन 0.01 मेगापिक्सल था.

1990s – डिजिटल कैमरे आम होने लगे. फ्लॉपी डिस्क और मेमोरी कार्ड से फोटो सेव होने लगी.

2000s – पहला कैमरा फोन (Sharp J-SH04) जापान में आया.

2010s – स्मार्टफोन कैमरा ने डीएसएलआर को टक्कर दी. AI, नाइट मोड, और मल्टी-लेंस तकनीक ने फोटोग्राफी में क्रांति ला दी.

तस्वीरों ने बदला समाज और देश

भारत में कैमरे ने सिर्फ खूबसूरती नहीं, सच्चाई भी दर्ज की है. आंध्र के बाढ़ पीड़ित हों या राजस्थान के रेगिस्तान में प्यासे बच्चे… फोटो ने वहां भी पहुंच बना ली जहां सत्ता और सिस्टम नहीं पहुंचे. कई बार तो एक फोटो कोर्ट के आदेश बदलवा देती है, कई बार कुपोषण पर रिपोर्ट नहीं, फोटो असर करती है.

फोटोग्राफर अक्सर परदे के पीछे होते हैं, लेकिन उनकी तस्वीरें इतिहास की सबसे आगे वाली कतार में खड़ी होती हैं. वे मौत के साए में जाते हैं, बॉर्डर पार करते हैं, दंगों की आग में घुसते हैं, ताकि हम अपने अखबार की एक तस्वीर देखकर हकीकत जान सकें.

कैमरा संभालने की जिम्मेदारी

आज कैमरा महज प्रोफेशनल्स तक सीमित नहीं. हर जेब में कैमरा है, हर हाथ में सोशल मीडिया. अब कोई लम्हा छूटता नहीं. लेकिन सवाल है कि क्या हम कैमरे की ताकत को समझते हैं? क्या हम ये पहचानते हैं कि हर क्लिक एक जिम्मेदारी है?

नेशनल कैमरा डे इसी चेतना का दिन है. ये उन अनदेखे नायकों का दिन है जो शोर नहीं करते, फ्लैश नहीं मारते, लेकिन उनकी आंखें उस सच्चाई को पकड़ती हैं जो अक्सर शब्दों के पीछे छिप जाती है. तो आज, जब आप कोई फोटो लें, एक पल के लिए रुकिए. सोचिए… ये फोटो कल किसी की आवाज बन सकती है. क्योंकि कैमरा सिर्फ तस्वीर नहीं खींचता, वो वक्त की जुबान बन जाता है.

Read Full Article at Source