ओशो ने अपने जीवन में कई चोले और नाम बदले, कभी वह आचार्य रजनीश थे, फिर भगवान रजनीश और बाद में ओशो बन गए. शुरू में उनका जीवन बहुत सादगी वाला था लेकिन बाद में बहुत लग्जरीपूर्ण बन गया. ये सब होने से पहले उन्होंने मध्य प्रदेश के दो कॉलेजों में करीब 10 साल तक टीचिंग का काम भी किया. वो विवादास्पद टीचर थे लेकिन छात्रों में बहुत लोकप्रिय भी. हालांकि दूसरे टीचर्स और प्रिंसिपल आमतौर पर उन्हें पसंद नहीं करते थे.
ओशो का टीचिंग करियर करीब 9 -10 सालों का था – 1957 से 1966 तक. उन्होंने मध्य प्रदेश के दो कॉलेजों में टीचिंग की. वह दर्शनशास्त्र के शिक्षक थे.
1957 में शुरू हुआ टीचिंग करियर
उन्होंने अपना टीचिंग करियर 1957 में जबलपुर के दिग्विजय कॉलेज से शुरू किया, जो यहां 06 सालों तक चलता रहा. 1957 में ओशो फिलास्फी में एमए में करने के बाद इसी कॉलेज में लेक्चरर नियुक्त हुए. उन्होंने एमए में गोल्ड मेडल हासिल किया था. यही वह जगह थी जहां उनकी शुरुआती बहसें, तीखी चर्चाएं और भीड़ खींचने वाली क्लासेज प्रसिद्ध हुईं. कॉलेज प्रशासन उनसे कई बार असहज भी हुआ, क्योंकि वे धर्म, राजनीति और सामाजिक मान्यताओं पर बहुत तीखे सवाल उठाते थे.
इसके बाद उन्होंने जबलपुर यूनिवर्सिटी से ही जुड़े संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ाया. दरअसल प्रोमोशन और ट्रांसफर के बाद वह इस कालेज में भेजे गए थे. वह यहां असिस्टेंट प्रोफेसर बने. 1966 में उन्होंने स्थायी रूप से अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. पूरी तरह स्वतंत्र आध्यात्मिक-चिंतक और वक्ता बन गए.
1957–1966 के बीच ओशो जब जबलपुर के दिग्विजय कॉलेज और फिर संस्कृत महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के टीचर थे, तब वे बाकी शिक्षकों जैसे बिल्कुल नहीं थे. उनकी क्लासें भीड़ खींचती थीं. यहां तक कि दूसरे विषयों के विद्यार्थी भी सिर्फ उन्हें सुनने आ जाते थे. एक बार प्रिंसिपल ने कहा, “आपकी क्लास में इतने बाहरी छात्र क्यों आते हैं?”
ओशो हंसकर बोले, “क्योंकि दर्शनशास्त्र अगर ज़िंदा हो तो सीमाओं में नहीं बंधता. अगर आप चाहें तो प्रिंसिपल के ऑफिस में भी एक क्लास ले सकता हूं.”
साथी टीचर्स और प्रिंसिपल के लिए असहज
लेकिन ओशो के जरूरत से ज्यादा बोल्ड विचार और विषय से परे जाकर सामाजिक क्रांतिकारी विचार अक्सर उनके साथी टीचर्स और प्रिंसिपल को पसंद नहीं आते थे. उनसे उनके 36 के रिश्ते भी बने रहते थे.
उन दिनों ओशो का जीवन बहुत साधारण था. वह साधारण कपड़े पहनते थे. एक छोटे से कमरे में रहते थे. रोज कई-कई घंटे पढ़ते थे. शाम को छात्रों व स्थानीय बुद्धिजीवियों से लंबी चर्चाएं करते थे. उनकी दिनचर्या में सबसे अनोखी चीज़ थी रोज ‘शांत बैठना’—जिसे बाद में उन्होंने ध्यान तकनीक का केंद्र बनाया.
और वो बात कॉलेज में फैल गई
वह कहते थे, “किसी भी धर्म को आंख बंद करके न मानो. सवाल पूछो, जब तक जवाब खुद न ढूंढ लो.” एक दिन उन्होंने क्लास में पूछा, “भगवान का अस्तित्व प्रमाणित कीजिए.” छात्रों ने कोशिश की, पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया. ओशो बोले, “अगर भगवान को साबित करना पड़े, तो फिर वह भगवान नहीं, एक परिकल्पना है.” ये बात कॉलेज में चर्चा का तूफान बन गई.
1960 के दशक में वे पूरे देश में यात्रा करके भाषण देने लगे. अक्सर उनकी बातें धार्मिक नेताओं को असहज कर देती थीं, लेकिन वे युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय होते गए. बंबई के एक बड़े हॉल में उनका व्याख्यान था. आयोजकों ने कहा, “अगर आप इतने विवादित मुद्दों पर बोलेंगे तो हम सभा को संभाल नहीं पाएंगे.”
ओशो ने हंसकर कहा, “सच को संभालने की जिम्मेदारी आयोजक की नहीं, सुनने वाले की है.” सभा में भारी भीड़ हुई. लोगों ने घंटों तक उनके सवाल-जवाब सुने.
क्यों साथी टीचर्स परेशान रहते थे
एक ओर वे छात्रों में असाधारण रूप से लोकप्रिय, प्रेरक और “मैग्नेटिक टीचर” थे तो दूसरी ओर सहकर्मी प्रोफेसरों और कॉलेज प्रशासन की परेशानियों का कारण भी. ओशो की क्लास में सिलेबस आख़िरी चीज़ थी. वह कहते थे, “पाठ्यक्रम पढ़ना तो किताब भी कर सकती है. शिक्षक का काम जगाना है.”
इसलिए क्लास में खुले सवाल होते. पारंपरिक मान्यताओं पर तीखी आलोचना की जाती. धर्म, प्रेम, राजनीति सब पर खुलकर बातचीत होती. उनकी क्लास मनन का मैदान लगती थी, पाठशाला नहीं. छात्र कहते थे, “उनकी बात में आग और संगीत दोनों थे.”
धर्म के बारे में क्या कहते थे
ओशो उस समय हिंदू-मुस्लिम-ईसाई किसी को नहीं छोड़ते थे. उनकी प्रसिद्ध पंक्ति थी, “धर्म इंसान का उत्थान करे तो अच्छा, लेकिन इतिहास में उसने ज्यादा नुकसान ही किया है.” कई शिक्षकों को लगता था कि वे छात्रों को ‘भटकाते’ हैं. ओशो अपने साथी टीचर्स से भी प्रश्न करते थे, “आप यह पढ़ाते क्यों हैं?” “क्या खुद समझते भी हैं ये क्या है?” कुछ लोगों को लगता था कि वह उन्हें नीचा दिखाते हैं.
ओशो विनम्र तो थे, लेकिन बहुत स्वतंत्र और आत्मविश्वास से भरे. किसी भी गलत तर्क पर तुरंत सवाल कर देते थे. कई प्रोफेसरों को लगता था, यह आदमी परंपरा नहीं मानता. इसे रोका नहीं जा सकता. प्रिंसिपल चाहते थे कि क्लास में सिर्फ रोल-लिस्ट के छात्र हों, सिलेबस के मुताबिक़ पढ़ाई हो, धार्मिक-राजनीतिक बहस सीमित हो. ओशो इसकी विपरीत दिशा में होते थे.
कई बार उनकी बातें विवाद पैदा करतीं थीं. प्रिंसिपल को लगता था, “हमारे कॉलेज का नाम विवादों में आ रहा है.”ओशो को प्रशासन कई बार रोकने की कोशिश करता था. लेकिन ओशो ने अपने तरीके कभी बदले ही नहीं.
प्रोफेसरी छोड़ने के बाद वह पूरी तरह स्वतंत्र भाषणों, ध्यान-प्रयोगों और यात्राओं में लग गए. इसी समय उन्होंने महसूस किया कि आधुनिक मनुष्य में इतनी मानसिक उथल-पुथल है कि पारंपरिक ध्यान काम नहीं आता. यहीं से ‘डायनेमिक मेडिटेशन’ की शुरुआत हुई, जिसमें पहले जोरदार सांस, फिर चीखना-चिल्लाना, फिर शांत बैठना शामिल था.

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