पहले बदलाव फिर जंगलराज, सुशासन और एनडीए का स्वर्णकाल... हर दशक में नया अध्याय

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पटना. बिहार की राजनीति हमेशा उतार-चढ़ाव से भरी रही है… कभी किंगमेकर, कभी पावर सेंटर और कभी विरोध के मुखर स्वर… जनता ने हर दशक में अलग मूड दिखाया है. कभी मंडल की लहर, कभी बदलाव की चाह तो कभी विकास की उम्मीद… और अब सत्ता परिवर्तन और स्थिरता का सवाल. लालू यादव के दौर से लेकर नीतीश कुमार की सियासत तक, सत्ता का रास्ता लगातार बदलता गया. 1990 के बाद से बिहार ने हर चुनाव में नया समीकरण, नया गठबंधन और नई कहानी लिखी. वर्ष 1990 से 2025 के बीच बिहार ने वह सब देखा जो किसी भी लोकतांत्रिक राज्य के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक प्रयोगशाला कही जा सकती है-कभी जनादेश ने व्यवस्था बदली, कभी व्यवस्था ने जनादेश को. आज जब 2025 की मतगणना नए समीकरण लिख रही है, तब एक बात फिर साबित होती है-बिहार का जनादेश हमेशा अप्रत्याशित होता है. यहां हर चुनाव सिर्फ नतीजा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ने की प्रक्रिया है. आइए, जानते हैं बिहार विधानसभा चुनावों के इन तीन दशकों की अहम राजनीतिक यात्रा.

बदलते दौर की शुरुआत: 1990 में जनता दल की लहर

वर्ष 1980 के दशक के अंत में कांग्रेस से नाराज जनता ने जब वैकल्पिक राजनीति की तलाश शुरू की, तब जनता दल ने एक मजबूत विकल्प के रूप में उभर कर बिहार की सियासत की दिशा ही बदल दी. 1990 के विधानसभा चुनाव में जनता दल ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 243 में से 122 सीटें जीतीं और कांग्रेस महज 71 पर सिमट गई. 10 मार्च 1991 को लालू प्रसाद यादव राज्य के मुख्यमंत्री बने. यह वही दौर था जब मंडल आयोग की सिफारिशों ने देश की राजनीति में सामाजिक न्याय की धारा तेज कर दी. लालू यादव इस नई राजनीति के प्रतीक बनकर उभरे-उन्होंने खुद को गरीब, पिछड़े और दलित वर्ग का नेता घोषित किया.उनकी साइकिल सवारी और ‘लाठी राज’ की बातें चर्चा में रहीं. बिहार में ‘सामाजिक न्याय’ का नया दौर शुरू हुआ. पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार पूरे 5 साल चली. पिछड़े, दलित और मुस्लिम वोट एकजुट हुए. यही ‘मंडल बनाम कमंडल’ की शुरुआत थी, जिसने आगे कई दशकों तक बिहार की राजनीति को परिभाषित किया.

1995: जंगलराज का आरोप और लालू यादव का जनाधार

लालू यादव की लोकप्रियता 1995 तक चरम पर थी. विरोधियों ने उनके शासन को कुशासन कहा, लेकिन जनता ने उन्हें फिर मौका दिया. इस चुनाव में जनता दल ने 167 सीटों पर जीत दर्ज कर दो-तिहाई बहुमत हासिल किया. भाजपा 41 और कांग्रेस 29 पर अटक गई.विपक्ष लगभग साफ हो गया और लालू यादव दूसरी बार सीएम बने. इस दौर में लालू की छवि ‘गरीबों के मसीहा’ के रूप में और मजबूत हुई. लेकिन, इसी कालखंड में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता के आरोप भी तेज हुए. ‘चाराघोटाला’ (Fodder Scam) ने राज्य की राजनीति में बड़ा भूचाल ला दिया, जिसने आगे चलकर सत्ता परिवर्तन की जमीन तैयार की. 1997 में राष्ट्रीय जनता दल का गठन हुआ और इसके बाद राबड़ी देवी को आगे लाने की तैयारी भी शुरू हो गई. लेकिन प्रशासन ढीला पड़ने लगा. राज्य में अपराध बढ़ा और विकास ठप पड़ गए. इसी दौरान पटना हाई कोर्ट ने ‘जंगलराज’ वाली टिप्पणी की. फिर भी लालू यादव का जादू चलता रहा और ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण मजबूत हुआ.

2000: लालू यादव की विरासत और नीतीश कुमार का उदय

चारा घोटाला खुलकर सामने आया तो लालू यादव को जेल जाना पड़ा. वर्ष 1997 में लालू यादव पर आरोप लगने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया. 2000 का चुनाव इस लिहाज से ऐतिहासिक रहा कि इसमें पहली बार एनडीए ने महागठबंधन जैसी मज़बूत चुनौती दी. नतीजे आए तो किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला-राजद को 124 और एनडीए को 121 सीटें (बीजेपी 67 सीट) मिलीं. बिहार में 324 विधानसभा सीटें हुआ करती थीं और बहुमत के लिए 163 सीटों का आंकड़ा जरूरी था. चुनाव नतीजे आने के बाद सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ का खेल शुरू हो गया. एनडीए ने 151 विधायकों का समर्थन जुटा लिया था. लालू यादव के पास 159 विधायकों का समर्थन था. फिर भी बहुमत नहीं जुटा पाए. राज्यपाल ने पहले नीतीश कुमार को सरकार बनाने का मौका दिया और 3 मार्च 2000 को नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. लेकिन वे बहुमत साबित नहीं कर सके. कुछ ही दिनों में राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्री बनीं. कांग्रेस के 23 विधायक थे मगर तब लालू यादव के साथ नहीं आना चाहती थी. पर बाद में समर्थन को राजी हो गई और 11 मार्च 2000 को राबड़ी देवी ने दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. राजद-कांग्रेस की सरकार पूरे पांच साल चली, लेकिन यह चुनाव साफ दिखाता था कि बिहार अब बदलाव के मुहाने पर खड़ा है.

2005: दो चुनाव, बिहार में हुआ सत्ता और समीकरण का परिवर्तन

बता दें कि बिहार से नीतीश कुमार वापस केंद्र की राजनीति में चले गए थे और 2004 तक वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहे. वर्ष 2004 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार जाने के बाद नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए. इससे पहले अक्टूबर 2003 में शरद यादव की जनता दल और लोकशक्ति पार्टी के साथ नीतीश की समता पार्टी का विलय हो गया. इस तरह जनता दल यूनाइटेड अस्तित्व में आई. 2005 के विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार फिर एनडीए में आ गए. बिहार में 2005 की कहानी अनोखी रही, क्योंकि एक ही साल में दो विधानसभा चुनाव हुए. फरवरी 2005 में हुए पहले चुनाव में कोई भी दल बहुमत नहीं जुटा सका. आरजेडी को 75, एनडीए को 92 सीटें मिलीं और किसी को बहुमत नहीं मिला. राष्ट्रपति शासन लगाया गया और विधानसभा भंग हुई. उसी साल अक्टूबर- नवंबर में दोबारा चुनाव हुए. लोग बदलाव के लिए तैयार थे और अपराध, बिजली, सड़क – सब मुद्दे बन गए. बिहार में नई उम्मीद जगी. बिहार ने पहली बार विकास, शासन और सुशासन के नाम पर वोट दिया. इस बार नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए (जेडीयू-भाजपा गठबंधन) ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया. इस बार एनडीए ने 143 सीटें जीतीं जिनमें भाजपा को 55, जेडीयू को 88 सीटें मिलीं, वहीं आरजेडी 54 पर सिमट गई. नीतीश कुमार 24 नवंबर 2005 को सीएम बने लालू यादव और राबड़ी देवी के 15 वर्षों का राज समाप्त हुआ. यह सत्ता परिवर्तन केवल सरकार का नहीं, बल्कि राजनीति की भाषा बदलने का प्रतीक बना.

2010: नीतीश कुमार के सुशासन की जीत, एनडीए का स्वर्णकाल

2005 से 2010 के बीच अपराधियों पर नकेल कसा गया, सड़कें बनीं और बिजली आई. नीतीश कुमार ने ‘सुशासन’ का वादा निभाया. 5 साल शांति से चले और बिहार बदलता चला गया. वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. गठबंधन ने 206 सीटें जीतीं जिनमें जेडीयू को 115 और भाजपा को 91 सीटें मिलीं. वहीं आरजेडी को 22 और लोजपा को 3 सीट मिली. यह चुनाव नीतीश कुमार के सड़क, बिजली, शिक्षा और कानून-व्यवस्था मॉडल की जीत के रूप में देखा गया. महिलाओं की भागीदारी भी इस चुनाव में पहली बार निर्णायक बनी. पंचायत चुनावों में 50% आरक्षण और साइकिल योजना जैसे फैसलों ने नीतीश की लोकप्रियता को चरम पर पहुंचा दिया. साइकिल योजना शुरू की और विकास जमीन पर दिख रहा था. बिहार अब ‘विकास पुरुष’ नीतीश का पर्याय बन गया.

2015: नीतीश-लालू हुए साथ और महागठबंधन की प्रचंड जीत

वर्ष 2013 में नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ लिया और 2014 में लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद उनहोंने मुख्यमंत्री पद भी छोड़ दिया. इसके बाद जीतन राम मांझी को उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया. इसके बाद वर्ष नीतीश कुमार ने 2015 में लालू यादव के साथ हाथ मिला लिया. यह गठबंधन चुनावी दृष्टि से मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ. महागठबंधन (जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस) ने एनडीए को भारी झटका देते हुए 178 सीटें जीतीं. आरजेडी ने 80, जेडीयू ने 71 और कांग्रेस ने 27 सीटें जीती. एनडीए केवल 58 सीटों तक सिमट गया. इस चुनाव ने साबित किया कि बिहार में सामाजिक समीकरण और गठबंधन राजनीति अभी भी निर्णायक है. हालांकि, इस जीत के बाद भी नीतीश और लालू का साथ ज्यादा समय तक नहीं चला. नीतीश तीसरी बार सीएम बने थे, लेकिन वर्ष 2017 में लालू यादव के बेटों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे जिसके बाद नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ा दिया और दोबारा एनडीए में लौट आए.

2020: फिर पलटी बिहार की राजनीति और एनडीए की वापसी

वर्ष 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों पर नीतीश ने आरजेडी से अलग होकर भाजपा के साथ सरकार बनाई. 2020 का चुनाव कोविड काल में हुआ और विपक्ष ने इसे सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का मौका माना. लेकिन परिणामों ने एक बार फिर सबको चौंका दिया. एनडीए ने 125 सीटें जीतकर बहुमत प्राप्त किया. भाजपा 74 और जेडीयू 43 पर रही. हालांकि, आरजेडी 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और महागठबंधन 110 सीटों के साथ बहुमत से थोड़ा पीछे रह गया. इस चुनाव ने एक बात फिर साफ की- बिहार की जनता अब जाति से ज्यादा स्थायित्व और नेतृत्व की विश्वसनीयता पर वोट करती है. लेकिन, इस चुनाव में बड़ा परिवर्तन हुआ कि चिराग पासवान ने लोजपा से जेडीयू को नुकसान पहुंचाया और सीटों के लिहाज से भाजपा अब जेडीयू से बड़ी हो गई थी. सत्ता एनडीए की रही और नेतृत्व नीतीश कुमार का ही रहा.

2025 की पृष्ठभूमि: नई राजनीति की तलाश

वर्ष 2025 के चुनाव में बिहार ने तीसरी बार नए विकल्पों को देखा- जन सुराज पार्टी (प्रशांत किशोर) जैसे संगठन उभरे, महिलाओं का मतदान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा और युवाओं का मुद्दा रोजगार बना. हालांकि एग्जिट पोल्स ने फिर एनडीए को बढ़त दी है, लेकिन बिहार का राजनीतिक इतिहास कहता है यह राज्य कभी भी एक ही दिशा में लंबा नहीं चलता. यह वही बिहार है जहां लालू का जनाधार और नीतीश का शासन, दोनों एक साथ राजनीतिक इतिहास का हिस्सा हैं. यहां हर चुनाव केवल वोट नहीं, एक अलग प्रयोग होता है.

बिहार की राजनीति ने हर दशक में लिखा नया अध्याय

बिहार की राजनीति का सफर 1990 से 2025 तक कई करवटें ले चुका है. लालू यादव ने जहां सामाजिक न्याय का नया अध्याय खोला, वहीं नीतीश कुमार ने सुशासन की राजनीति को परिभाषित किया. 1991 में लालू का जलवा, 2005 में नीतीश का उदय, 2015 में महागठबंधन 2020 में मामूली अंतर से जीत. इस दौरान यह भी बार-बार साबित हुआ कि बिहार की सियासत में कोई स्थायी दोस्त-दुश्मन नहीं. जाति, विकास, गठबंधन – हर बार नया खेल. कभी गठबंधन बदले, कभी समीकरण, लेकिन जनता ने हर बार अपने तरीके से जवाब दिया. यह वही बिहार है जहां सत्ता का गणित उतना ही अनिश्चित है जितनी जनता की उम्मीदें. इसलिए कहा जा सकता है-बिहार में चुनाव सिर्फ नतीजा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीवंत परीक्षा है. 2025 की मतगणना फिर नया अध्याय लिख रही है.

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