वंदे मातरम् पर नेहरू को क्यों थी आपत्ति, क्या मुस्लिम लीग थी वजह? जानें इतिहास

1 hour ago

देशभक्ति के अमर गीत ‘वंदे मातरम्’ के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आज संसद में एक ऐसी ऐतिहासिक बहस हुई, जो लंबे समय तक याद रखी जाने वाली है. लोकसभा में इस गीत को लेकर आज पूरे 10 घंटे तक विशेष चर्चा आयोजित की गई है, जिसकी शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की. वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर बोलते हुए पीएम मोदी ने कांग्रेस पर जोरदार प्रहार किए और जवाहरलाल नेहरू पर मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के आगे घुटने टेकने के आरोप लगाए.

लोकसभा में पीएम मोदी ने कहा, ‘जो वंदे मातरम् 1905 में महात्मा गांधी को राष्ट्रगान के रूप में दिखता था… वंदे मातरम् इतना महान था, इसकी भावना इतनी महान थी तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम् के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? वह कौनसी ताकत थी जिसकी इच्छा पूज्य बापू की भावना पर भारी पड़ गई जिसने वंदे मातरम् जैसी पवित्र भावना को विवादों में घसीट दिया.’ उन्होंने कहा कि मुस्लिम लीग के बयानों का जवाब देने के बजाय नेहरू जी ने सुभाष बाबू को पत्र लिखा और कहा कि मैंने वंदे मातरम् की पृष्ठभूमि पढ़ी है और मुझे लगता है कि यह मुसलमानों को भड़का सकता है.’

इससे पहले पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस पर बड़ा सियासी हमला बोला था. उन्होंने कहा था कि कांग्रेस ने वंदे मातरम् की कुछ पंक्तियों को जानबूझकर हटाया और इसके जरिए देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने की कोशिश की. प्रधानमंत्री के इस बयान पर विपक्ष ने तीखा पलटवार किया था. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री ने 1937 में हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की उस ऐतिहासिक बैठक में मौजूद स्वतंत्रता सेनानियों और वरिष्ठ नेताओं का अपमान किया है, जहां वंदे मातरम् को लेकर प्रस्ताव पारित किया गया था.

जैसे-जैसे संसद में होने वाली बहस का समय नजदीक आता गया, वैसे-वैसे आरोप-प्रत्यारोप भी तेज़ हो गए. बीजेपी जहां इसे ऐतिहासिक सच्चाई सामने लाने की कोशिश बता रही है, वहीं कांग्रेस का कहना है कि सरकार आजादी के आंदोलन और उसके नायकों को राजनीतिक विवाद में घसीट रही है. ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गान न बनाए जाने के पीछे क्या तर्क दिए थे. यह सभी तर्क उनके पत्रों, वक्तव्यों और सरकारी दस्तावेजों में आज भी सुरक्षित हैं, जो नेहरू आर्काइव में उपलब्ध हैं.

नेहरू को वंदे मातरम् पर क्यों थी आपत्ति?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में पुष्कर बनकर लिखते हैं, ’21 मई 1948 को जवाहरलाल नेहरू ने एक कैबिनेट नोट में विस्तार से अपनी राय रखी थी. उन्होंने लिखा था कि राष्ट्रीय गान केवल शब्दों का समूह नहीं होता, बल्कि वह मुख्य रूप से एक धुन या एक संगीत रचना होता है, जिसे बार-बार ऑर्केस्ट्रा और बैंड द्वारा बजाया जाता है और बहुत कम अवसरों पर गाया जाता है. इसलिए राष्ट्रीय गान का संगीत अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. उसमें जीवन भी होना चाहिए और गरिमा भी, और वह इतना सक्षम होना चाहिए कि बड़े और छोटे सभी प्रकार के ऑर्केस्ट्रा और सैन्य बैंड उसे प्रभावी ढंग से बजा सकें. नेहरू ने यह भी लिखा कि राष्ट्रीय गान केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बजाया जाना होता है, इसलिए उसकी धुन ऐसी होनी चाहिए जिसे वहां भी सराहा जा सके.

वंदे मातरम् से क्यों बेहतर लगा जन गण मन?

नेहरू के अनुसार जन गण मन इन सभी मानकों पर खरा उतरता है, जबकि वंदे मातरम्, अपनी सारी सुंदरता और ऐतिहासिक महत्व के बावजूद, ऑर्केस्ट्रा या बैंड में बजाने के लिहाज़ से आसान नहीं है. उन्होंने लिखा कि इसकी धुन कुछ हद तक करुणामय, उदास और दोहराव वाली है. विदेशी श्रोताओं के लिए इसे एक संगीत रचना के रूप में समझना और सराहना कठिन हो सकता है. नेहरू का मानना था कि जन गण मन में जो विशिष्ट और पहचानने योग्य संगीतात्मक विशेषताएं हैं, वे वंदे मातरम् में उस रूप में मौजूद नहीं हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वंदे मातरम् हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के उस दौर को बहुत सच्चाई से दर्शाता है जिसमें लालसा, पीड़ा और प्रतीक्षा थी, लेकिन उसमें भविष्य की उपलब्धि और पूर्णता का भाव उतना प्रबल नहीं है.

नेहरू ने यह भी स्पष्ट किया कि वंदे मातरम् की भाषा औसत व्यक्ति के लिए कठिन है, जबकि जन गण मन अपेक्षाकृत सरल है, हालांकि उसमें भी समय के अनुसार कुछ सुधार की आवश्यकता हो सकती है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सुझाव दिया था कि जन गण मन को अस्थायी रूप से राष्ट्रीय गान के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और सभी उपयुक्त अवसरों पर उसे ही बजाया जाना चाहिए.

क्या मुसलमानों के विरोध के कारण वंदे मातरम् नहीं बना राष्ट्रगान?

15 जून 1948 को नेहरू ने पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री बनने वाले कांग्रेस नेता डॉ. बीसी रॉय को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि यह कहना गलत है कि कुछ मुसलमानों के विरोध के कारण वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गान नहीं बनाया गया. उन्होंने लिखा कि इस तथ्य ने यहां बहुत लोगों को प्रभावित नहीं किया. नेहरू ने कहा कि कई लोग, और वह खुद भी, इस बात को गहराई से महसूस करते हैं कि तत्कालीन संदर्भ में वंदे मातरम् राष्ट्रीय गान के रूप में बिल्कुल उपयुक्त नहीं है. हालांकि उन्होंने यह भी लिखा कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय गीत के रूप में रहेगा और स्वतंत्रता संग्राम से उसका संबंध इतना गहरा है कि वह सदैव श्रद्धा के साथ याद किया जाएगा.

राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत में क्या अंतर?

नेहरू ने इस पत्र में यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय संघर्ष के गीत में मूलभूत अंतर होता है. उनके अनुसार वंदे मातरम् संघर्ष, पीड़ा और आजादी की लालसा का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि राष्ट्रीय गान को विजय और पूर्णता का प्रतीक होना चाहिए. उन्होंने दोहराया कि राष्ट्रीय गान में शब्दों से अधिक उसकी धुन का महत्व होता है और उनकी समझ में वंदे मातरम् इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता. नेहरू ने यहां तक लिखा कि विदेशी देशों के दृष्टिकोण से वंदे मातरम् एक असफल विकल्प हो सकता है. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वंदे मातरम् की भाषा ऐसी है जिसे अधिकांश लोग नहीं समझते और स्वयं उन्हें भी उसके कई शब्द स्पष्ट नहीं हैं.

वंदे मातरम् को लेकर क्या थी नेहरू की राय?

21 जून 1948 को नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पत्र का जवाब देते हुए भी इसी विषय पर अपनी बात दोहराई. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बाद में भारतीय जनसंघ के संस्थापक बने, जो आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक आधार बना. नेहरू ने लिखा कि निजी तौर पर उन्हें नहीं लगता कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय गान के रूप में व्यवहारिक है, और इसका मुख्य कारण उसकी धुन है, जो ऑर्केस्ट्रा या बैंड में बजाने के लिए उपयुक्त नहीं है. इसके विपरीत, जन गण मन को पहले ही भारत और विदेशों दोनों जगह सराहना मिल चुकी थी और उसकी धुन को सुनने वालों पर गहरा प्रभाव पड़ता था.

नेहरू ने यह भी लिखा कि वंदे मातरम् हमारे पूरे राष्ट्रीय संघर्ष से गहराई से जुड़ा हुआ है और हम सभी भावनात्मक रूप से उससे जुड़े हुए हैं और आगे भी रहेंगे. वह हमेशा एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय गीत बना रहेगा. लेकिन उनका व्यक्तिगत मत यह था कि स्वतंत्रता के लिए तीव्र लालसा और पीड़ा को दर्शाने वाला गीत आजादी की प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय गान के रूप में पूरी तरह उपयुक्त नहीं हो सकता. जन गण मन में उन्हें विजय और उपलब्धि का भाव अधिक स्पष्ट दिखाई देता था.

वंदे मातरम् और जन गण मन को लेकर चल रहे विवाद पर नेहरू ने 25 अगस्त 1948 को भी अपनी राय स्पष्ट की थी. उन्होंने कहा था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन दोनों गीतों को लेकर किसी तरह का विवाद पैदा हो गया है. उन्होंने दोहराया कि वंदे मातरम् भारत का निर्विवाद रूप से प्रमुख राष्ट्रीय गीत है, जिसका एक महान ऐतिहासिक परंपरा है और जो स्वतंत्रता संग्राम से गहराई से जुड़ा हुआ है. कोई भी अन्य गीत उसकी उस स्थिति को कभी नहीं छीन सकता. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय गान की धुन ऐसी होनी चाहिए जो भारतीय संगीत प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करे और कुछ हद तक पश्चिमी शैली से भी मेल खाती हो, ताकि उसे ऑर्केस्ट्रा और सैन्य बैंड में आसानी से बजाया जा सके और विदेशों में भी प्रस्तुत किया जा सके.

नेहरू ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय गान का महत्व शायद देश के भीतर से अधिक विदेशों में होता है. अब तक के अनुभव से यह स्पष्ट था कि जन गण मन की धुन को विदेशों में भी काफी सराहा गया था. उसमें एक विशिष्ट पहचान, गति और जीवन था. वहीं कुछ लोगों का मानना था कि वंदे मातरम् की धुन अपनी तमाम सुंदरता और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बावजूद विदेशी ऑर्केस्ट्रा में बजाने के लिए उतनी उपयुक्त नहीं है और उसमें पर्याप्त गति का अभाव है. इसलिए यह तय किया गया कि भारत में वंदे मातरम् राष्ट्रीय गीत के रूप में बना रहेगा, जबकि राष्ट्रीय गान की धुन जन गण मन की होगी और उसके शब्दों में आवश्यकतानुसार संशोधन किया जा सकता है.

नेहरू ने यह भी स्पष्ट किया कि अंतिम फैसला संविधान सभा को करना है और वह चाहे तो किसी नए गीत या नई धुन को भी राष्ट्रीय गान के रूप में चुन सकती है. अंततः 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही जन गण मन को भारत का राष्ट्रीय गान और वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया.

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