वंदेमातरम को लेकर क्या वीर सावरकर का रुख और क्यों RSS ने इससे रखी दूरी

1 hour ago

बंकिम चंद्र चटोपाध्याय ने वर्ष 1875 में वंदेमातरम गीत लिखा, इसके 150 साल अभी पूरे हुए तो इसे लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष में बहस छिड़ गई. ये जानना भी रोचक होगा कि सावरकर का इस गीत का क्या रुख था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का क्या.

राष्ट्रगान वंदेमातरम के 150 साल पूरे होने के साथ ही इसे लेकर विवाद भी छिड़ गया. सत्ता पक्ष और विपक्ष इस पर एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं कि इसे क्यों काटा गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया भाषणों में इसके लिए जहां नेहरू को जिम्मेदार ठहराया. वहीं विपक्ष ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक ने तो पूरी आजादी के दौरान और बाद में भी इस गीत से दूरी बरती. जानते हैं वीर विनायक दामोदर सावरकर और आरएसएस का रुख राष्ट्रगान वंदेमातरम को लेकर क्या रहा है.

सावरकर के लिए क्या था वंदेमातरम

वीर विनायक दामोदर सावरकर का “वंदेमातरम्” के प्रति दृष्टिकोण बहुत खास था. वह इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक शक्तिशाली आवाज़ और क्रांतिकारी मंत्र मानते थे. सावरकर ने लंदन में इंडिया हाउस को “वंदे मातरम्” का मंदिर बना दिया था, जहां इसे सुबह-शाम प्रार्थना और अभिवादन का हिस्सा बनाया जाता था. उन्होंने इस नारे को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एकजुटता और देशभक्ति का प्रतीक बनाया.

सावरकर ने 1908 में भारत के विद्रोही सैनिकों के सम्मान में “वंदेमातरम्” के साथ बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया. सभी के लिए इस नारे वाले बैज बनवाए. वो इस गीत को अपने क्रांतिकारी लेखन और कामों में भी शामिल करते थे, जैसे उनकी किताब “भारत का 1857 का स्वाधीनता संग्राम” के अंत में “वंदेमातरम्” का उद्घोष हुआ.

अंग्रेजों ने इस नारे को और सावरकर की किताब को प्रतिबंधित करने की कोशिश की. इसके बावजूद सावरकर के विचार और “वंदेमातरम्” का संदेश पूरे देश और विदेश तक फैलता रहा.

उनके लिए ये कैसा गीत था

सावरकर ने इसे भारत माता के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने वाला एक राष्ट्रीय गीत माना. सावरकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “हिंदुत्व: हू इज अ हिंदू?” (1923) में स्पष्ट रूप से “वंदे मातरम” को हिंदुओं के लिए एक राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया है.

सावरकर उन मुसलमान नेताओं के विचार का खंडन करते थे जो “वंदे मातरम” को इस्लाम के खिलाफ बताते थे. उनका मानना था कि यह गीत राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है. इसे धार्मिक आधार पर अस्वीकार करना राष्ट्रविरोधी है. 1930 के दशक में जब कुछ मुस्लिम लीग नेताओं ने गीत के बहिष्कार की वकालत की, तो सावरकर ने इसकी कड़ी निंदा की.

आरएसएस ने तब इससे दूरी रखी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अपने शुरुआती दिनों में “वंदे मातरम्” गीत को लेकर थोड़ा संशयपूर्ण था. इससे दूरी रखता था. 1925 में RSS की स्थापना के समय वे इसे अपनी प्रार्थना का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ये गीत कांग्रेस पार्टी से जुड़ा हुआ है. ऐसे में RSS ने शुरुआत में “वंदे मातरम्” को अपने संगठित साहित्य या पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया. ये भी माना जाता था कि संघ का फोकस और कार्यशैली कांग्रेस से अलग थी, इसलिए उन्होंने इसे अपनाने में संकोच जताया.

गुरु गोलवलकर (wiki commons)

महत्व को माना लेकिन…

हालांकि बाद में RSS और उसके परिवार की पार्टियों ने स्वतंत्र भारत में “वंदे मातरम्” के महत्व को स्वीकार किया, लेकिन संघ ने कुछ साल पहले तक अपनी शाखाओं में इसे अनिवार्य रूप से गाने का प्रचलन नहीं बनाया. कह सकते हैं कि आरएसएस ने “वंदे मातरम्” को सीधे-सीधे अस्वीकार तो नहीं किया, लेकिन इसे अपनाया भी नहीं.

हाल ही में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 2025 में आयोजित कई राष्ट्रव्यापी कार्यक्रमों में, जिनमें भाजपा और आरएसएस से जुड़े लोग भी शामिल हुए, वहां ये गीत जरूर पेश किया गया. महाराष्ट्र के ठाणे में आरएसएस की शाखा द्वारा वंदे मातरम् का सामूहिक गायन किया गया.

आरएसएस ने रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित “जन-गण-मन” को राष्ट्रगान के रूप में पूर्ण समर्थन दिया, क्योंकि इसे किसी भी समुदाय ने धार्मिक आधार पर चुनौती नहीं दी थी. संघ ने हमेशा कहा कि वह “जन-गण-मन” को सर्वोच्च सम्मान देता है और “वंदे मातरम” का भी सम्मान करता है, लेकिन राष्ट्रगान का दर्जा “जन-गण-मन” को ही मिलना चाहिए.

गोलवरकर ने इसे लेकर क्या लिखा

आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में इस मुद्दे पर स्पष्ट विचार दिए हैं. उन्होंने लिखा, “वंदे मातरम” एक पवित्र राष्ट्रीय मंत्र बन गया है… हालांकि, इसके कुछ छंदों में देवी दुर्गा का चित्रण है, जिसे कुछ लोगों ने धार्मिक आधार पर आपत्ति जताई है… इसलिए, राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखते हुए, ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया, जिसे सभी ने स्वीकार किया.”

वर्ष 2006 में जब “वंदे मातरम” को लेकर फिर बहस छिड़ी, तो आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने कहा, “हम ‘वंदे मातरम’ का सम्मान करते हैं. यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरणा-स्रोत था लेकिन ‘जन-गण-मन’ हमारा राष्ट्रगान है. उसका अपना विशेष स्थान है.”

हालांकि संघ के संस्थापक हेडगेवार “वंदे मातरम” को राष्ट्रभक्ति जगाने और हिंदू समाज को एकजुट करने के लिए एक सशक्त मंत्र मानते थे लेकिन उन्होंने संघ की दैनिक शाखाओं में इसे शामिल नहीं किया बल्कि “नमस्ते सदा वत्सले” जैसे गीत को शामिल किया, जो सीधे तौर पर मातृभूमि को संबोधित करता है.

हालांकि ये भी सही है कि आरएसएस ने आधिकारिक तौर पर कभी “वंदे मातरम” के केवल पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाने के सरकारी फैसले का विरोध नहीं किया. बल्कि व्यवहार में संघ ने भी इस फैसले का समर्थन और पालन किया.

1950 में भारत सरकार ने एक समिति की सिफारिश पर यह फैसला किया गया कि “वंदे मातरम” के पहले दो छंद को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाएगा. “जन-गण-मन” को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया जाएगा. आरएसएस ने इस सरकारी फैसले को कभी कोई चुनौती नहीं दी.

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