अकबर के खासमखास सलाहकार और मंत्री अबुल फजल ने आइन ए अकबरी में लिखा कि बादशाह अकबर के जीवन में दो ऐसे जैन साधु आए, जिन्होंने मांसाहार खानपान के प्रति अरुचि पैदा कर दी. अकबर इसके बाद शाकाहार की ओर मुड़ा. जीवन के आखिरी सालों में तो वह पूरी तरह से शाकाहारी हो गया. इन्हीं साधुओं की प्रेरणा से पहली बार मुगलों के शाही किचन में जैन पाकशाला शुरू हुई.
अकबर को शाकाहार की ओर लाने वाले जैन साधु ही थे. इनके नाम थे आचार्य हरिविजय सूरि और उनके शिष्य आचार्य जिनचन्द्र सूरि. कहा जाता है कि इनके प्रवचनों को सुनकर अकबर का मन बदला और वह शाकाहार की ओर चल पड़ा. ये बात जैन ग्रंथों “जिनचन्द्र सूरि कृत ‘विजयप्रबंध'” और “हरिविजय सूरि की प्रशस्ति” में मिलती है.
फिर मुगलकाल के अबुल फ़जल के अलावा और बदायूनी ने भी अकबर के जैन साधुओं से मिलने और उनके प्रभाव के बारे में लिखा है. यूरोपीय यात्री फादर मॉन्सरेट ने 1580-82 में लिखा कि अकबर कुछ “गुरुओं” के प्रभाव में पशु-हत्या को घृणित मानने लगा था.
कौन थे वो जैन साधु
जैन साधु आचार्य हरिविजय सूरि का समय 1527 से 1595 तक माना जाता है. अकबर ने उन्हें “जगत गुरु” की उपाधि भी दी थी. ये तपागच्छ के प्रमुख आचार्य थे. तपागच्छ जैन धर्म के श्वेतांबर सम्प्रदाय का एक प्रमुख और प्राचीन आचार्य-परंपरा है, जिसके वह 30वें आचार्य थे. जैन धर्म में विशेषकर श्वेतांबर सम्प्रदाय में कई गच्छ हैं. उनका जन्म राजस्थान के पाली जिले में हुआ था. वे प्रखर विद्वान, बहुत अच्छे वक्ता और कुशल प्रबंधक थे.
शिष्य के साथ अकबर के दरबार में आए
कहा जाता है कि वो 1582 में अपने शिष्य जिनचन्द्र सूरि और अन्य साधुओं के साथ अकबर के दरबार में फतेहपुर सीकरी पधारे. उनके प्रवचनों और जैन दर्शन के सिद्धांतों विशेषकर अहिंसा, जीव दया, सदाचार और व्रतों का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ा. वह अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथों की रचना की, जिनमें ‘धर्मपरीक्षा’, ‘यशोधर चरित्र’ और ‘भक्तामर स्तोत्र’ की टीका प्रमुख हैं. उनकी मृत्यु 1595 में अहमदाबाद में हुई.
तब अकबर ने क्या फरमान जारी किए
अकबर ने उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर कई फरमान जारी किए.
– ईद के दिन गाय-वध पर प्रतिबंध.
– पशु-हत्या पर सामान्य प्रतिबंध (चार महीने के लिए और बुधवार के दिन, जो अकबर की जन्मतिथि था और रविवार को)
– शिकार पर रोक।
– जीवित जानवरों की बिक्री पर रोक.
दूसरे जैन साधु थे कौन
दूसरे जैन साधु थे आचार्य जिनचन्द्र सूरि, जिनका समय 1541-1613 तक माना जाता है. वह आचार्य हरिविजय सूरि के प्रमुख शिष्य थे. इन्होंने 1591-92 ई. में अकबर के दरबार में लंबा समय बिताया. इनका जन्म गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में हुआ था. बचपन से ही उनकी बुद्धि तेज थी. उन्होंने हरिविजय सूरि से दीक्षा ली. उनके प्रिय शिष्य बने.
इस बात का अकबर पर बहुत असर पड़ा
जैन ग्रंथों के अनुसार, अकबर ने आचार्य जिनचन्द्र से पूछा कि “सबसे श्रेष्ठ तप कौन सा है?” आचार्य ने उत्तर दिया: “अन्न की रक्षा सबसे बड़ा तप है, क्योंकि अन्न से ही जीवन है. अन्न का विनाश जीवन का विनाश है.” यह उपदेश अकबर के मन पर अमिट छाप छोड़ गया. इसने उनके शाकाहारी जीवन को और मजबूत किया.
फिर बादशाह ज्यादातर शाकाहारी हो गया
इन साधुओं के प्रभाव से अकबर ने नियमित रूप से शाकाहार अपनाया. वह गुरुवार और रविवार को निश्चित रूप से शाकाहार ही करता था. बाद के सालों में वह ज्यादातर शाकाहारी भोजन ही पसंद करने लगा. अकबर ने मदिरा पीना कम कर दिया. अपने निजी भोजन में सादगी अपनाने लगा.
इसके बाद ही अकबर मुगल शाही किचन में जैन पाकशाला की स्थापना कराई, जहां प्याज-लहसुन रहित शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था. शाही किचन का यही विभाग फिर पक्के तौर पर शाकाहारी रसोई में बदल गया, जो फिर अकबर के बाद बादशाहों यानि शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब के समय में भी चलती रहीं.
जैन साधुओं ने उसे बदल दिया
बेशक अकबर ने जीवनभर के लिए कठोर शाकाहारी बनने का कोई सार्वजनिक संकल्प नहीं लिया था. हालांकि ये सही है कि इन जैन आचार्यों की शिक्षाओं ने उनके व्यक्तिगत जीवन, खानपान और कुछ राजकीय नीतियों पर गहरा नैतिक और व्यावहारिक प्रभाव डाला. अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूनी ने इसे “हिंदुआना हो जाना” कहकर भी संबोधित किया.
कैसी होती थी जैन पाकशाला
शाही रसोई में हिंदू विशेषकर ब्राह्मण और राजपूत रसोइयों की महत्वपूर्ण भूमिका थी. सम्राट अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किया था. इन रानियों के आने से महल में हिंदू पाक शैली का प्रभाव बढ़ा. वैसे राजपूत रानियों की शाकाहारी रसोई की अलग व्यवस्था होती थी, जो उनके रहने के हिस्से से जुड़ी होती थी.
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, अकबर के समय में शाकाहारी भोजन (सूफियाना) तैयार करने के लिए विशेष सावधानी बरती जाती थी. चूंकि ब्राह्मण रसोइये शुद्धता और ‘सात्विक’ भोजन के नियमों के जानकार थे, इसलिए शाकाहारी विभाग की जिम्मेदारी अक्सर उन्हें या उन विशेषज्ञों को दी जाती थी जो इन परंपराओं को समझते थे. अकबर का भोजन हिंदू और जैन परंपराओं से प्रभावित होता था, जिसे बनाने में स्थानीय हिंदू रसोइयों की विशेषज्ञता काम आती थी.
अकबर के दौर में हिंदू और जैन रसोइयों को अहम जगह मिली. कई ब्राह्मण और जैन रसोइये शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाते थे. उपवास और धार्मिक दिनों का विशेष ध्यान रखते थे. ये स्थापित तथ्य है कि हिंदू रसोइये “ख़ास रसोई” तक पहुंचे.
अकबर की शाकाहारी रसोई के व्यंजन
1. घी में पके चावल – ये कई मसालों के साथ बनाए जाते थे.
2. दाल – मसूर की दाल और मूंग की दाल का उल्लेख है, जिन्हें घी, अदरक, हल्दी, जीरा आदि से सुगंधित किया जाता था.
3. कढ़ी – दही, बेसन और मसालों से बनने वाली कढ़ी लोकप्रिय थी.
4. सब्ज़ियां – पालक, मटर, गाजर, शलजम, कुम्हड़ा (कद्दू), भिंडी, बैंगन आदि की तरकारियां बनती थीं. इन्हें “क़लीये” कहा जाता था.
5. खिचड़ी – दाल और चावल से बनी खिचड़ी, जिसे घी और मसालों से स्वादिष्ट बनाया जाता था.
6. पूरी एवं हलवा – मैदा से बनी पूरी और गेहूं के आटे का “हलवा” प्रसिद्ध थे.
7. दही-वट (दही-बड़े) – उड़द की दाल के बड़े दही में डुबोकर बनाए जाते थे.
8. मिठाइयां – खाजा, लड्डू, पेठा (कुम्हड़े से), बालूशाही आदि.
शाकाहारी जैन रसोई के नियम
अबुल फजल की किताब आइन ए अकबरी के अनुसार अकबर की शाही किचन में अलग से बनाई गई जैन शाकाहारी रसोई के कड़े नियम थे, जो शुद्धता और शुचिता से जुड़े हुए थे.
– शाकाहारी और मांसाहारी रसोई के बर्तन, चाकू, छुरी, चौकी, कड़ाही आदि पूरी तरह अलग होते थे. किसी भी स्थिति में इनका आपस में संपर्क नहीं होने दिया जाता था.
– अनाज, घी, दालें, मसाले आदि के भंडारण के लिए अलग कोठरी या बख़ार होती थी.
– खाना बनाने और पीने के लिए पानी का स्रोत भी शुद्ध और संरक्षित होता था. गंगा जल का इस्तेमाल होता था
– जैन-सैल में काम करने वाले रसोइए अक्सर ब्राह्मण, वैश्य या जैन श्रावक होते थे, जिनकी शाकाहारी पवित्रता के प्रति निष्ठा विश्वसनीय मानी जाती थी.
– रसोई में प्रवेश से पहले सभी कर्मचारियों को स्नान करके शुद्ध, साफ कपड़े पहनना अनिवार्य था.
– कई रसोइए भूखे पेट ही खाना बनाते थे. कुछ मुंह पर पट्टी भी बांधते थे.

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