Last Updated:May 28, 2025, 07:22 IST
NTR birth anniversary: एनटीआर ने 1982-83 में आंध्र प्रदेश की राजनीति में धमाकेदार एंट्री की और टीडीपी को 202 सीटें जिताईं. उनके अनूठे प्रचार अभियान और दो रुपए किलो चावल के वादे ने जनता को खूब भाया.

दामाद चंद्रबाबू नायडू ने एक झटके में एनटीआर को अप्रांसगिक हो गए.
हाइलाइट्स
एनटीआर ने 1982-83 में आंध्र प्रदेश की राजनीति में धमाकेदार एंट्री की.एनटीआर ने 70 दिनों में 35 हजार किमी की यात्रा की.टीडीपी ने 1983 में 294 में से 202 सीटें जीतीं.वह 1982-83 का दौर था. तेलुगु फिल्मों के सुपर स्टार नंदमुरी तारका रामा राव (एनटीआर नाम से मशहूर) ने आंध्र पदेश की राजनीति में तमिलनाडु को दोहराने के लिए कमर कस ली थी. लेकिन उनका मुकाबला उस कांग्रेस से था, जो 1953 में अविभाजित आंध्र प्रदेश के गठन के बाद से लेकर 1978 तक विधानसभा का एक भी चुनाव नहीं हारी थी. इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनावों में भी जहां कांग्रेस अधिकांश राज्यों में बुरी तरह से परास्त हुई थी, इस राज्य की 42 में से 41 लोकसभा सीटें कांग्रेस की झोली में ही गई थीं. फिर जहां तमिलनाडु के पहले अभिनेता-मुख्यमंत्री एमजीआर को पूरे द्रविड़ आंदोलन का समर्थन हासिल था, वहीं एनटीआर की पार्टी के गठन को साल भर भी नहीं हुआ था. अधिकांश लोगों ने उनकी पार्टी का नाम भी नहीं सुन रखा था. इसके बावजूद उन्होंने आम लोगों तक पहुंचने का जो तरीका ईजाद किया, उसने चुनाव प्रचार की एक नई परिभाषा गढ़ दी. यह ऐसा अभियान था, जिसे भारतीय राजनीति के इतिहास में आज भी बेमिसाल माना जाता है.
एनटीआर ने प्रचार के लिए 1940 मेड शेवरले कन्वर्टिबल में थोड़ा फेरबदल कराया और उसे नाम दिया ‘चैतन्य रथम’. वे हर दिन औसतन करीब 120 किलोमीटर की यात्रा करते और अगर 15 से ज्यादा लोग भी जुट जाते तो वहीं भाषण देना शुरू कर देते. वे अक्सर सड़क किनारे दाढ़ी बनाते, नहाते और अपने कपड़े खुद ही धोते. जमीन पर लोगों के साथ ही बैठकर खाना खाते. फिर उन्होंने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया, जिसका कांग्रेस ने तो मजाक उड़ाया, लेकिन जनता को खूब भाया. इस वादे, एनटीआर के सिनेमाई ब्रांड और पब्लिक से डायरेक्ट कनेक्ट ने ऐसा जादू रचा कि 294 सीटों वाली विधानसभा में टीडीपी 202 सीटें जीतकर पूरे धमाके के साथ सत्ता में आई, जबकि कांग्रेस महज 60 सीटों पर सिमट गई. एक साल पहले आंध्र प्रदेश के कांग्रेस मुख्यमंत्री व पिछड़े वर्ग के नेता तंगुतुरी अंजैया की अपमानजनक विदाई भी एनटीआर के लिए बड़ा मुद्दा बन गई थी. उन्होंने इसे ‘तेलुगु बिड्डा’ यानी तेलुगु धरतीपुत्र के ‘अपमान’ से जोड़ दिया. उसी समय राजनीति में कदम रखने वाले एनटीआर के लिए यह मुद्दा किसी गोला-बारूद से कम नहीं था.
एनटीआर के अनूठे चुनाव अभियान के बारे में उनके जीवनी लेखक और पत्रकार एस. वेकंट नारायण लिखते हैं : ‘14 जून 1982 को रामा राव ने अपने अभियान के पहले चरण की शुरुआत की और 3 जनवरी 1983 को उन्होंने तिरुपति में प्रचार अभियान के तहत अपना आखिरी भाषण दिया. अपनी 70 दिनों की यात्रा में वे राज्य के हर नुक्कड़-चौराहे तक पहुंचे. उनकी 35 हजार किलोमीटर की इस यात्रा के दौरान करीब तीन करोड़ लोगों ने उन्हें देखा-सुना, यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है. ऐसा कोई शख्स याद नहीं आता, जिसने इस कदर यात्रा की हो. किसी भी व्यक्ति का इतनी गर्मजोशी, प्यार और स्नेह से स्वागत नहीं किया गया होगा और किसी भी व्यक्ति ने अपनी भाषण कला से इतने ज्यादा लोगों को आकर्षित नहीं किया होगा. महात्मा गांधी को छोड़कर ऐसा कभी किसी के साथ नहीं देखा गया.”
दूध बेचने से लेकर मेस तक चलाई
एनटीआर बेहद साधारण पृष्ठभूमि से आते थे. अपनी युवावस्था में उन्हें विजयवाड़ा में रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था. वे हर रोज साइकिल से घरों, होटल व अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों में दूध बेचा करते थे. यहां तक कि उन्होंने मुंबई में एक मेस भी शुरू की थी, जहां आंध्र प्रदेश के लजीज व्यंजन परोसे जाते थे. लेकिन उन्हें इस काम में सफलता नहीं मिली तो विजयवाड़ा लौटकर तंबाकू, बीड़ी और सिगरेट बेचने का काम शुरू कर दिया. साथ ही 64 रुपए महीने के वेतन पर कोर्ट अटेंडेंट का काम शुरू किया. उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस चलाने की भी नाकाम कोशिश की. बीए की डिग्री ने आखिरकार उन्हें राजस्व विभाग में सब-रजिस्टार की नौकरी दिला दी, लेकिन तब तक वे फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमाने का फैसला कर चुके थे.
सिनेमा हॉल के भीतर बनवा दिया था मंदिर
उन्होंने 1949 से 1982 के बीच 292 फिल्मों में अभिनय किया था. उनकी निभाई भूमिकाओं ने ही ‘ब्रैंड एनटीआर’ बनाया. उन्होंने फिल्मी पर्दे पर भगवान की भूमिकाएं भी खूब निभाईं. वे 17 बार कृष्ण बने, राम के चरित्र में नजर आए और 1977 में आई फिल्म ‘दानवीरा सूरा कर्ण’ में कर्ण बने. उनकी एक फिल्म ‘श्री वेंकटेश्वरा माहात्यम’ (1960) इस कदर लोकप्रिय हुई कि उनके अनुयायियों ने सिनेमा हॉल के भीतर उनका मंदिर तक बनवा दिया था, ताकि स्क्रीनिंग से पहले और बाद में उनकी पूजा की जा सके.
और फिर अचानक से हो गए अप्रासंगिक!
फिल्मों की वजह से पहले से ही लोकप्रिय होने और फिर 1983 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन ने एनटीआर को आंध्र की सियासत का सबसे बड़ा खिलाड़ी बना दिया, इतना बड़ा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के लिए देशभर में उपजी सहानुभूति की लहर राजनीतिक तौर पर राज्य में कारगर नहीं रही. 1984 के संसदीय चुनावों में राज्य में टीडीपी को 42 में से 30 सीटें मिलीं और इस तरह वह लोकसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई. लेकिन फिर एनटीआर की केंद्रीय राजनीति में बढ़ती दिलचस्पी तथा खराब स्वास्थ्य ने धीरे-धीरे राज्य की राजनीति पर उनकी पकड़ थोड़ी ढीली कर दी. नतीजतन, 1989 में कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में फिर से सत्ता हथिया ली. लेकिन 1994 में उन्होंने एक ‘तेलुगु बिड्डा’ पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री होने के बावजूद आंध्र प्रदेश की सत्ता में वापसी की.
यह एनटीआर की आखिरी जीत थी. आंध्र प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री एनटीआर के तीसरे कार्यकाल को महज नौ माह ही बीते थे कि तभी 26 अगस्त 1995 को उनके विश्वासपात्र और दामाद एन. चंद्रबाबू नायडू ने उनके खिलाफ बगावत कर दी. परिवार के लगभग सभी सदस्यों और टीडीपी के 200 विधायकों ने मुख्यमंत्री का साथ छोड़ दिया था. एनटीआर अचानक ही एकदम अप्रांसगिक हो चुके थे. वे जितनी तेजी से बुलंदियों तक पहुंचे थे, उसी गति से जमीन पर आ चुके थे.
नायडू ने बगावत को सही ठहराते हुए तर्क दिया था कि उन्हें ऐसा करने पर इसलिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि एनटीआर की दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती का पार्टी मामलों और राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप बढ़ता ही जा रहा था. लक्ष्मी पार्वती ने एनटीआर की जीवनी लिखी थी और उन्होंने परिवार की इच्छा के खिलाफ जाकर 1993 में पार्वती से शादी की थी.
2009 में प्रकाशित ‘द अदर साइड ऑफ ट्रूथ’ नामक किताब में एनटीआर के दूसरे दामाद डग्गुबाती वेंकटेश्वर राव कहते हैं कि नायडू की बगावत से एनटीआर इतने ज्यादा आहत थे कि उन्होंने अपने अभिनेता बेटे नंदमुरी बालकृष्ण से कहा था कि ‘जाओ और धोखा देने वाले नायडू की हत्या कर दो.’
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...और पढ़ें
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...
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