Opinion: दलित–मुस्लिम गठबंधन: अतीत का छल, वर्तमान का प्रपंच

1 week ago

Last Updated:August 14, 2025, 09:39 IST

1947 में जब भारत आजाद हुआ तो देशवासियों को उसका जश्‍न मनाने का समय भी नहीं मिला. देश के करोड़ों लोग विभाजन के समय हुई हिंसा और पलायन का दर्द झेलने को मजबूर हुए. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मौजूदा बां...और पढ़ें

 अतीत का छल, वर्तमान का प्रपंचधर्मपाल उत्‍तर प्रदेश भाजपा के महामंत्री संगठन हैं.

धर्मपाल

राजनीति का सबसे पुराना और कारगर हथियार है – स्मृतियों को चुन-चुनकर इस्तेमाल करना. जो बातें लोगों को जोड़ सकती हैं, उन्हें भुला दिया जाता है और जो जख्म उन्हें बांट सकते हैं, उन्हें बार-बार कुरेदा जाता है. आज ‘जय भीम–जय मीम’ जैसे नारे उसी राजनीति की नई पैकेजिंग हैं, जिनका इतिहास खून, छल और विश्वासघात से भरा है. यह नारा सुनने में एकता का प्रतीक लगता है, लेकिन इसके पीछे छिपी कहानी कहीं अधिक कड़वी है. एक ऐसी कहानी जो अतीत की त्रासदी को वर्तमान के लिए चेतावनी में बदल देती है.

1947 का साल भारतीय इतिहास का सबसे उथल-पुथल भरा मोड़ था. अंग्रेजों के भारत छोड़ने की खुशी अभी पूरी तरह देश में उतरी भी नहीं थी कि विभाजन की रक्तरंजित सच्चाई ने करोड़ों परिवारों को उखाड़ फेंका. सीमाएं खिंच गईं, नक्शे बदल गए, लेकिन सबसे गहरे घाव समाज के सबसे कमजोर तबकों पर पड़े. विभाजन पर होने वाली चर्चाएं अक्सर हिंदू–मुस्लिम संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती हैं, पर एक और अध्याय है अनुसूचित समाज का जो सबसे अधिक पीड़ित हुआ और जिसका दर्द इतिहास की किताबों में हाशिये पर डाल दिया गया.

केवल भूगोल का बंटवारा नहीं

दलितों के लिए यह केवल भूगोल का बंटवारा नहीं था, बल्कि जीवन और अस्मिता का विनाश था. वे न हथियारबंद थे, न संगठित. आर्थिक और सामाजिक रूप से पहले से ही कमजोर थे. ऐसे में वे सांप्रदायिक हिंसा का सबसे आसान निशाना बन गए. योजनाबद्ध तरीके से उनकी बस्तियां जलाई गईं, महिलाओं को अपमानित किया गया, मंदिरों को अपवित्र कर दिया गया और घरों को लूट लिया गया. यह सब सिर्फ उन्माद का परिणाम नहीं था, बल्कि सत्ता और प्रभुत्व की एक सुनियोजित रणनीति थी.

पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल दलित समाज के बड़े नेता का इस्तीफ़ा इस भयावह सच्चाई का साक्ष्य है. साल 1950 में प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को लिखे पत्र में उन्होंने विस्तार से बताया कि स्लीट जिले में पुलिस और सेना ने निर्दोष दलित हिंदुओं को बर्बरता से पीटा, महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, सैकड़ों मंदिरों को नष्ट कर उनकी जगह मांस बेचने वाली दुकानें खोल दी गईं. गोपालगंज के दिघरकुल में एक झूठे आरोप पर पूरे नामशूद्र गांव को कुचल दिया गया. गौरनाडी में दलित बस्तियों पर राजनीतिक बहाने से हमला हुआ और ढाका दंगों में पुलिस की मौजूदगी में दुकानों को लूटा और आग लगा दी गई. कलशिरा गांव के 350 घरों में केवल तीन बचे, बाकी राख में बदल गए.

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तकों Pakistan or the Partition of India और Thoughts on Pakistan में लिखा कि मुस्लिम राजनीति का चरित्र मूलतः सांप्रदायिक है और यह दलितों को केवल तब तक साथ रखेगी जब तक इससे उसे लाभ होगा.

मुस्लिम लीग का सुनियोजित छल

1947 से 1950 के बीच पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने वाले लगभग 25 लाख शरणार्थियों में बड़ी संख्या अनुसूचित समाज की थी. यह केवल पलायन नहीं था, यह एक प्रमाण था कि मुस्लिम लीग का सुरक्षा और बराबरी का वादा एक सुनियोजित छल था. मंडल ने अपने पत्र में स्वीकार किया कि स्थिति न केवल असंतोषजनक थी, बल्कि पूरी तरह अंधकारमय और निराशाजनक थी. विडंबना यह है कि विभाजन से पहले मंडल ने ही दलित–मुस्लिम गठबंधन का समर्थन किया था. उनका मानना था कि दोनों समुदाय शोषित हैं, इसलिए एक-दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी बन सकते हैं. लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीग को इस गठबंधन की कोई जरूरत नहीं रही. उनके लिए हर गैर–मुस्लिम ‘काफिर’ था, चाहे वह सवर्ण हो या दलित.

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इस परिणाम को पहले ही भांप लिया था. अपनी पुस्तकों Pakistan or the Partition of India और Thoughts on Pakistan में उन्होंने लिखा कि मुस्लिम राजनीति का चरित्र मूलतः सांप्रदायिक है और यह दलितों को केवल तब तक साथ रखेगी जब तक इससे उसे लाभ होगा. धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों में गहरी भिन्नता के कारण स्थायी समानता और सह-अस्तित्व का विचार केवल एक राजनीतिक मृगतृष्णा है.

अतीत दोहराने जैसा

आज जब महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी की नजदीकियां बढ़ रही हैं या जब उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा दलित–मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति कर रही हैं, तो यह वही अतीत दोहराने जैसा है. सपा का PDA फॉर्मूला भी इसी सोच का नया संस्करण है. यह सब 75 साल पुराने जख्म पर नई पॉलिश चढ़ाने जैसा है. अंदर का घाव उतना ही गहरा और खतरनाक है.

सवाल साफ है कि क्या दलित समाज फिर उसी जाल में फंसेगा? क्या वह फिर उन हाथों में अपना भविष्य सौंप देगा, जिन्होंने अतीत में उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया था? स्थायी सुरक्षा और सम्मान न तो नारों से मिलेगा, न गठबंधनों से. यह आत्मनिर्भरता, शिक्षा, संगठन और राजनीतिक जागरूकता से ही आएगा.

विभाजन की पीड़ा बंद किताब नहीं

विभाजन की पीड़ा कोई बंद किताब नहीं है. यह आज भी हमें देख रही है, हमें परख रही है कि हमने इतिहास से सबक लिया या नहीं. मंडल का अनुभव और आंबेडकर की चेतावनी केवल पन्नों में कैद उद्धरण नहीं हैं, वे आने वाली पीढ़ियों को बचाने के लिए चेतावनी हैं. उन्हें अनसुना करना मतलब इतिहास को दोहराने की तैयारी करना है. अतीत का छल अगर वर्तमान में भी दोहराया गया, तो परिणाम पहले से भी भयावह होंगे, क्योंकि इस बार धोखा सिर्फ एक पीढ़ी नहीं, बल्कि आने वाले कई दशक भुगतेंगे.

(लेखक महामंत्री संगठन, भाजपा, उत्तर प्रदेश हैं.)

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Location :

New Delhi,Delhi

First Published :

August 14, 2025, 09:39 IST

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