One Nation One Election: अगर दुनिया के कुछ देशों में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं, तो भारत में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? यह बड़ा सवाल है, जिस पर इस टिप्पणी में गौर करेंगे. दूसरा सवाल भी है कि भारत में क्या ऐसा पहली बार होगा, जब एक देश एक चुनाव की व्यवस्था लागू होगी? जवाब है ऐसा नहीं है.
देश में अक्टूबर, 1951 में पहला चुनाव शुरू हुआ, जो फरवरी, 1952 में संपन्न हुआ. तब से ले कर साल 1967 तक चार आम चुनावों के साथ ही राज्यों के चुनाव भी संपन्न हुए. बाद में जनता के कांग्रेस शासन से मोहभंग की वजह से और कांग्रेस की केंद्र सरकारों के कई राज्यों में सत्ता का दुरुपयोग कर राष्ट्रपति शासन लगाने की वजह से आज यह नौबत आ चुकी है कि पूरा देश हर साल चुनावी मोड में ही डूबा रहता है.
देशहित बड़ा है या व्यक्ति हित?
अब मायावती की बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी ने भी साफ ऐलान कर दिया है कि वह देशहित में एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव का समर्थन करती है. जिन पार्टियों ने एक देश एक चुनाव का विरोध किया है, उनके तर्क निजी फायदे-नुकसान के आधार पर गढ़े गए हैं. क्या कोई व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी देश से ऊपर हो सकती है? देशहित बड़ा है या किसी व्यक्ति या पार्टी का हित? जवाब मुश्किल नहीं है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में देशहित ही सबसे ऊपर रहना चाहिए.
अब यह जान लेते हैं कि किस-किस देश में एक देश एक चुनाव की व्यवस्था लागू है. ये देश हैं स्वीडन, बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, इंडोनेशिया और फिलिस्तीन. मतलब यह हुआ कि एक देश एक चुनाव अभिनव विचार नहीं है और दुनिया में यह जमीनी स्तर पर लागू है. तो फिर भारत में एक साथ आम चुनाव और राज्य विधानसभाओं के चुनाव कराने में परेशानी क्यों होनी चाहिए?
बड़ा तर्क यह है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने से देश का बहुत सा पैसा बचेगा. उस पैसे से विकास के काम कराए जा सकेंगे. सर्फ इतना भर नहीं है. देश की कितनी श्रम शक्ति बचेगी, इसका भी अंदाजा लगाया जाना चाहिए. उस बची हुई श्रम शक्ति से कितने सकारात्मक काम किए जा सकते हैं, इसका सटीक आकलन अभी नहीं लगाया जा सकता, लेकिन इसका उपयोग देश के विकास की रफ्तार बढ़ाने के लिए ही होगा, इतना तय है.
इसके अलावा चुनावों की घोषणा के तत्काल बाद से ले कर चुनाव संपन्न होने तक केंद्र और राज्यों के स्तर पर विकास के नए कामों का ऐलान नहीं किया जा सकता, नई योजनाएं शुरू करने की घोषणा नहीं की जा सकती. यानी जहां चुनाव हो रहे होते हैं, वहां दो से तीन महीने तक विकास के नए काम शुरू नहीं किए जा सकते. क्योंकि बड़ी संख्या में राज्यों के कर्मचारी चुनावों के दौरान आयोग के अधीन काम करते हैं, लिहाजा गांव, ब्लॉक और जिलों में आम आदमी अपने छोटे-मोटे सरकारी कामों के लिए परेशान ही रहते हैं.
राज्यों में कई बार 36 का आंकड़ा…
एक और पहलू है, जिस पर गौर करना जरूरी है. आज के हालात में केंद्र और विपक्षी पार्टियों के शासन वाले कई राज्यों में 36 का आंकड़ा है. हालात इतने बदतर और शत्रुतापूर्ण हैं कि पश्चिम बंगाल और दिल्ली समेत कई राज्यों ने केंद्र सरकार की जन कल्याणकारी योजनाएं अपने यहां लागू नहीं की हैं. उनके मुखिया मानते हैं कि केंद्र की योजनाएं लागू करेंगे, तो जनता में केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के प्रति सहानुभूति बढ़ सकती है.
ऐसे राज्य हर स्तर पर केंद्र का गैर-जरूरी विरोध करते हैं. यह ऐसा है, जैसे दो लोगों या परिवारों के बीच किसी बात को ले कर निजी रंजिश होने की वजह से वे सुकून खो कर एक-दूसरे को नीचा दिखाने या नुकसान करने की ही फिराक में रहते हैं. उन दो लोगों के निजी झगड़े की वजह से आसपास के लोगों का भी सुकून छिन जाता है.
केंद्र और राज्यों के बीच झगड़े घटेंगे..
केंद्र और कुछ राज्यों के बीच के झगड़ों की वजह से भारतीय संविधान के संघीय ढांचे की मूल भावना को भी खासी चोट लगती है. देश के हर वक्त चुनावी मोड में रहने की वजह से राजनैतिक पार्टियों के बीच सद्भाव आज सबसे निचले स्तर पर है. टीवी न्यूज चैनलों पर होने वाली राजनैतिक बहसों में गाली-गलौज और मारपीट तक होने लगी है. बहुत से राजनैतिक बयानों की भाषा तो इतनी गैर-जिम्मेदार होती है कि टीवी चैनल उन्हें प्रसारत नहीं करते और अखबार उन्हें हू-ब-हू कोट करने में भी हिचकते हैं.
फिर जब एक साथ आम और विधानसभाओं के चुनाव होंगे, तो किसी राज्य के चुनाव नतीजे का असर दूसरे राज्य के चुनाव पर नहीं पड़ेगा. इससे चुनावी शुचिता बनी रहेगी. धन बल या शक्ति बल के दम पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति का ह्रास हो सकेगा. सुरक्षा बलों को बार-बार तैनाती के लिए इधर-उधर नहीं जाना पड़ेगा. इससे उन्हें वे काम करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा, जिनके लिए उनकी नियुक्ति की जाती है. इससे अपराध नियंत्रण के लिए पुलिस बल को ज्यादा वक्त मिलेगा.
एक देश एक चुनाव कानून लागू करना मुश्किल लेकिन..
यह सही है कि एक देश एक चुनाव कानून लागू करना बहुत आसान नहीं होगा और यह एकदम लागू भी नहीं हो पाएगा. रामनाथ कोविंद कमेटी के सामने कुल 32 पार्टियां इसके समर्थन में सामने आईं और 15 पार्टियों इसका विरोध किया. कुछ पार्टियों ने अपनी ओर से कोई राय नहीं दी. एक साथ चुनाव के मामले में राज्य विधानसभाओं से भी मंजूरी लेनी पड़ेगी. संविधान में करीब 18 संशोधन करने होंगे. इसके बावजूद अगर मोदी सरकार यह कानून लागू करने में कामयाब रहती है, तो यह बहुत से स्तरों पर देश के लिए बहुत हितकारी रहेगा.
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FIRST PUBLISHED :
December 17, 2024, 16:56 IST