19वीं सदी के आखिर में अमेरिका में एक अजीब और विवादास्पद नियम था, जिसे बाद में 'कुरूपता कानून' कहा गया. इस कानून के तहत अगर किसी शख्स का रूप-रंग उस वक्त के माने जाने वाले खूबसूरती के मेयार के मुताबिक नहीं होता था, तो यह जुर्म माना जा सकता था. कई शहरों और एक राज्य में ऐसे नियम थे, जिनमें जुर्माना और यहां तक कि जेल की सजा भी दी जाती थी. उस दौर में यह माना जाता था कि सोसाइटी में सिर्फ 'सुंदर' दिखने वाले लोग ही जगह पाने के काबिल हैं.
दरअसल, अमेरिका में 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में कुछ शहरों में ये अजीब कानून बनाए गए. इन कानूनों के तहत जिन लोगों के रूप-रंग या शारीरिक हालत उस वक्त के खूबसूरती मानकों के हिसाब से नाखुशगवार माने जाते थे. मिसाल के तौर पर इस के तहत बीमार या विकलांग लोगों कों सड़कों, पार्कों और पब्लिक प्लेसेस पर जाने से रोका जा सकता था.
हालांकि, इस तरह का ये सबसे पहला ऐसा कानून नहीं था. इससे पहले 1867 में सैन फ्रांसिस्को में भी इस तरह का कानून था. इस कानून के तहत अगर कोई भी बीमार या विकलांग शख्स सड़क या पार्क में दिखा, तो उसे सजा मिलती थी. इसके बाद में रेनो, पोर्टलैंड, लिंकन, कोलंबस, शिकागो, न्यू ऑरलियन्स और पेंसिल्वेनिया जैसे कई शहरों व राज्यों ने भी ऐसे नियम अपना लिए.
वहीं, शिकागो ने 1916 में यह कानून लागू किया, जिसमें कहा गया कि इसका मकसद शहर की सड़कों की 'कुरूपता' खत्म करना है. सुनने में लगता था कि यह ईंटों या कबाड़ जैसी चीज़ों के लिए है, लेकिन असल में निशाना जिंदा इंसान थे. इतना ही नहीं, कुछ लोग इन कानूनों को यह कहकर सही ठहराते थे कि इससे बीमारियां फैलने से रुकेंगी. यहां तक कि एक अजीब मान्यता, 'मातृ प्रभाव सिद्धांत', भी प्रचलित थी, जिसमें कहा जाता था कि प्रेगनेंट महिला अगर किसी बीमार या विकलांग शख्स को देख ले, तो उसका बच्चा भी बीमार पैदा हो सकता है.
'वह एक डरावना तजुर्बा है'
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में कला एवं मानविकी विभाग की डीन सुसान शॉ ने बीबीसी मुंडो से बात करते हुए कहा, 'तथाकथित 'कुरूपता कानून' नगरपालिका अध्यादेशों की एक सीरीज थी, जो कुछ शारीरिक विशेषताओं वाले लोगों के सार्वजनिक स्थानों पर जाने पर पाबंदी लगाती थी.' वे बताती हैं कि इनमें से पहला कानून 1867 में सैन फ्रांसिस्को में पारित किया गया था. 1906 में अमेरिकी धार्मिक नेता चार्ल्स हेंडरसन ने एक लेख में इस तरह के कानूनों की हिमायत की थी. उन्होंने लिखा कि किसी शख्स के सामने अगर किसी को मिर्गी का दौरा पड़ते देखना पड़े, तो वह एक डरावना तजुर्बा होता है, जिसे जिंदगीभर भुलाना मुश्किल है.
यह कानून महज इत्तफाक नहीं, बल्कि कुछ और था
वहीं, रिसर्चर श्विक बताती हैं कि यह कानून कोई इत्तफाक नहीं था कि ऐसे कानून अमेरिकी गृह युद्ध (1861-1865) के सिर्फ दो साल बाद बनने लगे. जंग में हजारों लोग जख्मी और माजूर (अपंग) हो गए थे. उसी वक्त, सैन फ्रांसिस्को में सोने की खोज के लिए आए विदेशी, खासकर चीनी रिफ्यूजू, की बड़ी भीड़ थी, और शहर की सड़कों पर कई जरूरतमंद लोग दिखते थे. चूंकि शहर जंग से दूर था, यहां ज्यादा जख्मी नहीं थे, इसलिए लोग मानते थे कि कई जख्मी दिखने वाले लोग असल में धोखेबाज हैं, जो काम करने के बजाय भीख मांगना पसंद करते हैं. हैरानी की बात है कि इन 'कुरूपता कानूनों' को कई कल्याणकारी संगठनों ने भी समर्थन दिया.
टेंपल यूनिवर्सिटी की रिसर्चर राकेल मंगोल के मुताबिक, इन कानूनों का इस्तेमाल समाज में 'कुरूप' माने जाने वाले लोगों को लंबे वक्त तक जेल या हॉस्पिटल में बंद रखने के लिए किया जाता था. नियमों में लिखा था कि सार्वजनिक जगहों पर दिखने वाले बीमार, Distorted या विकलांग व्यक्तियों पर जुर्माना और जेल या दोनों हो सकते हैं. श्विक कहती हैं कि इसका नतीजा यह हुआ कि इन कानूनों के शिकार लोग ऐसे स्थानों में सीमित कर दिए गए, जो रिफ्यूजी या गरीबों के लिए बने थे और वहां वे मानो आजीवन कैद में जीने को मजबूर हो गए.
'कुरूपता कानून' का मकसद क्या था?
हालांकि 'कुरूपता कानून' का मकसद कुछ ग्रुप्स को उनके एसथेटिक सेंस की कमी के कारण निशाना बनाना था, लेकिन एक्सपर्टस का मानना है कि उनका असली मकसद कुछ और ही था. राकेल मंगोल बताती हैं, 'इन कानूनों का शारीरिक आकर्षण से कोई लेना-देना नहीं था और इनका इस्तेमाल विकलांगों, बेघरों या मिर्गी जैसी बीमारियों से पीड़ित लोगों को सड़कों से हटाने के लिए किया जाता था.'
इस कानून के शिकार होने वाले ज्यदातर कौन लोग थे?
इस कानून के शिकार होने वाले ज्यदातर बेघर और विकलांग लोग गरीब थे, जिन्हें गुजारा करने के लिए भीख मांगनी पड़ती थी. लेकिन जो खुद को खूबसूरत कहते थे वे लोग उन्हें सड़कों पर देखकर असहज महसूस करते थे. यही वजह है कि उनके ऊपर न सिर्फ सड़कों, चौराहों या पार्कों में जाने पर पाबंदी लगा दी गई, बल्कि उन्हें भीख मांगने से रोक दिया गया. हालांकि, इन कानूनों से प्रभावित लोगों की सही तादाद किसी को पता नहीं है, क्योंकि न तो पुलिस और न ही अदालतों ने इनका रिकॉर्ड रखा. लेकिन, एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन कानूनों का असर सिर्फ इन्हीं लोगों तक सीमित नहीं था.
वो काला कानून जिसे भुलाया नहीं जा सका!
हालांकि, 20वीं सदी तक 'कुरूपता कानून' काफी हद तक खत्म हो चुका था. जबकि विकलांगता अधिकार आंदोलन के दबाव में 1970 के दशक में इन्हें निरस्त कर दिया गया.लेकिन ये कानून अभी काले इतिहास के पन्नों में दर्ज है.