झारखंड में नई विधानसभा के लिए 13 और 20 नवंबर को मतदान होना है. यह तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, चुनावी माहौल ज्यादा गर्म होता जा रहा है. चार नवंबर को प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झारखंड पहुंचे. उनसे पहले तीन नवंबर को अमित शाह राज्य में थे और पांच नवंबर को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पहुंचने वाले हैं.
भाजपा ‘रोटी, माटी, बेटी’ के नारे पर जोर दे रही है. सोमवार को पीएम मोदी ने भी गढ़वा में यही मुद्दा उठाया और इतवार को अमित शाह ने भी इसे उठाया था. शाह ने यह भी साफ कर दिया कि अगर राज्य में एनडीए की सरकार बनी तो समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू होगी और आदिवासियों को इसके दायरे से बाहर रखा जाएगा.
अमित शाह का यह ऐलान एक तीर से दो शिकार करने वाला है. यूसीसी लागू करने का वादा जहां भाजपा के कोर वोटर्स का उत्साह बढ़ाएगा, वहीं आदिवासियों को बाहर रखने की बात कह इस वर्ग के मतदाताओं को भी लुभाने की कोशिश की गई. आदिवासी मतदाता झारखंड में बड़ी अहमियत रखते हैं और भाजपा के लिए कुछ ज्यादा ही अहमियत रखते हैं.
झारखंड में आदिवासी मतदाता कितने महत्वपूर्ण हैं और भाजपा के लिए इन्हें अपने पक्ष में करना ज्यादा जरूरी क्यों है? समझते हैं.
81 में 28 सीटें एसटी (आदिवासियों) के लिए सुरक्षित
करीब ढाई दशक पुरानी झारखंड विधानसभा में कुल 81 सीटें हैं. इनमें से 28 अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हैं. इसका मतलब यह हुआ कि इन सीटों पर केवल एसटी उम्मीदवार ही खड़ा हो सकता है. साथ ही, यहां ज्यादातर वोटर्स भी एसटी वर्ग के ही होंगे. यानि, किसी भी पार्टी को इन सीटों पर जीत के लिए दमदार एसटी नेता भी चाहिए और मतदाताओं का साथ भी चाहिए. इन दोनों ही मामलों में पिछले चुनाव में भाजपा काफी पिछड़ी हुई थी.
2019 में भाजपा को भारी पड़ा था एसटी वोटर्स का इनकार
झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 के नतीजों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि एसटी वोटर्स का साथ नहीं मिल पाने के चलते ही भाजपा सत्ता से बाहर रह गई थी और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की अगुआई वाला गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहा था. इस गठबंधन में जेएमएम के साथ कांग्रेस और लालू प्रसाद का राष्ट्रीय जनता दल साझीदार थे.
2019 में सामान्य सीटों में से 17 पर भाजपा जीती थी. कांग्रेस (10) और जेएमएम (9) की कुल सीटों से महज दो पायदान पीछे थी भाजपा. अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित सीटों पर भी भाजपा का पलड़ा भारी रहा था. भाजपा ने छह एससी सीटें जीती थीं, जबकि मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन तीन पर ही रुक गया था. जेएमएम ने दो और राजद ने एक एससी सीट पर जीत हासिल की थी.
लेकिन, एसटी के लिए सुरक्षित सीटों पर हेमंत सोरेन की अगुवाई वाले गठबंधन ने एक तरह से क्लीन स्वीप कर लिया. भाजपा केवल दो एसटी सीटें जीत सकी. कांग्रेस छह और जेएमएम 19 सीटें जीत गईं. भाजपा की कुल जीती सीटों के बराबर जेएमएम-कांग्रेस ने अकेले एसटी सीटें जीत ली थीं.
ये आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि एसटी इस बार भाजपा के लिए कितनी अहमियत रखते हैं.
2019 चुनाव में एसटी सीटों के नतीजे दोनों पक्ष को रहेंगे याद
2005 से 2019 के बीच हुए झारखंड विधानसभा चुनाव परिणामों पर गौर करें तो 2019 में एसटी सीटों पर जेएमएम का प्रदर्शन सबसे शानदार था और भाजपा का सबसे खराब. जेएमएम के जहां 90 प्रतिशत उम्मीदवार जीते, वहीं भाजपा के 93 प्रतिशत हार गए थे. भाजपा का सबसे अच्छा स्ट्राइक रेट (44 प्रतिशत) 2014 में मोदी लहर के दौर में रहा था, जबकि जेएमएम ने 2019 से पहले 2005 में झारखंड के पहले चुनाव में ही एसटी सीटों पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन (60 फीसदी स्ट्राइक रेट) दिया था.
बीजेपी को भारी पड़ा प्रयोग
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को बहुमत मिला था. इसके बाद बीजेपी ने एक नया प्रयोग करते हुए पहली बार राज्य में गैर आदिवासी (रघुवर दास) को मुख्यमंत्री बनाया. एसटी वर्ग में इसका अच्छा संदेश नहीं गया. दास झारखंड में पांच साल का कार्यकाल करने वाले पहले मुख्यमंत्री बने. लेकिन, उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे विवादास्पद फैसले भी हुए, जिन्हें आदिवासियों के खिलाफ माना गया.
2014 में सत्ता मिलने के बाद बीजेपी ने आदिवासियों के साथ-साथ गैर आदिवासी मतदाताओं पर भी फोकस रखा था. इसकी वजह भी थी. राज्य में 46.1 फीसदी आबादी ओबीसी की है. अगर किसी पार्टी ने ओबीसी और एसटी को साध लिया तो उसका काम हो गया. शायद इसीलिए भाजपा सरकार ने गैर आदिवासियों को भी साधने की नीति अपनाई.
इस कड़ी में रघुबर सरकार ने एक बड़ा फैसला डोमिसाइल से संबंधित लिया. 2016 में लाई नई डोमिसाइल नीति के मुताबिक 30 साल से झारखंड में रह रहे और वहां अचल संपत्ति खरीद चुके लोगों को राज्य का निवासी मान लिया गया. उसी साल सरकार ऐसा कानून भी लेकर आई जिसके जरिए आदिवासियों की जमीनों को गैर आदिवासियों को बेचे जाने की प्रक्रिया ढीली की गई. हालांकि, आदिवासियों के काफी विरोध के बाद सरकार को इससे संबंधित कानून वापस लेना पड़ा था.
संभवत: इन्हीं फैसलों का खामियाजा 2019 में भाजपा को भुगतना पड़ा और इस बार ‘रोटी, बेटी, माटी’ के नारे पर जोर देकर वह उसकी भरपाई करना चाहती है.
झारखंड की कुल आबादी में से 66.2 फीसदी (2011 की जनगणना के मुताबिक) अनुसूचित जनजातियों की है. इनकी आबादी लगभग पूरे राज्य में फैली है. 24 में से 12 जिले ऐसे हैं जहां एसटी आबादी 25 प्रतिशत से अधिक है. केवल पांच जिले ऐसे हैं जहां दस प्रतिशत से कम एसटी आबादी है. ऐसे में एसटी को रिझाने के लिए राज्यस्तरीय मुद्दा ही उठाना पड़ेगा. इस लिहाज से भी यूसीसी का मुद्दा सटीक है.
यूसीसी के अलावा बीजेपी ने झारखंड में आदिवासियों की संख्या कम होते जाने को मुद्दा बनाया है. पार्टी का कहना है कि घुसपैठिये राज्य में आकर आदिवासियों की बेटियों से रिश्ता जोड़ रहे हैं और उनकी जमीन कब्जा रहे हैं. साथ ही, आदिवासियों के पलायन का मुद्दा भी उठाया जा रहा है.
बीजेपी के लिए चुनौती दोहरी है. एक तो उसे पिछली बार की तरह जेएमएम गठबंधन को आदिवासियों का समर्थन नहीं मिले, इसकी चिंता करनी है. दूसरा, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पक्ष में उपजी कथित सुहानुभूति लहर की काट भी ढूंढ़नी है. कथित घोटाले के एक मामले में हेमंत सोरेन की कुछ महीने के लिए हुई गिरफ्तारी को जेएमएम आदिवासी मुख्यमंत्री के खिलाफ केंद्र सरकार/भाजपा की साजिश के रूप में प्रचारित कर रही है. आदिवासियों ने जेएमएम के इस नैरेटिव को गांठ बांध लिया तो बीजेपी को इसका नुकसान झेलना पड़ सकता है.
जेएमएम के आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने के मकसद से भाजपा ने हेमंत सोरेन के पुराने सिपहसालार चंपाई सोरेन को अपने खेमे में किया है, लेकिन इससे काम बनेगा, इसकी निश्चिंतता नहीं समझी जा सकती. वजह यह कि चंपाई सोरेन मास लीडर नहीं माने जाते और उनका प्रभाव अपने क्षेत्र तक ही सीमित बताया जाता है.
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FIRST PUBLISHED :
November 4, 2024, 17:18 IST