तारीख में आज: 54 साल पहले इंदिरा गांधी के नाम पर हुई थी अनूठी वारदात

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Last Updated:May 24, 2025, 08:09 IST

Nagarwala Scandal: आज यानी 24 मई 1971 को उस घटना को हुए 54 साल हो रहे हैं, जिसने तब पूरे देश और उसके सियासी मानस को एक तरह से झकझोरकर रख दिया था. इस आधी सदी के दौरान कई चीजें बदल गई हैं, लेकिन पुराने लोगों को य...और पढ़ें

 54 साल पहले इंदिरा गांधी के नाम पर हुई थी अनूठी वारदात

बैंक को इंदिरा गांधी के नाम पर यह झांसा दिया गया था.

हाइलाइट्स

इंदिरा गांधी के नाम पर 60 लाख की ठगी हुई थी.नागरवाला स्कैंडल में इंदिरा गांधी पर आरोप लगे थे.नागरवाला की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी.

Nagarwala Scandal: यह स्कैंडल भारी-भरकम राशि (आज के हिसाब से 170 करोड़ रुपए से भी ज्यादा) के शामिल होने की वजह से तो सुर्खियों में आया ही, लेकिन इसके साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम जुड़ने से यह सियासी उठापटक की भी बड़ी वजह बन गया. विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर मामले में संलिप्तता का आरोप लगाया, लेकिन उन्होंने इसका खंडन करना तो दूर, संसद में जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा. घटना के करीब छह साल बाद जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मामले की जांच के लिए जस्टिस रेड्‌डी आयोग की नियुक्ति की. लेकिन आयोग भी विपक्ष द्वारा इंदिरा गांधी पर लगाए गए संलिप्तता संबंधी आरोपों को साबित नहीं कर पाया. अंतत: जनवरी 1980 में प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी की फिर से वापसी के बाद यह मामला अधिकृत तौर पर 15 जनवरी 1981 को बंद कर दिया गया.

क्या था पूरा मामला?

24 मई 1971 को नई दिल्ली के संसद मार्ग स्थित एसबीआई (जो उस वक्त इम्पीरियल बैंक कहलाता था) की शाखा में पदस्थ चीफ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा के पास एक फाेन आया. फोन पर पहले किसी शख्स ने स्वयं को प्रधानमंत्री का सचिव (पी.एन. हक्सर) बताकर बात की और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज की नकल करके. उनसे बैंक से 60 लाख रुपए निकालकर देने को कहा गया. मल्होत्रा के मुताबिक वह आवाज इंदिरा गांधी की आवाज से इतनी मेल खाती थी कि वे उसे सुनकर ‘मंत्रमुग्ध’ हो गए थे. इसलिए इंदिरा गांधी की आवाज में बात करने वाले शख्स ने जैसा बताया, वे वैसा ही करते गए. वे उच्च अधिकारियों को सूचित किए और लिखित आदेश के बिना सीधे पैसे निकालकर उस शख्स को थमा आए, जिसे देने के निर्देश फोन पर दिए गए थे. बाद में उस शख्स की पहचान पूर्व आर्मी कैप्टन रुस्तम सोहराब नागरवाला के रूप में हुई थी. उसे घटना वाले दिन ही रात को करीब 8 बजे गिरफ्तार कर लिया गया. अगले कुछ दिनों में अधिकांश राशि भी बरामद कर ली गई. बाद में उसने दावा किया था कि उसी ने इंदिरा गांधी और पी.एन. हक्सर की आवाज की नकल कर मल्होत्रा को झांसा दिया था.

न्यायिक सक्रियता की अभूतपूर्व मिसाल, मगर उठे सवाल

इतने बड़े मामले, जिसमें प्रधानमंत्री पर भी सवाल उठे, की जांच और मुख्य आरोपी को सजा दिलाने मंे जितनी सक्रियता दिखाई गई, वह भी अपने आप में एक अचरज पैदा करती है. बैंक के चीफ कैशियर के पास कथित फोन सुबह 11.45 बजे आया. उन्होंने दोपहर में 1 बजे तक निर्दिष्ट व्यक्ति तक 60 लाख रुपए पहुंचा दिए. झांसे का एहसास होने के बाद पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई गई और रात 8 बजे तक आरोपी नागरवाला को गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन यानी 25 मई को उसे अदालत में पेश किया गया और 27 मई की शाम को उसके कबूलनामे के आधार पर उसे सजा भी सुना दी गई (आईपीसी की धारा 419 और 420 के तहत दो साल का सश्रम कारावास और 2,000 रुपए का जुर्माना). यानी घटना घटित होने के 100 घंटे के भीतर ही आरोपी को गिरफ्तार करके अदालत में दोषी तक साबित कर दिया गया. केस की इतनी त्वरित सुनवाई की मीडिया में तीखी आलोचना हुई.यहां तक कि इसको लेकर विपक्षी नेता मोरारजी देसाई ने 3 जून 1971 को ‘दमदरलैंड’ अखबार में इस संबंध में एक लेख भी लिखकर पुलिस एवं न्यायिक सक्रियता की आलोचना की और कई सवाल उठाए.

एक आश्चर्यजनक बात यह भी थी कि बाद में ऊपरी अदालतों में इस सजा के खिलाफ सुनवाई हुई और दोषी नागरवाला को जमानत भी दे दी गई, लेकिन नागरवाला ने जमानत की पेशकश स्वीकार नहीं की. इसके बजाय उसने बैरक की ही एक सेल में रहने का विकल्प चुना. तिहाड़ जेल के उसके एक साथी कैदी की मानें तो नागरवाला ने जेल से बाहर निकलने का विकल्प इसलिए नहीं चुना, क्योंकि वह इस बात से डरा हुआ था कि उसे उच्च पदों पर बैठे लोगों के ‘एजेंट मार डालेंगे’.

बाद में इस घटना के एक साल के भीतर ही पुलिस हिरासत में 2 मार्च 1972 को नागरवाला की मौत हो गई. मौत की वजह दिल का दौरा पड़ना बताई गई. हालांकि यह मौत कई सवाल अधूरे छोड़ गई.

प्रकरण के दो अहम किरदार, और दोनों बर्बाद हो गए…

इस पूरे मामले में एक तरफ नागरवाला जैसा तेज-तर्रार व चालाक शख्स था, जिसे अपनी बात मनवाने के लिए झूठ बोलने से भी परहेज नहीं था तो वहीं दूसरी तरफ थे एसबीआई के भोले-भंडारी चीफ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा. 24 मई के टेलीफोन कॉल के बाद घटनाआें का जो सिलसिला सामने आया, उसने मल्होत्रा के इसी सीधेपन को उजागर किया था. उन्होंने शायद सोचा होगा कि अपनी त्वरित और असाधारण प्रतिक्रिया से वे देश के सबसे ताकतवर शख्स (प्रधानमंत्री) के करीब हो जाएंगे. लेकिन 46 साल का अनुभवी बैंकर इतना नासमझी भरा फैसला ले लेगा, ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी.

नागरवाला की गिरफ्तारी के पांच दिन बाद 29 मई को दिल्ली पुलिस ने मल्होत्रा को हिरासत में ले लिया और फिर 2 जून को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. जेल में एक सप्ताह रहने के बाद उन्हें 9 जून को सत्र न्यायालय ने जमानत दे दी.

मल्होत्रा के वरिष्ठ अफसर उन्हें एक कुशल अधिकारी मानते थे. चीफ कैशियर का पद बैंक द्वारा उनके लिए विशेष रूप से बनाया गया था. लेकिन गिरफ्तारी के बाद मल्होत्रा को एसबीआई ने निलंबित कर दिया. अदालत से बाइज्जत बरी होने के बाद भी उन्हें फिर से सेवा में नहीं लिया गया. अंतत: 10 नवंबर 1972 को बैंक ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. मल्होत्रा की पेंशन रोक दी गई और भविष्य निधि में जमा राशि भी उन्हें नहीं मिली. यह उस व्यक्ति के लिए बहुत अपमानजनक विदाई थी, जिसने जिंदगी भर कड़ा परिश्रम किया था.

इस पूरे प्रकरण के एक और महत्वपूर्ण किरदार मुख्य जांच अधिकारी व सहायक पुलिस अधीक्षक डी.के. कश्यप थे. सनसनीखेज मामले को चंद घंटों में ही सुलझा लिए जाने और अपराधी को सलाखों के पीछे भिजवा दिए जाने की वजह से 1967 बैच के युवा आईपीएस अधिकारी कश्यप अपने साथियों के बीच काफी मशहूर हो गए थे. 22 अक्टूबर 1971 को उनकी शादी हुई थी और इस शादी के करीब एक माह बाद 20 नवंबर को एक सड़क हादसे में उनकी मृत्यु हो गई.

इस युवा अधिकारी की असामयिक मौत ने शक-ओ-शुब्हा को और पुख्ता करने का काम किया. आम धारणा यह थी कि चूंकि वे इस पूरे प्रकरण के बारे में काफी कुछ जानते थे, इसलिए उन्हें रास्ते से हटा दिया गया. हालांकि किसी तरह से यह साबित नहीं हो पाया कि जिस हादसे में उनकी मौत हुई थी, उसमें किसी तरह की कोई साजिश थी. अगर कश्यप जीवित होते तो वे निश्चित ही दिल्ली पुलिस के आयुक्त बनते. लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था.

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रशीद किदवई

रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...और पढ़ें

रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...

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