सर क्रीक विवाद क्या है? पाकिस्तान 1914 का नक्शा पकड़े बैठा, 1925 का सच भूल गया

9 hours ago

ये ख़बर तो शायद आप जान गए कि राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को चेतावनी दे दी कि सर क्रीक पर कोई उल्टी-सीधी हरकत करने की सोचना भी छोड़ दे. लेकिन ज़्यादातर लोगों को इस सर क्रीक वाले मसले के बारे में ज़्यादा पता नहीं होता. मतलब पब्लिक ये तो शायद जानती है कि ये उधर गुजरात की तरफ़ के बॉर्डर पर है जहां पाकिस्तान से विवाद चलता रहता है लेकिन ये है कहां, और विवाद क्या है और विवाद शुरू कैसे हुए ये पब्लिक को ज़्यादा आइडिया नहीं होता. कश्मीर का तो फिर भी कई लोग जानते हैं कि मोटे तौर पर मसला क्या है लेकिन सर क्रीक की जानकारी होती भी है तो सरसरी होती है. तो ये समझने वाली बात है कि ये इलाक़ा अहम क्यों है और पूरी कहानी आख़िर है क्या, क्योंकि है तो देश की ज़मीन की बात.

तो पहले तो समझ लीजिये कि सर क्रीक है कहां पर? भारत पाकिस्तान का जो बॉर्डर है वो जम्मू कश्मीर से अगर आप लाइन शुरू करो तो चलते-चलते पंजाब, फिर राजस्थान और फिर जाता है गुजरात तक और ख़त्म कहां जा कर होता है? अरब सागर में. तो जिस जगह पर जा कर बॉर्डर ख़त्म होता है, वो जगह है सर क्रीक. सर क्रीक तो नाम अंग्रेज़ों ने दे दिया था, लोकल लोग उसको कहते थे बाण गंगा. जी, नाम है बाण गंगा. तो नाम से ही आप समझ गए कि वहां एक नदी टाइप का कुछ है. तो असल में ये एक नदी का मुहाना है समुद्र में गिरने का. यानी नदीं जहां समुद्र में गिरने वाली होती है वहां पर समुद्र का खारा पानी अंदर नदी की तरफ़ भी आ जाता है. तो ये नदी का एंड का वो वाला हिस्सा होता है जहां समुद्र का ज्वार भाटा अंदर आ जाता है. तो पानी यहां पर खारा ही हो जाता है.

मतलब समझ लीजिये कि साफ़ पानी समुद्र की तरफ़ आ रहा है तो इधर समुद्र टोटल शांत पड़ा हो किसी झील की तरह तब तो नदी का पानी आ कर समुद्र में सीधा मिल जाए. लेकिन समुद्र में तो लहरें उठती रहती हैं और ज्वार-भाटा आता रहता है तो उधर से साफ़ पानी आ रहा होता है तो समुद्र की तरफ़ से भी खारा पानी जा रहा होता तो समुद्र का पानी अंदर चला जाता है नदी के रास्ते में और लास्ट का जो नदी का हिस्सा होता उसमें खारा पानी मिक्स हो गया होता है. वैसा हिस्सा है ये सर क्रीक जिसको वहां के लोग कहते थे बाण गंगा. क्योंकि लगती तो चौड़ी-सी नदी थी, उसके किनारे भी हैं, लेकिन पानी होता है उसमें समुद्र का. वहीं जा कर भारत-पाकिस्तान का बॉर्डर ख़त्म हो रहा है. यानी बाण गंगा के एक तरफ़ भारत है, और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान है, और ये दोनों किनारे 96 किलोमीटर तक चलते हैं साथ-साथ, इधर भारत, उधर पाकिस्तान. और उसके बाद आगे समुद्र आ जाता है और दोनों किनारे अलग-अलग अपनी तरफ़ घूम जाते हैं.

ठीक है? तो प्रॉब्लम क्या है? भारत को तो कोई प्रॉब्लम नहीं, पाकिस्तान का अपना ही तर्क है. भारत का कहना है कि ये पाकिस्तान के किनारे की तरफ़ वाला बाण गंगा का आधा पानी वाला हिस्सा पाकिस्तान का और भारत के किनारे की तरफ़ वाला आधा पानी वाला हिस्सा भारत का. 96 किलोमीटर के बाण गंगा के रास्ते में बिलकुल बीच में अंग्रेज़ों ने खंभे भी लगा दिया थे. तो उन खंभो तक इधर से भारत, उधर से पाकिस्तान. और अंतर्राष्ट्रीय नियम भी यही कहते हैं कि कोई भी ऐसा पानी का हिस्सा जहां नाव चल सकती हो, उसके अगर दो किनारे अलग-अलग देशों में हों तो किनारे से पानी के नीचे बीच तक की ज़मीन एक देश की होती है और वहां से अगले किनारे तक दूसरे देश की होती है. लेकिन पाकिस्तान इसको नहीं मानता. अंग्रेज़ों ने पानी के बीच में खंभे लगाए हुए हैं तब भी नहीं मानता. उसका कहना है भारत का हिस्सा किनारे तक है, और भारत के किनारे से ही पाकिस्तान का बॉर्डर शुरू हो जाता है, मतलब पानी वाला पूरा हिस्सा पाकिस्तान का है सर क्रीक का, ऐसा उसका दावा है.

लेकिन वो ये दावा किस आधार पर करता है? जब अंतर्राष्ट्रीय नियम है कि कोई भी पानी का हिस्सा जिसपर नाव चल लकती हो और उसके दो किनारे हों तो पानी वाले के बीच से बॉर्डर खींचा जाता है तो पाकिस्तान कैसे कहता है कि बॉर्डर पानी के बीच से नहीं है बल्कि भारत वाली साइड के किनारे तक है? तो वो जो उसका आधार है वो दो वजह से है. पहली वजह तो अंतर्राष्ट्रीय नियम के एक पेच की वजह से है. पेच ये है कि पानी के बीच से बॉर्डर बनाने का अंतर्राष्ट्रीय नियम जो है वो उस पानी पर होता है जिसपर नाव चल सकती हो. और सर क्रीक ऐसा पानी का 96 किलोमीटर का हिस्सा है जिसमें गर्मियों के कुछ दिनों में पानी ज्वार-भाटा की वजह से समुद्र में चला जाता है और सर क्रीक में लेवल पानी का कम इतना कम हो जाता है जिसमें पुराने ज़माने में नाव नहीं चल सकती थी. यानी गर्मी के उन दिनों में वो दलदल बन जाता है, नावें फंस जाती हैं. हालांकि अब तो कहते हैं कि ऐसी नावें आ चुकी है जो वहां सारा साल चल सकती हैं, लेकिन ऐसा अंग्रेज़ों के ज़माने में नहीं था. तो पाकिस्तान की दलील ये है कि क्योंकि वो दलदल हो जाता है समुद्र का पानी नीचे जाता है तो उसमें बॉर्डर बीच से नहीं बनेगा बल्कि भारत के किनारे से बनेगा.

लेकिन फिर सवाल ये है कि अगर कुछ दिन वो दलदल भी हो जाता है तो बॉर्डर भारत के किनारे से क्यों बनेगा? पाकिस्तान के किनारे से क्यों नहीं बनेगा? तो वो दूसरी वजह जिसकी पाकिस्तान दलील देता है वो ये है कि ऐसा अंग्रेज़ों के ज़माने में तय हो गया था जब उन्होंने वो हिस्सा सिंध को दे दिया था कच्छ को नहीं. लेकिन पाकिस्तान की वो दलील भी सही नहीं है. ऐसा क्यों है वो समझने के लिए थोड़ा पीछा चलना पड़ेगा और समझना पड़ेगा कि अंग्रेज़ों ने क्या बंटवारा किया था? और पता है आपको इस सर क्रीक का बंटवारा क्यों हुआ था? लकड़ी के गठ्ठर को लेकर झगड़ा शुरू हुआ था. जी हां, चंद लकड़ियों का सवाल था और बात इतनी बढ़ गई थी कि अंग्रेज़ सरकार को बीच में आ कर बंटवारा करना पड़ा था सर क्रीक का. ये तो सब जानते है कि अंग्रेज़ों का राज था भारत पर. तो इस इलाक़े पर आ जाइए.

ये जो सर क्रीक है, जिसको अंग्रेज़ो से पहले बाण गंगा कहते थे, इसमें एक तरफ़ था सिंध और दूसरी था कच्छ. सिंध में मुस्लिम शासकों का राज था, उनको अमीर कहते थे. टालपुर राजवंश के अमीर थे सिंध के शासक. और कच्छ में हिंदू शासक थे जिनको राव कहते थे. तो इधर हिंदू राव महाराज, और उधर मुस्लिम अमीर थे. फिर 1843 में अंग्रेज़ों ने सिंध के अमीरों को हरा कर सिंध पर क़ब्ज़ा कर लिया. और वहां सीधा अंग्रेज़ सरकार का राज हो गया. फिर बॉम्बे प्रांत बनाया अग्रेज़ सरकार ने तो बॉम्बे प्रांत में इधर आज के महाराष्ट्र का काफ़ी इलाक़ा, आज के गुजरात के काफ़ी इलाक़े से लेकर सिंध तक का इलाक़ा था. कच्छ लेकिन उसमें नहीं था. कच्छ में राव महाराज का ही राज रहा, बस जैसे बाक़ी रजवाड़ों के साथ अंग्रेज़ों की डील थी कि लोकल लेवल पर शासन राजा का रहे औऱ बाक़ी डिफ़ेंस वगैरह के बड़े मसले अग्रेज़ देखते थे, वो कच्छ में भी था. तो ऐसा हो गया कि इस तरफ़ कच्छ के राव महाराज का इलाक़ा और बाण गंगा के उस तरफ़ डायरेक्ट अंग्रेज़ सरकार के अंडर वाला सिंध था जो बॉम्बे प्रांत का हिस्सा था.

तो 1908 में क्या हुआ कि अंग्रेज़ सरकार के कस्टम्ज़ विभाग का एक कर्मचारी था अहमद जुमा नाम का. वो बाण गंगा वाले इलाक़े से लकड़ियां ले जा रहा था. राव महाराज के सैनिकों ने उसे पकड़ लिया और हथकड़ी लगा दी, कि कच्छ के इलाक़े से कैसे लकड़ियां ले जा रहे हो? अब वो अंग्रेज़ सरकार का कर्मचारी था, इसलिए अंग्रेज़ सरकार को बीच में आना पड़ा. तो ख़ैर सरकार ने तय किया कि यहां पर कच्छ और सिंध के बीच बॉर्डर बना देते हैं नहीं तो ये तो झगड़े होते रहेंगे. करते-करते 1914 में सरकार ने एक दस्तावेज़ जारी किया जिसमें वही लिखा जो भारत कहता है कि पानी के बीच से बॉर्डर निकलेगा. लेकिन दिक़्क़त ये हो गई कि लिखा तो ये कि बॉर्डर पानी के बीच से निकलेगा, लेकिन जो नक़्शा बनाया उस दस्तावेज़ के साथ उसमें एक लाइन वहां बना दी जहां कच्छ की तरफ़ का किनारा है. मतलब नक़्शे में पानी वाला हिस्सा सिंध की तरफ़ था. लेकिन जो लिखा था उसमें ये था कि बॉर्डर बीच से होगा. पाकिस्तान उसी नक़्शे की दलील देता है. ये था 1914 में. लेकिन फिर उसी अग्रेज़ सरकार ने 1925 में एक और नक़्शा जारी किया जिसमें पानी के बीच में कच्छ और सिंध के बॉर्डर के मार्कर और खंभे दिखाए गए. तो भारत की दलील है कि 1925 में फ़ाइनल हो तो गया था. लेकिन पाकिस्तान 1914 के नक़्शे को पकड़े बैठा है.

और दूसरा तर्क वो ये देता है कि पानी के बीच वाला नियम तो वहां लागू होता है जहां नाव चल सकती हो, और यहां तो कुछ दिन साल में दलदल हो जाता है. लेकिन भारत का तर्क है कि एक तो ब्रिटिश सरकार के मार्कर वाला नक़्शा है 1925 वाला, और 1914 के समझौते की भी बात करो तो लिखा तो उसमें भी यही है कि बॉर्डर पानी के बीच से है, और लगभग सारा साल तो वहां नावें चलती ही हैं, बल्कि वहां तो मछुआरे जाते हैं दोनों देशों के, तो बॉर्डर तो दोनों के बीच ही हुआ. और सबसे बड़ी बात ये कि 1965 में जब भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ था उसके बाद एक अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्युनल बैठा था, यानी कि बाहर के देशों के लोगों की अदालत बैठी थी इस पर फ़ैसला करने के लिए. उसने कच्छ के रण का 90% हिस्सा भारत को सौंप दिया था. पाकिस्तान के दावे को ख़ारिज कर दिया था. लेकिन पाकिस्तान ये कहता है कि ट्रिब्युनल ने तो पूरे कच्छ के रण की बात की थी, सर क्रीक पर साफ़-साफ़ कुछ नहीं कहा था. मतलब पाकिस्तान का वही पुराना राग, कि युद्ध भी हार गया, अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्युनल पर भी राज़ी हो गया, लेकिन उसके फ़ैसले को भी अपने हिसाब से ही देखेगा, और फिर निकाल कर ले आता है 1914 का नक़्शा. यानी 1925 का नक़्शा नहीं मानता, 1968 के ट्रिब्युनल के फ़ैसले को नहीं मानता, बस अपना राग अलापता है. तो भारत ने भी साफ़ कर दिया कि अगर इस तरफ़ आंख उठाकर भी देखा तो जैसे 1965 में लाहौर तक सेना पहुंच गई थी, वो याद रखे कि इधर से सेना गई तो कराची तक पहुंच सकती है.

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