Sau Baat Ki Ek Baat: सौ बात की एक बात ये कि ट्रंप ने कह दिया कि उन्होंने BRICS देशों पर टैरिफ़ लगाकर उनके डॉलर को कमज़ोर करने के प्लैन को फ़ेल कर दिया. तो पब्लिक को ये समझ नहीं आ रहा कि डॉलर पर हमले का मतलब क्या हुआ? उसको ये समझने की ज़रूरत है कि डॉलर की मज़बूती आख़िर बनी कैसे थी और ट्रंप ये क्या कहना चाह रहे हैं कि डॉलर पर हमला करने का BRICS का प्लैन था.
BRICS के बारे में तो जैसा लोग जानते हैं कि ये संगठन है BRICS देशों का. B. R. I. C. S. यानी B से ब्राज़ील, R से रशिया, I से इंडिया, C से चाइना, और S से South Africa. ये संगठन बनाया था इन पांच देशों ने. पहले तो चार थे, ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन, और ये BRIC था. बाद में दक्षिण अफ़्रीका को भी जोड़ लिया गया और ये बन गया BRICS.
दुनिया में आर्थिक मामलों में पश्चिमी देशों की चलती
तो वो क्या था कि दुनिया में आर्थिक मामलों में पश्चिमी देशों की चलती थी, और IMF और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं पर पश्चिमी देशों का ही कंट्रोल था. फिर अमीर पश्चिमी देशों ने G-7 जैसा संगठन भी बना लिया था. यानी अमेरिका जो चाहता था वही होता था. 21वीं सदी आते-आते रूस और चीन की जब ताक़त बढ़ती गई और भारत और ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था भी मज़बूत होती गई तो इन देशों ने मिलकर पश्चिमी देशों से अलग ये संगठन बनाया ताकि ये आपस में व्यापार और बढ़ाएं और अपनी फ़ंडिंग के लिए भी अपना एक संगठन खड़ा करें यानी वर्ल्ड बैंक की तरह अपना एक डेवलपमेंट बैंक ताकि अमेरिका और यूरोप के देशों के फ़ैसलों का मोहताज ना रहना पड़े.
फिर साउथ अफ़्रीका भी साथ आ गया. और अब तो इसमें चार और देश जुड़ चुके हैं, ईरान, UAE, मिस्र और इथियोपिया. तो ये एक तरह से अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी देशों यानी G-7 के सामने खड़ा एक व्यापार और आर्थिक मामलों का संगठन बन गया. फिर ब्राज़ील ने यह कहकर अमेरिकी में खलबली मचा दी थी कि ब्रिक्स अपनी एक कॉमन करंसी पर भी विचार कर रहा है. हालांकि बाक़ी देशों ने ऐसा कुछ नहीं कहा, बल्कि पुतिन ने तो ये तक कह दिया कि ऐसा कोई विचार नहीं है. लेकिन खलबली मच गई थी. क्योंकि अपनी करंसी बनाने का मतलब है कि एक और बड़ी करंसी दुनिया में आ जाना. हालांकि ना ऐसा कुछ हुआ और ना ऐसा अभी बहुत जल्दी कुछ होता दिख रहा है लेकिन ये समझने की ज़रूरत है कि अमेरिका इससे क्यों परेशान है.
क्यों परेशान है अमेरिका
क्योंकि अमेरिका की सारी ताक़त है उसकी करंसी से. यानी डॉलर से. दुनिया का ज़्यादातर कारोबार डॉलर में होता है. मतलब किसी देश से कुछ लो तो उसको डॉलर में पेमेंट करनी पड़ती है. मतलब जैसे भारत कच्चा तेल ख़रीदता है, या हथियार ख़रीदता है या देश ही नहीं लोग भी कुछ विदेश से ख़रीदते हैं तो डॉलर देने पड़ते हैं. अमेरिका से ही नहीं, कहीं से भी. सऊदी अरब से भी तेल लो तो वो भी डॉलर में पेमेंट लेता है, कहीं से कुछ भी लो तो पहले रुपये के बदले में डॉलर लो, फिर डॉलर बेचकर उस देश की करंसी लो और उसको पेमेंट करो या फिर उसको सीधे डॉलर दे दो. ज़्यादातर देशों में ये हिसाब चलता है. वैसे अब यूरोप के देशों ने भी अपनी-अपनी मुद्रा छोड़कर यूरो बना लिया है तो वो यूरो में कारोबार करते हैं, लेकिन ज़्यादातर देश डॉलर ही लेते हैं. तो ये समझने की ज़रूरत है कि ऐसा क्यों है?
तो वो क्या था कि दूसरी वर्ल्ड वॉर में बाक़ी सब देशों की अर्थव्यवस्था को तो काफ़ी झटका लगा था. जो देश वर्ल्ड वॉर हारे थे उनको तो नुक़सान हुआ ही था, जो देश वर्ल्ड वॉर जीते थे उनका भी वॉर में बहुत ख़र्चा हो गया था तो उनकी भी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई थी. अमेरिका वर्ल्ड वॉर के लास्ट में आ कर परमाणु बम फोड़ कर जीतने वाली साइड भी था और उसकी अपनी धरती पर तो जंग हुई नहीं थी. तो उसकी अर्थव्यवस्था अकेली मज़बूत और बड़ी अर्थव्यवस्था बची थी. तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार के लिए देशों को ऐसी कोई चीज़ चाहिए थी ना जिसकी वैल्यू ऐसी ना गिर जाए कि नुक़सान ही हो जाए. या तो ये हो सकता था सोना. कि किसी को कुछ लेना है तो सोना दे कर लो, क्योंकि सोना तो ऐसी चीज़ है जिसकी वैल्यू बनी रहती है. तो अमेरिका ने क्या किया कि अपनी करंसी यानी डॉलर की वैल्यू सोने के साथ जोड़ दी कि सोने की क़ीमत के साथ ही मोटे तौर पर डॉलर की क़ीमत जुड़ी रहेगी. और अमेरिका के पास सोना था भी दुनिया में सबसे ज़्यादा.
डॉलर मतलब सोना
यानी डॉलर लेना मतलब सोना लेने जैसा हो गया. तो दुनिया भर के देशों में बैंकों में लेन-देन डॉलर में होने लगा. देश अपने भंडार में सोने के साथ-साथ डॉलर रखने लगे. तो ये तब से चल रहा है. मतलब चीन से समझो आपने कोई सामान मंगवाया. तो अगर आपने उसकी पेमेंट रुपयों में कर दी, तो चीन उन रुपयों का क्या करेगा? कहीं और से तो रुपयों में वो कुछ ले नहीं सकता. भारत से ही ले सकता है. या चीन की करंसी युआन में अगर पेमेंट करना चाहो तो आपके पास युआन आएंगे कहां से? या फिर पेमेंट सोना देकर करो, क्योंकि वो तो कहीं भी चल सकता है. लेकिन डॉलर एक ऐसी करंसी बन गया जो सब देश लेने लग गए. और इसलिए उसको अपने यहां जमा भी करने लग गए. ताकि ज़रूरत पड़ेगी तो वो कहीं भी काम आ जाएगा.
डॉलर भी रखते हैं देश, सोना भी रखते हैं. अब तो यूरो भी रखते हैं क्योंकि यूरो यूरोप के काफ़ी देशों में चलता है. लेकिन फिर यूरो उतना नहीं रखते जितना डॉलर रखते हैं क्योंकि डॉलर तो सब जगह चलता है. जैसे समझो आपको चीन से कुछ लेना है और आपने यूरो में पेमेंट कर दी, तो वो यूरो चीन के काम आ सकते हैं अगर उसको यूरोप से कुछ लेना हो तो वो यूरो में पेमेंट कर सकता है. तो डॉलर सबसे ज़्यादा चलता है, सोना तो चलता है ही, यूरो भी चलता है, थोड़ा बहुत ब्रिटेन का पाउंड भी चलता है. और अब तो कई देश अपने भंडार में थोड़ा-बहुत चीन की करंसी भी रखने लग गए हैं क्योंकि चीन से तो सबको कुछ ना कुछ लेना ही पड़ता रहता है ये ताक़त हो गयी है चीन की, तो उसकी करंसी भी काम आ जाती है.
सबसे ज्यादा डॉलर चलता है
लेकिन सबसे ज़्यादा तो अब भी डॉलर ही चलता है. और इस वजह से डॉलर की मांग दो दशकों से बनी हुई है. डिमांड हमेशा रहती है. डॉलर की डिमांड रहने का मतलब है कि अमेरिका की ताक़त तो उसी से बनी हुई है. बाक़ी सारे देश इसी जुगत में लगे रहते हैं कि एक डॉलर के मुक़ाबले उनकी मुद्रा की क़ीमत कितनी है. तो ये एक बड़ी वजह है कि अमेरिका महाशक्ती बना हुआ है. रूस के भी यूरोप और अमेरिका के बैंको में करोड़ों डॉलर जमा पड़े थे क्योंकि उसको भी व्यापार में डॉलरों की ज़रूरत पड़ती थी. लेकिन जब यूक्रेन युद्ध हुआ तो अमेरिका और यूरोप के देशों ने उसके अकाउंट फ़्रीज़ कर दिये यानी उसके डॉलर फंस गए वहां के बैंकों में. भारत जो रूस से तेल लेता है तो ये डील है कि भारत उसको रुपयों में पेमेंट करता है और वो भारत से कुछ लेता है तो अपनी करंसी रूबल में पेमेंट करता है. तो वो तो ठीक है लेकिन इन रुपयों का और रूबलों का भारत और रूस आपस में ही तो इस्तेमाल कर सकते हैं, और कहीं तो काम नहीं सकते.
इसलिए, ब्राज़ील की तरफ़ से ये बात उठी थी BRICS देश भी क्यों ना अपनी एक करंसी बना लें और आपस में इसी करंसी में व्यापार करें? यानी ब्राज़ील से कुछ लेना हो, या रूस से कुछ लेना हो, या चीन से, या भारत से, या दक्षिण अफ़्रीका से, तो आपस में लेन-देन करने में तो डॉलर की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी. चीन से बहुत कुछ चाहिए होता है, भारत से कई देशों को आईटी में बहुत कुच चाहिए होता है, रूस के पास तेल है, ऐसे ही बहुत सारी चीज़ों का व्यापार हो सकता है. और अब तो BRICS में ईरान भी है, और UAE भी है. और भी कई देश शामिल होना चाहते हैं. हालांकि अभी करंसी की बात ब्राज़ील ने ही की थी लेकिन अगर ऐसा हो जाए तो क्या होगा? डॉलर की डिमांड तो कम हो जाएगी. यानी समझो भारत और चीन या दक्षिण अफ़्रीका और रूस के बीच कुछ कारोबार हो रहा है तब भी उसमें फ़ायदा अमेरिका का हो रहा है क्योंकि लेन-देन डॉलर में हो रहा है.
तो ये सिचुएशन तो नहीं रहेगी अगर इनकी अपनी एक ही करंसी हो जाए. और ये मज़बूत अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं. तो डॉलर की डिमांड कम हो जाएगी. डॉलर की डिमांड कम हो जाएगी मतलब उसकी वैल्यू कम हो जाएगी. क्योंकि जिस चीज़ की मांग होती वो महंगी हो जाती है और जिस चीज़ की मांग कम हो जाती है वो सस्ती हो जाती है, ये तो बाज़ार का नियम है. तो ये डर है अमेरिका का. यानी अभी कुछ हुआ भी नहीं लेकिन इसी का हव्वा खड़ा कर दिया ट्रंप ने और कह दिया कि ये लोग तो मिल कर डॉलर पर अटैक करने वाले थे. उनका कहना है कि टैरिफ़ लगा कर उन्होंने ये होने से रोक दिया क्योंकि ये सारे देश डर गए कि अमेरिकी से व्यापार में नुक़सान हो जाएगा. अमेरिका को अपने टैरिफ़ लगाने की अब ट्रंप ये थ्योरी बेच रहे हैं. तो भले ही ऐसा कुछ अभी हुआ ना हो, लेकिन इसलिए सबको ये ख़बर समझने की ज़रूरत है. सौ बात की एक बात.
न्यूज़18 को गूगल पर अपने पसंदीदा समाचार स्रोत के रूप में जोड़ने के लिए यहां क्लिक करें।

11 hours ago
