100 साल का हुआ RSS: मोहन भागवत बोले हिंदू मुस्लिम एक ही मिट्टी की संतान

4 hours ago

100 Years of RSS: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे होने जा रहे हैं. इस अवसर पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में अगस्त के अंतिम सप्ताह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की एक व्याख्यानमाला आयोजित की गई. यह व्याख्यानमाला केवल एक औपचारिक आयोजन भर नहीं थी. यह कई मामलों में संघ की सोच को उजागर करने वाली थी. कई मिथ और भ्रम को तोड़ने वाली थी. तीन दिनों तक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जिस स्वर में राष्ट्र, समाज और भविष्य की दिशा पर विचार रखे, उनमें सबसे अधिक चर्चा हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर उनकी टिप्पणी ने बटोरी. दशकों से यह धारणा मजबूत रही है कि संघ मुसलमानों को स्वीकार नहीं करता, बल्कि उन्हें संदेह और दूरी की दृष्टि से देखता है. लेकिन विज्ञान भवन से उठी आवाज ने इस मिथक को चुनौती दी और एक नए संवाद की संभावना जगाई. मोहन भागवत ने स्पष्ट शब्दों में कहा – “भारत के मुसलमान किसी और देश से नहीं आए. वे इसी भूमि के वंशज हैं. हिंदू और मुसलमान के पूर्वज अलग नहीं हैं. सब भारत माता की संतान हैं.” यह कथन केवल किसी समुदाय को दिलासा देने वाला बयान नहीं था. यह उस वैचारिक दीवार को तोड़ने का प्रयास था, जिसे संघ के आलोचक वर्षों से मजबूत करते आए हैं.

भारतीय राजनीति और सामाजिक विमर्श में संघ को अक्सर मुसलमान-विरोधी संगठन के रूप में प्रस्तुत किया गया. विभाजन की त्रासदी, पाकिस्तान का निर्माण और समय-समय पर पनपती अलगाववादी प्रवृत्तियां इस धारणा को और गाढ़ा करती रहीं. लेकिन संघ के चिंतन की जड़ें इससे कहीं गहरी हैं. संघ का कहना हमेशा रहा है कि राष्ट्रीयता का आधार धर्म नहीं, संस्कृति और मातृभूमि है. भागवत ने विज्ञान भवन के मंच से इसी विचार को और स्पष्ट करते हुए कहा, “हमारी पहचान धर्म से नहीं, मातृभूमि से है. अलग-अलग मजहबों के रास्ते हो सकते हैं, लेकिन मंज़िल वही भारत है और भारत को ही सबका साझा घर बनाना है.”

यह वक्तव्य सुनते ही यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि यह विचार संघ के भीतर शुरू से था, तो फिर समाज में संघ की छवि इतनी विपरीत कैसे बनी? इसका उत्तर शायद राजनीति की उस प्रवृत्ति में छिपा है, जहां हिंदू-मुस्लिम विभाजन को सत्ता प्राप्ति का आसान हथियार मान लिया गया. संघ को कठोर और मुसलमानों से दूरी बनाए रखने वाला संगठन बताना राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बना और धीरे-धीरे यही छवि आम नागरिकों की सोच में बैठ गई. यही वजह है कि भागवत ने अपने वक्तव्यों में “साझा पूर्वज” की धारणा पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा, “हमारे खून में कोई फर्क नहीं है. जिनके पूर्वज राम थे, वही पूर्वज रहीम भी हैं. नाम बदल गए, मजहब बदल गए, पर मिट्टी तो वही है और मिट्टी से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता.”

यह कथन केवल इतिहास का स्मरण नहीं है. यह एक मनोवैज्ञानिक सूत्र भी है, जो हिंदू मुसलमान के विभाजन की खाई को पाटने में मदद कर सकता है. जब दो समुदाय खुद को एक ही पूर्वजों का वंशज मानने लगें, तो संवाद की शुरुआत कहीं अधिक सहज हो जाती है. यह विचार हिंदू समाज को भी उतना ही संबोधित करता है जितना मुसलमानों को. संघ पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों के बीच जाकर उनसे संवाद का प्रयास कर रहा है. संघ प्रमुख मोहन भागवत लगातार मुस्लिम धर्म गुरुओं और विद्वानों से मिल रहे हैं. संघ का मूल स्वप्न भारत को विश्वगुरु बनाना है. लेकिन इस बार भागवत ने पहली बार यह स्वीकारोक्ति सार्वजनिक रूप से की कि यह सपना हिंदू और मुसलमान दोनों के मिलकर चलने से ही साकार हो सकता है. उन्होंने कहा, “यदि हम बंटे रहेंगे तो विश्वगुरु का सपना कभी पूरा नहीं होगा. हमें सबको मिलकर आगे बढ़ना होगा.” भारत के पास योग, आयुर्वेद, अध्यात्म, विज्ञान और लोकतांत्रिक परंपराओं की शक्ति है. लेकिन यदि आंतरिक रूप से समाज धार्मिक आधार पर बंटा रहेगा, तो यह शक्ति कभी विश्व नेतृत्व में नहीं बदल पाएगी. इस संदर्भ में संघ का यह संदेश विशेष महत्व रखता है.

यह प्रश्न भी उठता है कि क्या संघ सचमुच बदल रहा है या वही पुराना विचार नई भाषा में व्यक्त कर रहा है. समर्थक मानते हैं कि यह उसका मूल चिंतन ही है, बस अब संवाद की भाषा में सामने आ रहा है. आलोचक कहते हैं कि समय और परिस्थितियों ने संघ को यह रुख अपनाने पर मजबूर किया है. लेकिन हकीकत यह है कि संघ का शीर्ष नेतृत्व समझ रहा है कि संवाद और समन्वय के बिना भारत की एकता और अखंडता संभव नहीं। यह बदलाव केवल संघ के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए आवश्यक है.

फिर भी, यह रास्ता आसान नहीं है. पहली चुनौती है विश्वास का संकट। मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा अब भी संघ की नीयत पर शंका करता है. उनके लिए यह मानना कठिन है कि जो संगठन दशकों से उनकी आलोचना करता रहा, वही अब संवाद की बात कर रहा है. दूसरी चुनौती है कट्टरपंथ की दीवार. हिंदू और मुस्लिम, दोनों पक्षों के कट्टरपंथी इस संवाद को नाकाम करने की कोशिश करेंगे. उनकी राजनीति और पहचान ही इस विभाजन पर टिकी है. तीसरी चुनौती है राजनीतिक स्वार्थ. लंबे समय से भारतीय राजनीति हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर फलती-फूलती रही है. जिसका फायदा कुछ विशेष राजनीतिक दलों को होता है. ऐसे में इस संवाद को स्थाई बनाना उनके लिए खतरे की घंटी होगी.

प्रश्न यह भी है कि क्या मुस्लिम समाज संघ की इस पहल को गंभीरता से लेगा? भागवत के शब्दों को केवल ‘राजनीतिक बयान’ मानकर खारिज कर देना आसान होगा, लेकिन यह ऐतिहासिक अवसर भी हो सकता है. मोहन भागवत ने कहा, “किसी को डरने की ज़रूरत नहीं है. आप अपने धर्म का पालन कीजिए, अपनी नमाज़ पढ़िए, अपनी परंपराओं को निभाइए. बस इतना कीजिए कि भारत को अपनी मातृभूमि मानकर उसके हित को सर्वोपरि रखिए.” यह वाक्य इस बात का प्रमाण है कि संघ मुसलमानों से उनकी धार्मिक पहचान छोड़ने की मांग नहीं कर रहा. वह केवल इतना चाहता है कि सभी समुदाय भारत की राष्ट्रीय एकता और समृद्धि में साझेदार बनें.

विज्ञान भवन के मंच से उठे स्वर हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या यह भारत के इतिहास का नया अध्याय हो सकता है. क्या सचमुच वह समय आ गया है जब हम अतीत की पीड़ाओं और राजनीति की दीवारों से आगे निकलकर एक साझा भविष्य की ओर बढ़ें? इसका जवाब मोहन भागवत ने दिया, “हम एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं. भारत पूर्ण तभी होगा जब हर समुदाय, हर धर्म, हर संस्कृति एक साथ खड़ी होगी.” यह केवल संघ का संदेश नहीं, बल्कि भारत की नियति का आह्वान है.

संघ ने अपने शताब्दी वर्ष की शुरुआत हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर संवाद की बात करके की है. यदि यह संवाद केवल शब्दों तक सीमित न रहकर व्यवहार में उतर जाए तो यह भारत की सबसे गहरी सामाजिक-सामुदायिक खाई को पाट सकता है. संघ की ओर से यह पहल एक ऐतिहासिक शुरुआत है. अब देखना यह है कि मुस्लिम समाज इसे कैसे स्वीकार करता है और संघ अपने स्वयंसेवकों को किस हद तक इस नई दिशा में ढाल पाता है.

यह सच है कि भारत का भविष्य तभी सुरक्षित और गौरवशाली होगा, जब यह भूमि अपनी उसी सनातन पहचान को फिर से जगा पाएगी. जहां हर धर्म, हर संस्कृति और हर परंपरा को समान स्थान है. यही मार्ग हमें विश्वगुरु की ओर ले जाएगा और शायद यही मोहन भागवत की तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का सबसे बड़ा संदेश भी है.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

ब्लॉगर के बारे में

अनिल पांडेय

अनिल पांडेय

अनिल पांडेय मीडिया रणनीतिकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह जनसत्ता से लेकर स्टार न्यूज और द संडे इंडियन के साथ काम कर चुके हैं। देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक नब्ज को अच्छे से समझने वाले चुनिंदा पत्रकारों में शुमार हैं।

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