2019 के लोकसभा चुनाव को ग्वालियर का राजपरिवार भुलाने की कोशिश करेगा तो भी शायद ही इस राजनीतिक हादसे को कभी भूल पाए. गुना यानी ग्वालियर यूनाइटेड नेशनल आर्मी- ये गुना जिले का फुल फार्म है. ये आजादी से पहले सिंधिया राजघराने और ग्वालियर महल की सेना का नाम था. तो मध्य प्रदेश के उत्तर में बसे गुना-शिवपुरी लोकसभा क्षेत्र में कभी किसी राजनीतिक दल का वर्चस्व नहीं रहा है. यहां वर्चस्व उसी का रहा है, सिंधियाओं ने जिस पार्टी से चुनाव लड़ा या जिस किसी को समर्थन दिया है. और 2019 में इस संसदीय क्षेत्र के इतिहास में हुए उन्नीसवें चुनाव में कांग्रेस के सिंधिया यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा के उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा था. मोदी लहर में ज्योतिरादित्य सिंधिया करीब सवा लाख वोटों से चुनाव हार गए थे. अब ज्योतिरादित्य सिंधिया इस बार गुना से भाजपा के उम्मीदवार हैं और इस लिहाज से अब कांग्रेस में कोई सिंधिया नहीं बचा है.
2019 में सिंधिया को कभी उनके ही समर्थक रहे कृष्णपाल सिंह यादव ने भाजपा के टिकट पर टक्कर दी थी. तब शायद भाजपा को भी यह कल्पना नहीं थी कि गुना में कोई अनहोनी होने जा रही है. इस बार सिंधिया के लिए भाजपा ने केपी यादव का टिकट काट दिया. पार्टी ने उन्हें उनकी दूसरी भूमिका के लिए आश्वस्त किया है. केपी यादव को भाजपा ने होशंगाबाद लोकसभा सीट के लिए प्रभारी बना कर भेज दिया है. गुना शिवपुरी लोकसभा सीट पर तीसरे चरण में 7 मई को मतदान होगा.
सिंधिया के कारण हिन्दू महासभा का असर
ग्वालियर रियासत में राज परिवार का जबरदस्त असर था. 1952 में जब पहला आम चुनाव हुआ था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि ग्वालियर महाराज जिवाजी राव सिंधिया खुद चुनाव लड़ें. लेकिन तब सिंधिया राजघराना राजनीति से दूर रहा लेकिन राजपरिवार का समर्थन हिन्दू महासभा को मिला. नतीजा यह हुआ कि ग्वालियर और गुना दोनों संसदीय क्षेत्रों में हिन्दू महासभा के उम्मीदवार चुनाव जीते. इसके अलावा रियासत के दूसरे क्षेत्रों उज्जैन, मंदसौर में भी हिन्दू महासभा का अच्छा असर रहा. 1957 का चुनाव ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया ने यहां से लड़ा और कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर वे चुनाव जीतीं. विजयराजे सिंधिया 1962 में राज्य विधानसभा में चली गर्इं तब कांग्रेस से उनकी ही पसंद के उम्मीदवार रामसहाय पांडे यहां से चुनाव जीते. 1967 में सिंधिया ने जनसंघ के सहयोग से मध्य प्रदेश में कांग्रेस की द्वारकाप्रसाद मिश्र सरकार को गिरा दिया. और तब कांग्रेस में हुई बगावत के बाद ठाकुर गोविंद सिंह जनसंघ के सहयोग से मुख्यमंत्री बने. 2020 में राजमाता के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपनी दादी के नक्शेकदम पर चलते हुए कमलनाथ की कांग्रेस सरकार को गिराने का करिश्मा कर दिखाया. मध्य प्रदेश में अब तक दो कांग्रेस सरकारें ही दलबदल से गिरीं और दोनों को गिराने में सिंधिया राजघराने का ही हाथ रहा.
2019 में टूटा एकछत्र साम्राज्य
1967 में विजयराजे सिंधिया ने गुना से दूसरी बार स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा का चुनाव लड़ा, बाद में उनके इस्तीफे के बाद आचार्य जेबी कृपलानी ने भी स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर विजयराजे सिंधिया के सहयोग से लोकसभा का चुनाव जीता. 1971 में विजयराजे सिंधिया के पुत्र माधवराव सिंधिया यहां से अपना पहला चुनाव जनसंघ के उम्मीदवार के तौर पर जीते. इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में माधवराव सिंधिया यहां से दूसरी बार निर्दलीय उम्मीदवार के तौर चुनाव जीते.
1980 में माधवराव सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गए और जीत हासिल की. यहां से सिंधियाओं का पहला राजनीतिक बंटवारा हुआ. मां राजमाता विजयराजे सिंधिया तब विपक्ष की बड़ी नेता थीं और बेटा माधवराव सिंधिया कांग्रेस में अपनी जगह बना रहा था. 1984 में माधवराव सिंधिया को राजीव गांधी ने अचानक ग्वालियर पहुंचा कर भाजपा के शीष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के सामने चुनाव लड़वा दिया. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर और ग्वालियर राजघराने की राजनीतिक ताकत के आगे अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव हार गए. यह वो साल था, जब देश भर में भाजपा के केवल दो उम्मीदवार ही चुनाव जीते थे. तब माधवराव सिंधिया ने गुना से अपने एडीसी महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा को लोकसभा में पहुंचा दिया था. माधवराज सिंधिया ने लोकसभा में चार बार इस सीट का प्रतिनिधित्व किया. छह बार विजयाराजे सिंधिया ने यहां से चुनाव जीता.
पिता माधवराव सिंधिया की हवाई दुर्घटना में मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव सहित कुल चार बार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना सीट का प्रतिनिधित्व कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर किया. सिंधिया घराने ने कुल चौदह बार इस सीट से प्रतिनिधित्व किया है. पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने यहां से कुल आठ चुनाव जीते तो भाजपा ने अब तक पांच बार चुनाव जीता है. इनमें से चार बार भाजपा की उम्मीदवार विजयाराजे सिंधिया रही हैं.
गुना का इतिहास
गुना, शिवपुरी और अशोकनगर जिले के आठ विधानसभा क्षेत्रों से मिलकर बने गुना संसदीय क्षेत्र में दिसम्बर 2023 में हुए विधानसभा चुनाव में छह सीटों में से तीन शिवपुरी, पिछोर और कोलारस पर भाजपा का कब्जा है. गुना जिले की दो सीटों में से एक गुना में भाजपा तो दूसरी बमोरी में कांग्रेस जीती थी. अशोक नगर की तीन सीटों में मुंगावली और चंदेरी में भाजपा का कब्जा है तो अशोकनगर पर कांग्रेस का. यानी आठ में से छह सीटें भाजपा और दो सीटें कांग्रेस के पास हैं. गुना जिले का वर्तमान मुख्यालय गुना शहर में 5 नवंबर, 1922 को स्थापित हुआ था.
19वीं सदी के पूर्व गुना ईसागढ़ (अब जिला अशोकनगर में स्थित) जिले का एक छोटा-सा गांव था. ईसागढ़ को सिंधिया के सेनापति जॉन वेरेस्टर फिलोर्स ने खींचीं राजाओं से जीता और प्रभु यीशू के सम्मान में इसका नाम ईसागढ़ रखा. 1844 में गुना में ग्वालियर रियासत की फौज रहती थी, जिसके विद्रोह करने के कारण 1850 में इसे अंग्रेजी फौज की छावनी में तब्दील किया गया. 1922 में छावनी को गुना से ग्वालियर स्थानांतरित कर दिया गया और 1922 में जिला मुख्यालय बजरंगढ़ से गुना स्थानांतरित कर दिया गया. 1937 में जिले का नाम ईसागढ़ के स्थान पर गुना रखा गया तथा ईसागढ़ एवं बजरंगढ़ को यहां की तहसील बनाया गया. बाद में गुना जिले को ही तोड़कर अशोकनगर एक नया जिला बना दिया गया.
अशोकनगर में नहीं जाते मुख्यमंत्री, जो गए गंवाई कुर्सी
ऐसा कहा जाता है कि जो भी मुख्यमंत्री अशोकनगर जिला मुख्यालय आता है वह दोबारा सत्ता में नहीं बैठ पाता है. किसी न किसी कारण से उसे अपना पद गंवाना पड़ता है. ऐसे कई मुख्यमंत्री हुए हैं जो अशोकनगर गए और उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी. 1975 में जब कांग्रेस की सरकार थी तब प्रकाश चंद्र सेठी मुख्यमंत्री रहते हुए अशोकनगर में एक अधिवेशन में आए. इसके कुछ दिन बाद ही राजनीतिक कारणों से उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी. 1977 में श्याम चरण शुक्ला भी शहर के तुलसी सरोवर के लोकार्पण में पहुंचे. दो साल बाद राष्ट्रपति शासन लगने के बाद उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी. 1985 में अर्जुन सिंह अशोकनगर विधानसभा के दौरे पर आए. इसके कुछ दिन बाद ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर पंजाब का गवर्नर बना दिया गया.
1988 में मोतीलाल वोरा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और वह माधवराव सिंधिया के साथ शहर के रेलवे फुटओवर ब्रिज का लोकार्पण करने पहुंचे. इसके कुछ दिन बाद ही उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा. 1992 में सुंदरलाल पटवा भी अशोकनगर के दौरे पर आए. कुछ दिन बाद ही अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया. सुंदरलाल पटवा को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी. शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश में सबसे लंबे समय डेढ़ दशक से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन कभी भी अशोकनगर नहीं गए. उन्होंने हमेशा अशोकनगर से दूरी बना कर रखी. जब भी शिवराज सिंह चौहान कोई कार्यक्रम करने आते उसके लिए आसपास के किसी गांव को चुना जाता था. शिवराज कभी भी अशोकनगर जिला मुख्यालय नहीं पहुंचे. पिछले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अशोकनगर जाकर पार्टी प्रत्याशी का प्रचार किया था.
सिंधिया फिर जाएंगे लोकसभा…
2019 का चुनाव हारने और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार को तोड़ने के बाद भाजपा में शामिल हो चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया अभी राज्यसभा के सदस्य हैं. कभी उनके ही सांसद प्रतिनिधि रहे कृष्णपाल सिंह यादव ने भाजपा में शामिल होने के बाद सिंधिया को पिछला लोकसभा चुनाव हराया था. राज्यसभा का उनका कार्यकाल अभी करीब तीन साल का बाकी है. भाजपा उन्हें लोकसभा के जरिए संसद में वापस लाने के लिए मैदान में उतार चुकी है. जाहिर है अब कांग्रेस के खेमे में ऐसा कोई नेता बाकी नहीं है जिसका इस संसदीय क्षेत्र में दमदार असर हो. राज परिवार पूरी तरह से भाजपा के खेमे में है. कांग्रेस की तरफ से यहां से दिग्विजय सिंह या उनके भाई लक्ष्मण सिंह याफिर बेटे जयवर्द्धन सिंह को मैदान में उतारने की चर्चा थी. दिग्विजय सिंह पड़ोसी राजगढ़ संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं. सिंधिया के सामने कांग्रेस ने पुराने भाजपा नेता राव देशराज सिंह यादव के बेटे राव यादवेन्द्र सिंह को मैदान में उतारा है. यादवेन्द्र पिछला विधानसभा चुनाव इसी संसदीय क्षेत्र की मुंगावली सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर हार चुके हैं. हालांकि कांग्रेस पिछले चुनाव के समीकरण को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति तैयार कर रही है. दूसरी तरफ सिंधिया और उनका परिवार भाजपा के साथ मिल कर कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. अपनी पहली हार को वे अभी भूला नहीं पाएं हैं.
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FIRST PUBLISHED :
April 24, 2024, 18:44 IST