Last Updated:December 06, 2025, 05:01 IST
साल 1971 की जंग में मेजर होशियार सिंह ने ऐसी वीरता दिखाई कि दुश्मन भी दंग रह गया. गोलियों की बारिश, टैंकों की गरज और चारों ओर मौत का खतरा लेकिन उन्होंने मोर्चा छोड़ा नहीं. अपनी कंपनी का नेतृत्व करते हुए उन्होंने 85 दुश्मन सैनिकों को ढेर किया और आख़िरी सांस तक लड़ाई में डटे रहे. उनकी यह बहादुरी भारतीय सेना की सबसे प्रेरक गाथाओं में शामिल है.
मेजर होशियार ने अकेले पाक सेना को धूल चटाई. नई दिल्ली. हमारे देश पर कई बार दूसरे देश ने युद्ध थोपने की कोशिश की है. लेकिन, हर युद्ध के अंत की पटकथा भारतीय सैनिकों ने अपने साहस और बलिदान से लिखी है. भारत की इस विजय यात्रा में कई नाम शामिल हैं, इनमें से एक नाम परमवीर चक्र से सम्मानित मेजर होशियार सिंह का है. वे वीरता, कर्तव्यनिष्ठा और अद्भुत धैर्य का प्रतीक हैं. 6 दिसंबर 1998 को दुनिया से विदा होने के बाद वे अपने पीछे एक ऐसा इतिहास छोड़ गए, जो सदियों तक पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा.
1965 की जंग में दुश्मन को चटाई धूल
5 मई 1937 को हरियाणा के सिसाना गांव में जन्मे होशियार सिंह के भीतर बचपन से ही अनुशासन और दृढ़ स्वभाव था. पिता चौधरी हीरा सिंह किसान और माता मथुरी देवी गृहिणी थीं. 7वीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान ही उनकी शादी धन्नो देवी से हो गई. आगे चलकर उनके तीन बेटे हुए. कम उम्र में गृहस्थ जीवन शुरू होने के बावजूद उनके सपनों में देशसेवा प्रमुख थी. जाट कॉलेज रोहतक में सिर्फ एक साल पढ़ने के बाद उन्होंने सेना ज्वाइन कर ली. 30 जून 1963 को 3 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट में कमीशन हासिल किया और एनईएफए में पहली पोस्टिंग मिली. 1965 का युद्ध उनके करियर का पहला बड़ा सैन्य अनुभव था, मगर उनकी असली पहचान 1971 के युद्ध में बनी.
मेजर होशियार नहीं रुके
दिसंबर 1971 में शकरगढ़ सेक्टर में बसान्तर नदी के पार एक मजबूत ब्रिजहेड बनाना था, जहां दोनों तरफ गहरे माइन्स और ऊपर से पाकिस्तान की भारी मशीनगनों का जाल. इस दुर्गम मिशन की जिम्मेदारी 3 ग्रेनेडियर्स पर थी. उस वक्त मेजर के पद पर कार्यरत होशियार सिंह सी कंपनी के कमांडर थे, जिन्हें जर्पाल के दुर्गम क्षेत्र पर कब्जा करना था. गोलियों की बरसात, तोपों की गड़गड़ाहट और सामने मौत खड़ी थी. लेकिन, मेजर होशियार सिंह नहीं रुके. उनकी कंपनी पर जबरदस्त क्रॉसफायर हुआ, लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर हाथापाई तक की लड़ाई में दुश्मन को खदेड़ दिया. इसके बाद, 16 दिसंबर को दुश्मन ने तीन बार काउंटरअटैक किया, जिसमें से दो बार टैंक के साथ. मगर मेजर सिंह ने खाई-खाई जाकर सैनिकों को प्रेरित किया और हर मोर्चे पर लड़ाई को मजबूती से थामे रखा.
17 दिसंबर का वो दिन
अगले दिन यानी 17 दिसंबर को, दुश्मन ने भारी आर्टिलरी और एक पूरे बटालियन के साथ हमला किया. इसी दौरान एक गोला मेजर सिंह के पास फटा और वे गंभीर रूप से घायल हो गए. हालांकि, इसके बाद भी रणभूमि में उनकी भूमिका खत्म नहीं हुई. पोस्ट पर जब दुश्मन का गोला गिरा और वहां तैनात सैनिक घायल हो गए, तब मेजर होशियार सिंह खुद मशीनगन के गड्ढे में कूद पड़े, खुद मशीनगन संभाली और ऐसा प्रहार किया कि पाकिस्तानी सेना 85 शव और अपने कमांडिंग ऑफिसर को यहीं छोड़कर भाग गई. इसके बावजूद सीजफायर तक वे पीछे नहीं हुए. वे अंतिम सांस तक मोर्चे पर डटे रहे. उनकी इसी अद्भुत वीरता के लिए उन्हें मिला भारत का सर्वोच्च वीरता सम्मान, परमवीर चक्र. कर्नल के तौर पर सेवानिवृत्त होने के बाद 6 दिसंबर 1998 को उन्होंने अंतिम सांस ली. मेजर साहब आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानी हर भारतीय के लिए एक प्रेरणा है. वे एक ऐसे योद्धा थे जो कर्तव्य पथ पर अंतिम समय तक डटे रहे.
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पत्रकारिता में 14 साल से भी लंबे वक्त से सक्रिय हूं. साल 2010 में दैनिक भास्कर अखबार से करियर की शुरुआत करने के बाद नई दुनिया, दैनिक जागरण और पंजाब केसरी में एक रिपोर्टर के तौर पर काम किया. इस दौरान क्राइम और...और पढ़ें
First Published :
December 06, 2025, 05:01 IST

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