Last Updated:March 14, 2025, 08:23 IST
Holi in Mughal Era: मुगल बादशाह भारत में रहते हुए यहीं के रंग ढंग में रच बस गए थे. औरंगजेब को छोड़कर सभी मुगल बादशाह होली खेलते थे. उन्हीं के दौर में इसे 'ईद-ए-गुलाबी' और 'आब-ए-पाशी' कहते थे. पहले मुगल बादशाह ...और पढ़ें

इस पेंटिंग में मुगल बादशाह जहांगीर और नूरजहां होली खेलते हुए दिख रहे हैं.
हाइलाइट्स
मुगल बादशाहों में औरंगजेब को छोड़ सभी होली खेलते थेहोली को 'ईद-ए-गुलाबी' और 'आब-ए-पाशी' कहा जाता थाआगरा और दिल्ली के किलों में धूमधाम से होली मनाई जाती थीHoli in Mughal Era: भारत में अब मुगलों से संबंधित कोई जगह हो या कोई त्योहार विवाद होना तय है. पहले संभल में मुगलकाल की जामा मस्जिद के नीचे मंदिर होने की बात कथित तौर पर सामने आई. जिससे वहां पर सांप्रदायिक सदभाव बिगड़ गया. पिछले दिनों होली को लेकर एक पुलिस अधिकारी का बयान सुर्खियों में रहा. फिर हाल ही रिलीज हुई फिल्म छावा के बाद मुगल बादशाह औरंगजेब को क्रूर और अत्याचारी ठहराने की होड़ सी शुरू हो गई. होली इस बार शुक्रवार को खेली जा रही है और उसी दिन जुमे की नमाज भी अदा की जाएगी. इसको लेकर भी काफी हाय तौबा हुई कि किसे झुकना चाहिए और क्यों. लेकिन क्या होली केवल हिंदुओं का त्योहार है. होली को हिंदुओं का त्योहार मानने की आम धारणा के विपरीत, मुसलमान भी सदियों से, खास तौर पर मुगल काल में, इस त्योहार को धूमधाम से मनाते आए हैं.
काफी लोग मानते हैं कि इस्लाम में होली खेलना मना है. इसके उलट पुराने समय में होली के दिन मुसलमान भी हिंदुओं के साथ जमकर रंग खेलते थे. इतिहासकारों ने मुगलकालीन होली के बारे में जमकर लिखा है. मुगल बादशाहों की बात करें तो होली का जिक्र करीब-करीब हर काल में मिल जाता है. इतिहासकार मुंशी जकुल्लाह ने तहरीक-ए-हिंदुस्तानी में लिखा है, “कौन कहता है कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्योहार है?” जकुल्लाह मुगलों के दौर की होली का वर्णन करते हैं कि कैसे बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखकर हैरान रह गया था. लोग एक-दूसरे को उठाकर रंगों से भरे बड़े-बड़े हौदों में पटक रहे थे.
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आगरा और दिल्ली के किले में होती थी होली
टीओआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक और पद्मश्री से सम्मानित केके मुहम्मद के अनुसार, मुगल काल में आगरा किले और दिल्ली के लाल किले में ईद की तरह होली मनाई जाती थी. उन्होंने कहा, “इसे ईद-ए-गुलाबी (गुलाबी ईद) या आब-ए-पाशी (रंगीन फूलों की वर्षा) कहा जाता था.” तब शाही महलों में फूलों से रंग बनाकर बड़े-बड़े हौदों में भरे जाते थे. फिर पिचकारियों में गुलाबजल और केवड़े का इत्र डाला जाता था. इसके बाद बादशाह और बेगमें प्रजा के साथ मिलकर होली खेलते थे.
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‘ईद-ए-गुलाबी’ और ‘आब-ए-पाशी’
अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा है कि मुगल बादशाह साल भर अलग-अलग आकार की खूबसूरत पिचकारियां इकट्ठा करते थे और इस त्योहार को लेकर बहुत उत्साहित रहते थे. मुहम्मद ने बताया, “यह उन दुर्लभ अवसरों में से एक था जब बादशाह अकबर आगरा में अपने किले से बाहर निकलते थे और आम लोगों के साथ भी होली खेलते थे.” तुज़ुक-ए-जहांगीरी में, बादशाह जहांगीर ने उल्लेख किया है कि वह सक्रिय रूप से होली खेलते थे और ऐसे समारोह आयोजित करते थे जिन्हें ‘महफिल-ए-होली’ के नाम से जाना जाता था. गीत-संगीत के रसिक जहांगीर हालांकि आम लोगों के साथ होली नहीं खेलते थे, बल्कि लाल किले के झरोखे से लोगों को रंगों से सराबोर होते हुए देखते थे. उन्हीं के दौर में होली को ‘ईद-ए-गुलाबी’ और ‘आब-ए-पाशी’ नाम दिए गए थे. जहांगीर की अपनी पत्नी नूरजहां के साथ होली खेलते हुए पेंटिंग गोवर्धन और रसिक जैसे कई कलाकारों द्वारा बनाई गई हैं.
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बहादुर शाह जफर ने लिखे थे होली फाग
इसके अलावा, एक उल्लेखनीय पेंटिंग में, मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला को महल के चारों ओर दौड़ते हुए दिखाया गया है और उनकी पत्नी उनके पीछे पिचकारी लेकर चल रही हैं. मोहम्मद शाह रंगीला ‘सदारंग’ उपनाम से लिखा भी करते थे. रंगीला ने अपनी एक रचना में होली के दृश्यों का विशद वर्णन किया है. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, जिनके होली फाग (गीत) आज भी सुने जाते हैं, ने अपने हिंदू मंत्रियों को हर साल होली के दौरान अपने माथे पर गुलाल लगाने की अनुमति दी थी.
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औरंगजेब को छोड़ ये प्रथा जारी रही
इतिहासकार राज किशोर राजे, जो आगरा के इतिहास पर आधारित पुस्तक ‘तवारीख-ए-आगरा’ के लेखक हैं, ने इस पर अधिक प्रकाश डालते हुए कहा, “अकबर, जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल के दौरान आगरा किले में होली मनाई जाती थी. औरंगजेब आलमगीर को छोड़कर उनके उत्तराधिकारियों ने इस प्रथा को जारी रखा. बहादुर शाह जफर एक और मुगल शासक थे, जो हिंदू समुदाय के साथ त्योहार मनाना पसंद करते थे.” इस अंतिम मुगल शासक का मानना था कि होली हर मजहब का त्योहार है. एक उर्दू अखबार जाम-ए-जहांनुमा ने 1844 में लिखा कि होली पर जफर के दौर में खूब इंतजाम होते थे. टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और बादशाह, बेगमें और आम लोग साथ मिलकर होली खेलते थे.
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होरी खेलूंगी, कह बिस्मिल्लाह
एक वरिष्ठ इतिहासकार ने कहा, “केवल सम्राट ही नहीं, बल्कि सूफी कवियों ने भी इस त्योहार का उपयोग भाईचारे के संदेश को फैलाने के अवसर के रूप में किया. सूफी संत सैयद अब्दुल्ला शाह कादरी, जिन्हें बाबा बुल्ले शाह के नाम से जाना जाता है, जिन्हें भारत और पाकिस्तान में समान रूप से सम्मान दिया जाता है, ने लिखा है “होरी खेलूंगी, कह बिस्मिल्लाह; नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी अल्लाह; रंग रंगीली ओहि खिलावे, जिस सीखी हो फना फी अल्लाह.” 13वीं शताब्दी में, प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो ने त्योहार के उपलक्ष्य में कई छंद लिखे. “खेलूंगी होली, खाजा घर आए, धन धन भाग हमारे सजनी, खाजा आए आंगन मेरे.”
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मुगलिया सल्तनत के खात्मे के साथ खत्म हो गया रिवाज
18वीं सदी के कवि कयाम ने इस त्योहार को रंगों से चित्रित किया है. अपनी लंबी कविता ‘चांदपुर की होली’ में कयाम ने एक नशे में धुत मौलवी का दृश्य चित्रित किया है जो मस्जिद का रास्ता भूल गया है. होली पर लोगों की यही स्थिति होती है. वह अपनी कविता को एक प्रार्थना के साथ समाप्त करते हैं: “इलाही है जब तक, ये शोर ओ शर हो, आलम मियां, होली सेबाकिसार.” (हे भगवान होली का उत्सव दुनिया में तब तक कायम रहे जब तक दुनिया कायम रहे). मुगल सल्तनत के आखिरी वारिस इब्राहिम आदिल शाह और वाजिद अली शाह होली पर मिठाइयां व ठंडाई बांटते थे. मुगलिया सल्तनत के खात्मे के साथ होली पर हिंदू-मुस्लिमों के इकट्ठा होकर रंग खेलने का रिवाज खत्म होता चला गया.
Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
March 14, 2025, 08:23 IST