जब इंदिरा की मौसेरी बहन को मिली धमकी, ‘अब वो राजनीति पर नहीं लिख पाएंगी’!

6 hours ago

संजय गांधी की मौसी और लेखिका नयनतारा सहगल का सत्ता के साथ पहले भी कई बार टकराव हो चुका था. लेकिन अब जो हो रहा था, वह अप्रत्याशित था. उन्हें अचानक से महसूस होने लगा था कि अनेक अखबारों के संपादक उनसे दूरी बना रहे हैं. प्रकाशक विनम्रता से उनके लेखन को प्रकाशित करने से इनकार करने लगे हैं और एक फिल्म निर्देशक, जो उनके उपन्यास ‘दिज टाइम ऑफ मॉर्निंग’ पर फिल्म बनाना चाहता था, नदारद हो गया था. दरअसल, विदेश में रहने वाले उस फिल्म निर्देशक को डर था कि नयनतारा के साथ जुड़ाव से सत्ता प्रतिष्ठान में उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंच सकता है और इस वजह से उसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से टीवी कार्यक्रमों की सीधी मंजूरी मिलने की संभावनाएं खत्म हो सकती हैं.

नयनतारा, जिनकी मां विजयलक्ष्मी पंडित के इंदिरा गांधी के साथ संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण कभी नहीं रहे, आपातकाल की मुखर आलोचक थीं. दिसंबर 1975 में नयनतारा ने इंदिरा शासन के खिलाफ जो पर्चे लिखे थे, उनमें नेहरू के फासीवाद-विरोधी उद्धरणों का भरपूर इस्तेमाल किया गया था. यद्यपि उनकी मां और दोस्तों ने उन्हें राजनीति पर लिखने से बचने की सलाह दी, लेकिन नयनतारा रचनात्मकता पर लगे प्रतिबंध को स्वीकार करने को तैयार नहीं थीं. एक लेख में उन्होंने असहमति के अधिकार पर जोर देते हुए लिखा, इतिहास गवाह है कि सत्ता का विरोध करने वालों को हमेशा खामियाजा भुगतना पड़ा.

आपातकाल के दौरान नयनतारा विशेष रूप से उन स्थितियों को लेकर चिंतित थीं, जिनमें हजारों लोगों को बगैर ऑन रिकॉर्ड सींखचों के पीछे डाला जा रहा था (जिसे तत्कालीन सोवियत संघ में ‘गुलाग’ कहा जाता था). एक आकलन के अनुसार, 19 महीने लंबे आपातकाल में अलग-अलग विचारधाराओं के एक लाख से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लंबे समय तक जेलों में बंद रखा गया. खासकर जब पत्रकार कुलदीप नैयर को गिरफ्तार किया गया तो उससे इंदिरा और संजय गांधी दोनों की साख को देश-विदेश में गहरी क्षति पहुंची थी.

किताब के लिए गृह मंत्रालय से नहीं ली अनुमति

नयनतारा ने दावा किया था कि उनके टेलीफोन कॉल्स टैप किए जा रहे हैं और उनकी गतिविधियों पर करीबी निगरानी रखी जा रही है. हालांकि देश में स्थिति सोवियत संघ के जबरन श्रम शिविरों और कंसंट्रेशन कैंपों (गुलाग) जैसी तो नहीं थी, लेकिन उस दौर में लेखकों और पत्रकारों के लिए आजीविका कमाना एक कठिन चुनौती बन गया था. नयनतारा ने जब अपनी किताब ‘अ सिचुएशन इन न्यू दिल्ली’ लिखकर पूरी कर ली तो इसके प्रकाशन से पहले उन्हें मुख्य सेंसर अधिकारी हैरी डी’ पेन्ह से मिलने को कहा गया. उन्होंने उन्हें गृह मंत्रालय से अनुमति लेने का सुझाव दिया. लेकिन नयनतारा ने तत्कालीन गृह राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) ओम मेहता से मिलना मुनासिब नहीं समझा.

नयनतारा ने ‘अ वॉइस फॉर फ्रीडम’ में लिखा, ‘मैं अपनी पांडुलिपि घर ले आई और उसे भूल गई. उस व्यथा के सामने इसकी कोई अहमियत नहीं रह गई थी, जिसका एहसास मुझे तब हुआ जब मैंने उन प्रतिष्ठित व अनुभवी नेताओं के बारे में सोचा, जिनका भारत के लिए अतुलनीय योगदान था और वे जेलों में बंद थे. फिर उन हजारों गुमनाम लोगों के बारे में, जो विरोध करने की स्थिति में भी नहीं थे.’ (हिंद पॉकेट बुक्स, 1977)

‘मीसा’ के तहत उठाने की दी थी धमकी!

आपातकाल के दौरान नयनतारा को गिरफ्तार तो नहीं किया गया, लेकिन कहा जाता है कि एक बार उनकी बहन से इंदिरा गांधी के एक करीबी सहयोगी और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने कथित तौर पर कहा था कि नयनतारा को कभी भी ‘मीसा’ के तहत उठाया जा सकता है. एक अन्य अवसर पर इंदिरा की ‘किचन कैबिनेट’ के एक प्रमुख सदस्य विद्याचरण शुक्ल ने विजयलक्ष्मी पंडित से थोड़ी कुटिलता के साथ कहा था कि अब नयनतारा राजनीति पर नहीं लिख पाएंगी. नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी ने तुरंत जवाब दिया था कि नयनतारा के लिखने के लिए केवल राजनीति ही अकेला विषय नहीं है.

आपातकाल खत्म होते-होते नयनतारा कांग्रेस और अपने करीबी रिश्तेदारों से इतनी अधिक निराश हो चुकी थीं कि उन्हें मनमौजी किस्म के नेता सुब्रमण्यम स्वामी और उनकी दक्षिणपंथी पार्टी जनसंघ में एक अधिक बेहतर विकल्प नजर आने लगा था. एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने स्वामी से कहा था, ‘लोगों को यह बताने की जरूरत है कि जनसंघ के तीन सींग और एक पूंछ नहीं है.’

टंडन की डायरी

आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत बी.एन. टंडन ने डायरी शैली में ‘पीएमओ डायरी : द इमरजेंसी’ नाम से जो किताब लिखी, उसमें 28 मई 1976 की प्रविष्टि में वे लिखते हैं: ‘गोपाल ने एक और उदाहरण दिया कि प्रधानमंत्री अपने सियासी मकसद को पाने के लिए किस हद तक गिर सकती हैं. कामराज के परिवार में अब केवल उनकी एक वृद्ध बहन बची हैं, जो बेहद गरीब हैं. मालवीय जी ने सोचा था कि उनकी मदद के लिए उन्हें एलपीजी की एक एजेंसी दी जा सकती है. प्रधानमंत्री ने इस प्रस्ताव को रोक दिया, क्योंकि कामराज की बहन अभी भी ‘पुरानी कांग्रेस’ में हैं और इंदिरा की कांग्रेस में शामिल होने का कोई संकेत नहीं दे रही हैं. किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री इस मामले पर दोबारा से विचार करने के मूड में नहीं हैं.’ (बी.एन. टंडन, पीएमओ डायरी, कोणार्क पब्लिशर्स प्राइवेट लि., नई दिल्ली, 2006).

चापलूसी में एक-दूसरे को मात देने की होड़

आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान में 42वां संशोधन प्रस्तुत किया गया, जिसके तहत मौजूदा लोकसभा के कार्यकाल को पांच वर्ष से आगे के लिए बढ़ाने का प्रावधान था. इसे नवंबर 1976 में लागू किया गया था. इस संशोधन का उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की उस शक्ति को कम करना था, जिसके तहत वे किसी कानून की संवैधानिक वैधता पर निर्णय दे सकते थे. इस कुख्यात संशोधन के मुख्य रचयिता देवकांत बरुआ थे, जिन्होंने “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ नारा दिया था.

इस संशोधन के पीछे की एक और प्रमुख ताकत ए.आर. अंतुले थे. जब संसद में यह विधेयक पेश किया गया, तो अंतुले ने इंदिरा की चापलूसी में बरुआ को भी पीछे छोड़ दिया और संविधान के मौजूदा प्रावधानों, जिनमें हर पांच वर्ष में चुनाव कराने की बात शामिल थी, पर ‘नया नजरिया’ अपनाने की बात कही. अंतुले ने इंदिरा की इस बात के लिए तारीफ की कि उन्होंने कांग्रेस से उन लोगों को बाहर कर दिया जो नेहरूवादी विचारधारा के अनुरूप नहीं थे. इसके बाद संसद में उन्हें यह कहते हुए सुना गया, ‘यह नेहरू की गौरवशाली पुत्री, भारत राष्ट्र की पुत्री, प्राचीन, वर्तमान एवं भविष्य के भारत की पुत्री के जिम्मे छोड़ा गया है कि वह नेहरू के सपनों को साकार करें.’

बंसीलाल ने तो बरुआ और अंतुले दोनों को पीछे छोड़ने की कोशिश की, जब उन्होंने इंदिरा के चचेरे भाई बी.के. नेहरू से कहा, ‘इन सब चुनावी झंझटों को खत्म करो… हमारी बहन (इंदिरा) को जीवनभर के लिए राष्ट्रपति बना दो और फिर कुछ भी करने की जरूरत नहीं है.’

एक बार फिर, इस पूरे घटनाक्रम के पीछे संजय गांधी का हाथ माना गया.

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