जब बिना लाइसेंस घर में TV-रेडियो रखना था जुर्म, हर साल देने पड़ते थे 100 रुपए

1 hour ago

नई दिल्ली. आज की डिजिटल पीढ़ी, जिनके हाथ में स्मार्टफोन्स हैं और इंटरनेट डेटा पानी की तरह बह रहा है, शायद इस बात पर यकीन भी न करे. लेकिन यह सोलह आने सच है. आज से करीब 45 साल पहले, यानी 1980 के दशक में भारत की तस्वीर कुछ और ही थी. उस दौर में अगर आप शहर में रहते थे और अपने घर में रेडियो सुनना या टीवी देखना चाहते थे, तो यह इतना आसान नहीं था.

इसके लिए आपको सरकार से बकायदा एक ‘लाइसेंस’ लेना पड़ता था. बिना लाइसेंस के घर में रेडियो या टीवी रखना गैर-कानूनी माना जाता था. यह वह दौर था जब मनोरंजन मुफ्त नहीं था, बल्कि एक जिम्मेदारी थी. आइए, इतिहास के पन्नों को पलटते हैं और उस सुनहरे लेकिन सख्त दौर की यादें ताजा करते हैं. ‘दूरदर्शन मेमरीज’ इंस्टाग्राम अकाउंट से इसे साझा किया गया है.

पोस्ट ऑफिस के चक्कर और 100 रुपये की फीस: आज हम नया फोन या टीवी खरीदकर सीधे घर ले आते हैं, लेकिन उस जमाने में टीवी खरीदने के बाद सबसे पहला काम होता था पोस्ट ऑफिस (Post Office) जाना.

* लाइसेंस बुक: वहां से एक लाइसेंस बुकलेट बनवानी पड़ती थी, जो बिल्कुल बैंक पासबुक या राशन कार्ड जैसी दिखती थी.

* सालाना रिन्यूअल: यह लाइसेंस एक साल के लिए मान्य होता था. हर साल के अंत में लोग पोस्ट ऑफिस की लाइनों में लगकर 100 रुपये (जो उस समय एक बड़ी रकम थी) देकर इसे ‘रिन्यू’ करवाते थे.

* डाक टिकट: रिन्यूअल के सबूत के तौर पर उस किताब में डाक टिकट (Revenue Stamps) चिपकाए जाते थे और पोस्टमास्टर की मुहर लगती थी.

टीवी: एक लक्जरी और पड़ोसियों का मेला आज हर कमरे में टीवी हो सकता है, लेकिन उस समय पूरे मोहल्ले में किसी एक या दो घरों में ही टेलीविजन होता था.

* स्टेटस सिंबल: जिसके घर की छत पर एंटीना दिखता था, वह घर ‘अमीर’ या ‘प्रतिष्ठित’ माना जाता था.

* सामुदायिक दर्शक: जब ‘रामायण’, ‘महाभारत’ या ‘चित्रहार’ का समय होता था, तो पूरा मोहल्ला उस एक घर में इकट्ठा हो जाता था. फर्श पर दरियां बिछ जाती थीं और पिन ड्रॉप साइलेंस के साथ शो देखा जाता था.

* शटर वाला टीवी: उस समय टीवी लकड़ी के बक्से में आता था, जिसमें शटर लगा होता था. शो खत्म होते ही शटर बंद कर दिया जाता था, मानो कोई खजाना सुरक्षित रखा जा रहा हो.

लाइसेंस इंस्पेक्टर का खौफ: जैसे आज बिजली या टिकट चेकर होते हैं, उस समय ‘लाइसेंस इंस्पेक्टर’ हुआ करते थे. वे कभी भी किसी के घर औचक निरीक्षण के लिए आ सकते थे. अगर किसी के घर में रेडियो या टीवी चल रहा हो और उनके पास वैलिड लाइसेंस न हो, तो यह एक अपराध था. जुर्माना भरना पड़ता था और कई बार तो उपकरण भी जब्त हो जाते थे. इसलिए लोग रिन्यूअल की तारीख बहुत ध्यान से याद रखते थे.

एक दौर का अंत: जैसे-जैसे समय बदला और 90 का दशक आया, उदारीकरण (Liberalization) की हवा चली. तकनीक सस्ती हुई और सरकार ने महसूस किया कि सूचना और मनोरंजन पर टैक्स लगाना अब व्यावहारिक नहीं है. धीरे-धीरे रेडियो और टीवी से लाइसेंस की अनिवार्यता खत्म कर दी गई. आज की पीढ़ी को यह सब किसी कहानी जैसा लगता है, लेकिन आपके घर के बड़े-बुजुर्गों के पास उस पुरानी पासबुक की धुंधली यादें जरूर होंगी.

क्या आपके पास है वो याद? क्या आपके घर में कभी ऐसा लाइसेंस था? या आपके माता-पिता ने कभी आपको पोस्ट ऑफिस की उन लाइनों के किस्से सुनाए हैं?

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