जब शीला दीक्षित ने मुख्यमंत्री की खातिर ठुकरा दिया था देश के गृह मंत्री का पद

1 day ago

Last Updated:March 31, 2025, 06:53 IST

Sheila Dikshit Birthday: शीला दीक्षित का आज जन्मदिन है. वह तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं. शीला दीक्षित को 2012 में गृह मंत्री बनने का प्रस्ताव मिला, लेकिन उन्होंने दिल्ली का मुख्यमंत्री बने रहना चुना. 2013...और पढ़ें

जब शीला दीक्षित ने मुख्यमंत्री की खातिर ठुकरा दिया था देश के गृह मंत्री का पद

दिल्ली की पूर्व सीएम दिवंगत शीला दीक्षित का आज जन्मदिन है.

हाइलाइट्स

शीला दीक्षित ने 2012 में गृह मंत्री पद ठुकराया.उन्होंने दिल्ली का मुख्यमंत्री बने रहना चुना.2013 में आम आदमी पार्टी से हार का सामना किया.

हमारे यहां आपसी बातचीत में भले ही एक गृहिणी को ‘गृह मंत्री’ कहा जाता हो, लेकिन भारत के इतिहास में आज तक किसी भी महिला को स्वतंत्र रूप से देश के केंद्रीय गृह मंत्रालय का कार्यभार नहीं दिया गया है (इंदिरा गांधी के पास जरूर प्रधानमंत्री के साथ-साथ गृह मंत्रालय का प्रभार था). ऐसा ऐतिहासिक अवसर साल 2012 में तब आने वाला था, जब स्वयं कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने शीला दीक्षित के समक्ष गृह मंत्री बनने का प्रस्ताव रखा था.

प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति भवन में जाने के बाद जब तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम को वित्त मंत्रालय भेजा गया तो सोनिया को उनकी जगह सबसे मुनासिब नाम शीला दीक्षित का ही लगा. लेकिन दीक्षित ने बड़ी विनम्रता से इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. ‘कौन जाएं दिल्ली की गलियां छोड़कर’, कहते हुए उन्होंने दिल्ली का मुख्यमंत्री बने रहना ही पसंद किया. दरअसल, उन्हें राजधानी में किए गए विकास कार्यों की बदौलत 2013 में भी दिल्ली का लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने का भरोसा था. लेकिन राजनीति कई बार आपकी अपनी ही उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है. उन्हें नई-नवेली आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. वैसे, आज भी कांग्रेस के कई नेता शीला दीक्षित के दिल्ली में ही बने रहने के फैसले को गलत बताते हैं. इनका मानना है कि उस समय अगर दिल्ली में नेतृत्व परिवर्तन हो जाता तो कांग्रेस सत्ता में बनी रह सकती थी, जबकि स्वयं दीक्षित एक सक्षम गृह मंत्री साबित होतीं.

राजीव ने दिया था राजनीति में ब्रेक
शीला दीक्षित को संसदीय राजनीति में ब्रेक देने का श्रेय राजीव गांधी को जाता है, जिन्होंने 1985 में उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री बनाया था. यूपी के कन्नौज से शीला दीक्षित की जीत और फिर मंत्री बनना कांग्रेस के कई नेताओं को हालांकि रास नहीं आया था, लेकिन राजीव को उन पर विश्वास था. राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिंह राव कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बने. मगर जल्द ही पार्टी के एक धड़े और राव के बीच मतभेद उभरने लगे. राव के खिलाफ बगावत करने वालों में शीला दीक्षित सबसे आगे थीं. उनके साथ एन.डी. तिवारी, माखनलाल फोतेदार, अर्जुन सिंह, नटवर सिंह, पी. शिवशंकर, मोहसिना किदवई, कुमार मंगलम, शिव चरण माथुर जैसे अन्य लोग थे, जिन्होंने मिलकर कांग्रेस (तिवारी) नाम से अलग पार्टी बना डाली.

2013 में राजीव गांधी को श्रद्धांजलि देने पहुंची शीला दीक्षित.

प्रियंका ने सुझाया था, “शीला फॉर दिल्ली’
1996 के आम चुनावों में शीला दीक्षित को झटका लगा. दिल्ली (पूर्व) सीट पर उन्हें बी.एल. शर्मा ‘प्रेम’ के हाथों हार झेलनी पड़ी. मगर दीक्षित के धैर्य और दृढ़ संकल्प ने सोनिया गांधी का ध्यान आकृष्ट किया. सोनिया उस समय तक कांग्रेस की राजनीति में दिलचस्पी लेने लगी थीं. 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यभार संभालने के बाद ही दिल्ली में चुनाव थे। सवाल यह था कि मुख्यमंत्री का चेहरा किसे बनाया जाए. 1984 के सिख दंगों के कारण दिल्ली का सिख समुदाय सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का विरोध कर रहा था और इसलिए उन्हें पार्टी का चेहरा नहीं बनाया जा सकता था.

इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट की बैठक थी, जिसमें पहली बार हिस्सा लेने के लिए शीला दीक्षित 10 जनपथ पहुंचीं और तभी प्रियंका गांधी को विचार आया “शीला फॉर दिल्ली’. सोनिया को भी ये प्रस्ताव अच्छा लगा, लेकिन दीक्षित को इसके लिए तैयार करने में नटवर सिंह को खासी मशक्कत करनी पड़ी. दिल्ली कांग्रेस के दिग्गज नेताओं एचकेएल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, जेपी अग्रवाल आदि ने इसका पुरजोर विरोध किया. मगर ‘बाहरी’ कहलाने वाली शीला दीक्षित ने न सिर्फ भाजपा, बल्कि पार्टी के भीतर भी अपने विरोधियों को पटखनी दे दी. वे अगले 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी रहीं. वे देश के दिल पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली नेता हैं.

अच्छी संगठनकर्ता
दीक्षित एक अच्छी संगठनकर्ता भी थीं. कम ही लोगों को पता होगा कि 1972 में नेशनल यूनियन ऑफ स्टूडेंट (एनयूएस) के दिल्ली चैप्टर की शुरुआत करने वाली वही थीं. बाद में एनयूएस ही कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई बना. उस समय प्रियरंजन दासमुंशी भारतीय यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष थे और रंगराजन कुमार मंगलम उसके महासचिव थे. आजादी की लड़ाई में पार्टी के संघर्ष और भारत निर्माण में योगदान देने वाले इसके नेताओं से प्रभावित देशभर के युवा और काबिल नेता आगे आ रहे थे. उम्मीदों और बदलाव के इस दौर में शीला दीक्षित भी एक ऐसी युवा नेता के रूप में सामने आईं, जो कॉन्वेंट से पढ़ी थीं और अपनी पहचान बनाने के लिए बेकरार थीं.

राजनीति की ‘देवानंद’
मार्च 2014 में दीक्षित को उनके 76वें जन्मदिन से कुछ हफ्ते पहले ही केरल का राज्यपाल बना दिया गया. बाद में उन्होंने राजनीति से संन्यास लेकर शांतिपूर्ण जिंदगी बिताने की इच्छा जताई, लेकिन पार्टी के प्रति उनकी वफादारी उन्हें फिर से दिल्ली और यूपी की राजनीति में वापस ले आई. मगर उनके कॅरियर का ग्राफ लगातार गिरता ही चला गया. फिल्मों की शौकीन शीला दीक्षित की तुलना देवानंद से की जाने लगी, जिनकी वापसी की कोशिशें नाकाम रही थीं. दिवंगत अभिनेता की तरह आखिरी सालों में दीक्षित को भी मकबूलियत हासिल नहीं हो पाई. वे जनता की कल्पनाओं में लोकप्रिय तो रहीं, लेकिन एक नेता के तौर पर उनका समय बीत चुका था.

First Published :

March 31, 2025, 06:53 IST

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