बिहार चुनाव परिणामों ने साबित किया कि इस बार मुकाबला सिर्फ विकास बनाम अविकास नहीं था, बल्कि राजनीतिक नैरेटिव पर भी था. एनडीए की प्रचंड जीत में महिलाओं के रिकॉर्डतोड़ मतदान, महागठबंधन की नकारात्मक राजनीति, जंगल राज की आशंकाएं और हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण निर्णायक कारक साबित हुए. नीतीश कुमार के सुशासन और लाभार्थी आधारित योजनाओं ने भी बड़ा असर डाला.
Source: News18Hindi Last updated on:November 16, 2025 8:35 PM IST

नीतीश कुमार के आखिरी चुनाव में उनके सुशासन पर जनता की मुहर है. (फोटो PTI)
न तो यह आम किस्म का चुनाव था और न इसके नतीजे आम हैं. बिहार में रिकॉर्डतोड़ मतदान और खास तौर से महिलाओं की लंबी कतारों के बाद ही राजनीतिक समीक्षक इसके निहितार्थ ढूंढने में व्यस्त थे. चुनावी विश्लेषक एनडीए की जीत का अनुमान तो लगा रहे थे लेकिन किसी ने ऐसी सुनामी की उम्मीद नहीं की थी जहां महागठबंधन का सफाया हो जाए. माना कि यह जद (यू) और भाजपा गठबंधन की सबसे बड़ी जीत नहीं है. साल 2010 के चुनावों में इस गठबंधन ने 206 सीटें जीती थीं जिसमें अकेले नीतीश कुमार की पार्टी को 115 सीटें मिली थीं. लेकिन ऐसे में जब नीतीश शासन के 20 साल पूरे हो चुके थे और उनके स्वास्थ्य को लेकर तमाम आशंकाएं जताई जा रही थीं, इस तरह की प्रचंड जीत अप्रत्याशित है. लूटियन के भाजपा विरोधी, लगातार दोहराए जा रहे हैं कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 23 प्रतिशत वोटों के साथ अब भी सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन गौर से देखें तो महागठबंधन और एनडीए के बीच वोट प्रतिशत का फासला दहाई अंकों में है.
अगर 20 साल से शासन कर रही पार्टी इतने प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापसी करती है तो जाहिर है कि इसके पीछे जरूर कुछ कारण रहे हैं जिसकी पड़ताल जरूरी है. सबसे पहले, यह एस्पिरेशनल पालिटिक्स यानी आकांक्षी राजनीति की जीत है. इसे सबसे बढ़िया से व्यक्त किया एक मीम ने जिसमें तंज था, ‘बार-बार विकास करके हमारी ललटेनिया नहीं जीतने दे रहे हैं’. बिहार अब भी देश के पिछड़े राज्यों में शामिल है लेकिन अब जंगल राज की वापसी मुश्किल है. बीस साल पहले और अब के हालात में जमीन-आसमान का फर्क है. जंगल राज की वापसी इसलिए भी मुश्किल है कि सोशल मीडिया के इस दौर में उसकी स्मृतियां अब भी धुंधली नहीं हुई हैं. और यही वजह है कि कांग्रेस अंत तक तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने से कन्नी काटती रही.

बीजेपी हेडक्वार्टर्स में गमछा लहराकर पीएम नरेंद्र मोदी ने दिया संदेश. (Photo : PTI)
जनता क्यों हुई चौकन्नी?महागठबंधन का प्रचार वोट चोरी जैसी नकारात्मकता के ईर्द-गिर्द केंद्रित रहा. और उसमें भी ‘शहाबुद्दीन अमर रहें’ जैसे नारे उछाले गए जिससे जनता चौकन्नी हो गई. तेजस्वी यादव का हर घर से एक आदमी को सरकारी नौकरी देने का वादा कुछ ऐसा था जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था. इसके मुकाबले नीतीश का महिला मतदाताओं को 10,000 रुपए देना ज्यादा कारगर रहा. साथ ही दो दशकों में जिन लड़कियों को नीतीश ने साइकिल की सवारी करवा कर शिक्षित किया वह भी अब चुनाव में नीतीश का साथ दे रही हैं. महिलाएं इस चुनाव में पूरी तरह से नीतीश का वोटर बन गईं और अब चुनाव में मुस्लिम “एम” के बजाय महिला “एम” ज्यादा निर्णायक साबित हुआ है.
तो यहां महागठबंधन से हुई गलती?
लेकिन नीतीश की प्रचंड जीत के पीछे शायद विकास का योगदान कम और महागठबंधन की नकारात्मकता ज्यादा है. महाबंधन पिछले काफी समय से हिंदुओं को जातियों के खाने में बांट कर देखने की कोशिश की जा रही थी और हिंदुओं की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान पर सोचे-समझे तरीके से लगातार हमले किए जा रहे थे. सावन में लालू यादव का राहुल गांधी को मटन बनाना सिखाना और नवरात्रों में तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी का मछली खाते वीडियो जानबूझ कर सोशल मीडिया पर वायरल किया गया. यह व्यापक हिंदू समुदाय को चिढ़ाने का उपक्रम था. लोकप्रिय भोजपुरी गायक खेसारी लाल यादव जैसे महागठबंधन के उम्मीदवारों ने चुनाव के ऐन बीच अपने विवाहास्पद प्रगतिशील बयानों से हिंदुओं को और चिढ़ाया. उन्होंने कहा था, ‘राम मंदिर में पढ़कर कोई मास्टर बनेगा क्या? इसकी जगह अस्पताल या कॉलेज बनना चाहिए.’ और तो और उन्होंने राजद के बचाव में कहा, ‘जंगलराज सही था, फिरौती देकर लोग जिंदा तो रहते थे.’ रही सही कसर पूरी कर दी ‘भईया क आवे द सत्ता, उठाय लेहब घरे से सटाय के कट्टा’ और ‘तेजस्वी की सरकार बनती तो यादव सब रंगदार बनते’ जैसे गानों ने.
इन बयानों ने लोगों के मन में आशंकाएं पैदा की कि ‘भूराबाल साफ करो’ जैसे पुराने जुमलों और जंगल राज की वापसी हो सकती है. बिहार बहुत मुश्किल से जातीय सेनाओं के दौर से बाहर निकला है. साथ ही, नग्न जातिवादी राजनीति और हिंदुओं की आस्थाओं को जानबूझ कर चोट पहुंचाने के नतीजे में हिंदु ध्रुवीकरण हुआ और चुनाव माई यानी मुस्लिम- यादव बनाम अन्य में बंट गया. ऐसे में राजद अपना वजूद बचा ले गई लेकिन बाकी सहयोगी दलों का हाल बेहाल हो गया.
कहां चूक रहे राहुल?
इस चुनाव ने एक तरह से मुहर लगाई कि हिंदुओं की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान पर हमले राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक होने की ओर ले जाते हैं. राहुल गांधी वर्षों से यह सबक नहीं सीख पाए और अब तेजस्वी व अखिलेश भी उसी राह पर हैं. लेकिन अब स्पष्ट है कि हिंदुओं को जातियों में बांटने की कोशिशें हिंदू ध्रुवीकरण को न्योता देती हैं. हालांकि विपक्षी दलों की पूरी राजनीति दशकों से जाति के ईर्द-गिर्द घूमती रही हैं और इक्का-दुक्का जीतों को राजनीतिक पंडित जातीय समीकरणों को साध लेने का नतीजा घोषित कर देते हैं. लेकिन अगर जाति ही निर्णायक होती तो उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में अखिलेश व मायावती का गठबंधन सभी सीटें जीत लेता. नतीजे क्या रहे, सब जानते हैं.
अब जाने-अनजाने भारत का विपक्ष एक दुष्चक्र में फंस चुका है. भाजपा के हिंदू वोटों में बिखराव पैदा करने और उसे अपने पास वापस लाने के लिए विपक्ष अब और आक्रामकता से जाति की राजनीति कर रहा है जिसके नतीजे में वे हिंदू भी खिसक रहे हैं जिनके वोट उन्हें मिल सकते थे. उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़ी संख्या में यादव युवाओं का सपा व राजद से मोहभंग इसी का नतीजा है जहां जातीय समीकरण साधने के फेर में सांस्कृतिक पहचानों पर हमला किया जा रहा है. मुश्किल यह है कि विपक्ष की राजनीति का यह ढर्रा फिलहाल जारी रहने वाला है.

बिहार चुनाव 2025 में निर्णायक जीत दर्ज करने के बाद दिल्ली स्थित बीजेपी हेडक्वार्टर्स में पीएम नरेंद्र मोदी का जोरदार स्वागत किया गया. (Photo : PTI)
एक आम आदमी के लिए भी नए कलेवर में ढलना आसान नहीं होता और किसी राजनीतिक दल के लिए और भी कठिन. खास तौर से वंशवादी दलों के लिए यह एक मुश्किल चुनौती है क्योंकि उन्हें अपने परिवार के नाम पर और अपने जातीय समीकरणों के सहारे रहना होता है. इसलिए अब चुनावी राजनीति इस हद तक पहुंच गई है जो कई समुदायों व जातियों को ‘गैर हिंदू’ करार देने तक पहुंच गई है.
नीतीश ने तोड़ी जाति-बिरादरी की सीमाएं
झारखंड में सरना व कर्नाटक में लिंगायत इसके उदारण हैं. इसके बरक्स नीतीश ने जाति-बिरादरी की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए एक महिला वोट बैंक तैयार किया. बिहार में पुरुषों को 62.98 प्रतिशत मतदान के मुकाबले 71.78 प्रतिशत महिला मतदाताओं ने वोट डाले और माना जाता है कि ये नीतीश कुमार के और एनडीए के वोट थे जिसके सहारे यह प्रचंड जीत संभव हुई. यह प्रोत्साहन योजनाओं व सशक्तीकरण आधारित और लाभार्थी केंद्रित राजनीति की जीत है. यह आकांक्षी राजनीति की जीत है जो जातीय समीकरणों से परे जाती है.
भाजपा इस जीत के सबक को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में भी ले जाएगी. भाजपा पश्चिम बंगाल में घुसपैठियों का मुद्दा उठाएगी जिसके जवाब में ममता की भाजपा व आरएसएस पर तीखी बयानबाजियां और अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के प्रयासों में और तुष्टीकरण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जमीन तैयार करेंगे.
लेकिन इस चुनाव के दौरान एक चीज हुई जो यह साबित करती है कि नीतीश-भाजपा के इन 20 वर्षों में बिहार अब बदल चुका है. बिहार में दशकों बाद यह पहला चुनाव है जहां चुनावी हिंसा में एक भी मौत नहीं हुई और न ही कहीं दोबारा मतदान की जरूरत पड़ी. ये वही बिहार था जहां 1990 में चुनावी हिंसा में 87 लोगों की मौत हुई जबकि 1995 में भारी हिंसा और गड़बड़ी के कारण चुनाव चार बार टालने पड़े थे. यह नीतीश कुमार के आखिरी चुनाव में उनके सुशासन पर जनता की मुहर है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
अनिल पांडेय
अनिल पांडेय मीडिया रणनीतिकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह जनसत्ता से लेकर स्टार न्यूज और द संडे इंडियन के साथ काम कर चुके हैं। देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक नब्ज को अच्छे से समझने वाले चुनिंदा पत्रकारों में शुमार हैं।
First published: November 16, 2025 8:35 PM IST

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