Last Updated:July 31, 2025, 14:49 IST
मालेगांव ब्लास्ट का मामला 17 साल तक चला. 323 गवाहों से पूछताछ की गई. लेकिन ठोस सुबूतों के न होने से 7 आरोपियों को बरी कर दिया गया. नोएडा निठारी कांड के आरोपी मनिंदर सिंह पंधेर को बरी किए जाने के फैसले को सुप्री...और पढ़ें

हाइलाइट्स
मालेगांव ब्लास्ट के 7 आरोपी बरीनिठारी कांड में पंधेर को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कियामुंबई ट्रेन विस्फोट के 11 आरोपी बरी हुएमालेगांव ब्लास्ट के आरोपियों को अदालत ने बरी कर दिया. निठारी के आरोपियों पर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को दुरुस्त बताया. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हाई कोर्ट ने न्याय किया है और आरोपियों को बरी कर दिया है. मालेगांव के अंजुमन चौक पर मस्जिद के पास कराए गए विस्फोट में 9 से ज्यादा लोग मारे गए थे और 100 से ज्यादा जख्मी हुए थे. विस्फोटक मोटर साइकिल में रख कर उसे पार्क कर दिया गया था. विस्फोट के बाद एटीएस और एनआईए ने की थी. मारे गए लोगों की संख्या अलग अलग स्रोतों में अलग अलग है. खैर लोग मारे तो गए ही थे.
निठारी के कंकाल क्या कह रहे
निठारी में कम से कम 19 कंकाल निकले थे. इसमें 11 लड़कों और 4 लड़कियों के थे. निठारी नोएडा में अभी भी आबाद एक गांव है. वही मनिंदर सिंह पंधेर की कोठी है. जिसमें वो अपने घरेलू सहायक सुरेंद्र कोली के साथ रहता था. दोनों पर आरोप लगे थे कि इस कोठी में दोनो मिल कर नाबालिग बच्चों का शोषण करते. फिर हत्या कर उन्हें नाले में डाल देते. उस समय कोली पर अमानवीय क्रूरता के आरोप भी लगे थे. पंधेर ने तकरीबन 16 साल जेल में काटे. कोली को भी जेल में 18 साल हो गए हैं. इसी मसले से जुड़े एक अपराध में उसकी आजीवन कारवास की सजा कायम है. लेकिन पंधेर को 2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सभी मामलों से मुक्त भी कर दिया.
मुंबई ट्रेन विस्फोट किसने कराए
मुंबई के ही ट्रेन विस्फोट मामले में 11 लोगों को 19 साल की कानूनी प्रक्रिया के बाद बरी कर दिया गया. इस विस्फोट में 189 लोग मारे गए थे. मालेगांव विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के शामिल होने से इसे हिंदूवादी ताकतों के आतंक के तौर पर भी लिया जा रहा था. उनके साथ इसमें कुल 7 आरोपी थे. सभी बरी कर दिए गए.
हाई प्रोफाइल मामलों पर पुलिस की वाहवाही
ऐसे और भी बहुत सारे मामले हैं. पुलिस या सुरक्षा एजेंसियां जोर शोर से आरोपियों के विरुद्ध चार्जशीट करती है. मीडिया में आरोपियों के पकड़े जाने से लेकर उनके अपराध के तौर तरीकों पर बयानबाजी करती हैं. लेकिन कोर्ट आखिर क्यों उन्हें बरी कर देता है. ये सवाल फिर उठ रहा है. अहम भी है, लिहाजा इस पर विचार किया भी जाना चाहिए. दरअसल, भारतीय न्याय व्यवस्था का एक खास वसूल है. भले ही सौ दोषी छूट जाएं लेकिन एक मासूम को सजा नहीं होनी चाहिए. एक बेहतरीन और उम्दा जुडिशियल सिस्टम का तरीका भी यही होना चाहिए. अदालतें कानून की हिफाजत और इंसाफ के लिए ही होती है. वहां जज साहेबान मामले का फैसला कागजों में दर्ज सूबूतों के मुताबिक ही करते हैं.
तफ्तीश कितनी मजबूत
इन कागजात को तैयार करने का जिम्मा तफ्तीश करने वाली एजेंसी की होती है. साथ ही कानून की तरतीब के मुताबिक ही सुबूत जुटाने होते हैं. मसलन निठारी कांड में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले की तसदीक करते हुए कहा कि आखिर बिना बयानों के बरामदगी कैसे की जा सकती है. सुबूतों को एक दूसरे से जुड़ा हुआ दिखना चाहिए. निठारी मामले में अंग व्यापार की बात तो की गई लेकिन इसके पूरे तार नहीं दिखाए गए.
सुबूत जुटाने में ठीलापन
यानी कहा जा सकता है कि जांच करने वाली एजेंसियों की तरफ से कोताही बरती गई. मालेगांव ब्लास्ट मामले में जांच एजेंसियां ये सुबूत नहीं जुटा सकीं कि विस्फोटकों वाली मोटर साइकिल किसने पार्क की. जिसके बारे में एजेंसियां दावा कर रही थी, उसके फिंगर प्रिंट जैसे साइंटिफिक सुबूत नहीं पेश कर सकी. किसी को भी सजा देने के लिए सफिसिएंट यानी पक्के सुबूत होने चाहिए. दोषी साबित करना एजेंसी का काम है. आरोपी तो अपने को निर्दोष ही बताएगा.
लोकल पुलिस की भूमिका
उत्तर प्रदेश पुलिस के रिटायर्ड आईजी ओ पी त्रिपाठी मानते हैं कि शुरुआती जांच करने वाली लोकल पुलिस बहुत सारे सुबूत सिलसिलेवार नहीं जुटा पाती. कई बार उसके पास साधन की कमी होती है. कई बार उसे जो कानूनी मदद मिलनी चाहिए वो नहीं मिलती. फिर अगर हाई प्रोफाइल मामला हुआ तो सीबीआई, एनआईए या एटीएस जैसी संस्थाओं को तफ्तीश सौंपे जाने पर वो सारे शुरुआती सुबूत दूसरी एजेंसी को सही तरीके से नहीं सौंप पाती. हाई प्रोफाइल मामलों में अपराधियों की गिरफ्तारी और घटना की पूरी प्रक्रिया के प्रचार प्रचार में स्थानीय पुलिस ज्यादा वक्त लगाती है. क्योंकि कहीं न कहीं उस पर सरकार की साख बचाए रखने का दबाव होता है.
आईजी त्रिपाठी याद दिलाते हैं – “1973 तक उत्तर प्रदेश में अदालतों में सरकार की ओर से मामले की पैरवी करने वाले एपीओ, एसपीओ एसएसपी के अधीन होते थे. एक ही विभाग में होने के कारण उनकी ड्यूटी होती थी कि वे तफ्तीश से चार्ज-शीट तक की निगरानी करें. इससे वे कानूनी पेचिदगियां नहीं छूटती थी, जिनका फायदा बचाव पक्ष के वकील उठा कर आरोपी को अदालतों से बरी करा लेते हैं.”
ये तो एक बानगी भर है. पुलिस को बहुत सुरक्षा और लॉ एंड ऑर्डर के सारे काम करते हुए अपराध की तफ्तीश भी करनी होती है. गवाहों के बयान और सुबूतों की बरामदगी करनी होती है. अगर लगातार उनकी तफ्तीश की निगरानी करने के लिए वकीलों को भी पुलिस महकमें के साथ रखा जाय तो वे ममले को ज्यादा पुख्ता बना कर अदालतों में ले जा सकते हैं. उस हालत में मुकदमों खारिज होने और आरोपियों के छूटने की दर कम हो सकती है.
करीब ढाई दशक से सक्रिय पत्रकारिता. नेटवर्क18 में आने से पहले राजकुमार पांडेय सहारा टीवी नेटवर्क से जुड़े रहे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद वहीं हिंदी दैनिक आज और जनमोर्चा में रिपोर्टिंग की. दिल...और पढ़ें
करीब ढाई दशक से सक्रिय पत्रकारिता. नेटवर्क18 में आने से पहले राजकुमार पांडेय सहारा टीवी नेटवर्क से जुड़े रहे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद वहीं हिंदी दैनिक आज और जनमोर्चा में रिपोर्टिंग की. दिल...
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