'पांडे' कहकर न कोई डरा सकता, न उत्साहित कर सकता... क्या नई लकीर खींच रहे पीके?

2 weeks ago

पटना. मेरी जाति ना मेरी ताकत है, ना मेरी कमजोरी… बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से सत्ता का सबसे बड़ा समीकरण रही है. ऐसे में जनसुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर का यह कहना कि “मेरी जाति ना मेरी ताकत है, ना मेरी कमजोरी”, एक बड़ा राजनीतिक संकेत माना जा रहा है. उन्होंने साफ कहा कि उन्हें ‘पांडे’ कहकर न कोई डरा सकता है, न उत्साहित कर सकता है! ऐसे तो इस बयान को एक पॉलिटिकल स्टेटमेंट कहकर इग्नोर किया जा सकता है, लेकिन इसमें विशेष बात यह है कि बिहार की राजनीति में यह बयान उस दौर में आया है जब जातीय पहचान को ही सियासी पहचान बना दिया गया है. सवाल यह है कि- क्या प्रशांत किशोर नई राजनीति का रास्ता दिखा रहे हैं?

बिहार की राजनीति में जाति की केंद्रीय भूमिका

दरअसल, बिहार की राजनीति को समझने के लिए जाति के समीकरणों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक- हर नेता ने अपनी राजनीतिक यात्रा जातिगत पहचान के इर्द-गिर्द गढ़ी. पिछड़ा-दलित समीकरण से लेकर अति पिछड़ा कार्ड तक, हर चुनाव इसी पर टिका रहा. लेकिन ऐसे माहौल में जब प्रशांत किशोर कहते हैं कि उनकी जाति न उनकी ताकत है, न कमजोरी तो यह बिहार की पारंपरिक राजनीति को खुली चुनौती है.

‘पांडे’ विवाद पर प्रशांत किशोर का स्पष्ट संदेश

बता दें कि 3 अक्तूबर को एक निजी चैनल से बातचीत में जब उनसे ‘पांडे’ सरनेम को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने बेबाकी से कहा- “ना मैं ‘पांडे’ जोड़ता हूं, ना हटाता हूं. मेरी जाति से न मैं डरता हूं, न उस पर गर्व करता हूं”. प्रशांत किशोर का यह बयान किसी राजनीतिक पैंतरेबाज़ी, चोचलेबाजी या हवाबाजी…चाहे जो कहलें… उससे ज्यादा, बिहार के सामाजिक ढांचे की सच्चाई को उजागर करता है. क्योंकि, आज भी कई नेता अपने नाम के साथ जाति जोड़कर वोटों को साधने की कोशिश करते हैं, लेकिन प्रशांत किशोर ने उसी सोच को तोड़ने की कोशिश की है.

‘मेरी जाति न ताकत है, न कमजोरी’-क्यों कहा ?

जानकारों की नजर में प्रशांत किशोर के इस बयान के पीछे दो बातें छिपी हैं. पहली, प्रशांत किशोर यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी राजनीति व्यक्तित्व और विचार पर आधारित है, जाति पर नहीं. दूसरी, वे यह समझते हैं कि आने वाले कम से कम एक दशक में बिहार की राजनीति में सवर्ण नेतृत्व की संभावना बहुत सीमित है. ऐसे में वे जातीय राजनीति से दूरी बनाकर अपने लिए एक वैकल्पिक नैरेटिव तैयार कर रहे हैं और खुद को “बिहार का बेटा, जाति से परे नेता” बताने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं.

राजनीतिक संकेत और जातीय यथार्थ

वरिष्ठ पत्रकार रंजन कुमार कहते हैं कि बिहार में सवर्ण मुख्यमंत्री का दौर अब बीते जमाने की बात है. नीतीश कुमार, लालू यादव, जीतनराम मांझी और अब तेजस्वी यादव- सभी गैर-सवर्ण पृष्ठभूमि से हैं. यही सामाजिक यथार्थ प्रशांत किशोर को पता है. वे जानते हैं कि बिहार में सत्ता अब सामाजिक न्याय के समीकरणों पर टिकी है, इसलिए वे अपनी राजनीति को ‘जाति’ के बजाय ‘जनता’ से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने साफ कहा कि वे अपनी पहचान जाति से नहीं, परिश्रम और सोच से बनाते हैं.

जनसुराज का नई राजनीति का रास्ता

रंजन कुमार अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि प्रशांत किशोर की जनसुराज यात्रा ने अब तक बिहार के 200 से अधिक प्रखंडों में जनता से संवाद किया है. इस दौरान उन्होंने बार-बार कहा कि वे सत्ता नहीं, सिस्टम बदलने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका फोकस शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुशासन जैसे मुद्दों पर है. यह उनके बयान की पृष्ठभूमि को और मजबूती देता है- इसका साफ और स्पष्ट मतलब है कि वे अपनी राजनीतिक पहचान को जातीय सीमाओं से ऊपर रखना चाहते हैं.

बिहार की राजनीति में बदलाव की जरूरत

दरअसल, बिहार में आज भी चुनाव जातीय गठजोड़ों के आधार पर लड़े जाते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी अब इस राजनीति से थक चुकी है. बेरोजगारी, पलायन और विकास के मुद्दों पर नई चर्चा की जरूरत है. इतना ही नहीं उनका यह बयान उस दौर में आया है जब बिहार की राजनीति जातीय गठजोड़ों पर आधारित है. ऐसे में प्रशांत किशोर का यह बयान उसी राजनीतिक थकान के बीच एक ‘ताजा हवा’ की तरह है. सवाल यह है कि क्या बिहार की जनता सच में जाति से ऊपर उठने के लिए तैयार है?

क्या पीके नई राजनीति के प्रतीक बन पाएंगे?

प्रशांत किशोर का यह बयान सिर्फ एक सफाई नहीं, बल्कि एक विचारधारा की घोषणा कही जा सकती है. वे यह संदेश देना चाहते हैं कि बिहार की राजनीति अब जाति के नहीं, काम के आधार पर तय होनी चाहिए. लेकिन, चुनौती यह है कि क्या वे इस विचार को वोटों में बदल पाएंगे? क्योंकि बिहार की सियासत में जाति की जड़ें अब भी गहरी हैं. फिर भी, यह तय है कि पीके ने बहस की दिशा जरूर बदल दी है. जनसुराज राजनीति के जरिए पीके जनता को नया और साफ-साफ संदेश देना चाहते हैं- राजनीति अब जाति नहीं, विकास के एजेंडे पर होनी चाहिए.

जाति पर आधारित राजनीति पर सीधा प्रहार

वरिष्ठ पत्रकार अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि प्रशांत किशोर का बयान केवल जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति को आईना दिखाने वाला विचार है. वे उस राजनीति के खिलाफ खड़े हैं जो जातीय पहचानों पर टिकी है और उस सोच के पक्ष में हैं जो काम, शिक्षा और विकास की बात करती है. हालांकि, जातिगत आधार पर जकड़े और बिखरे बिहार जैसे समाज में इस तरह की बदलाव की पहल भी आसान नहीं होगी, पर पीके ने एक बहस जरूर शुरू कर दी है कि क्या बिहार अब ‘जाति आधारित राजनीति’ से आगे बढ़ने को तैयार है? इंताजर कीजिये…शायद यही सवाल आने वाले चुनावों की असली परीक्षा होगी और इसका परिणाम इसका जवाब भी होगा!

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