बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी क्यों देते हैं मुस्लमान, क्या कहता है कुरान?

1 day ago

ईद उल अज़हा को लोग आमतौर पर बकरीद के नाम से भी जानते हैं. यह दुनिया भर के मुसलमानों के लिए दूसरा सबसा बड़ा त्योहार है. इस त्योहर महत्व का इस बात से भी समझ सकते हैं कि दुनियाभर के मुसलमान इसी मौके पर हज करने मक्का जाते हैं. यह इस्लाम के पांच मूल सिद्धांतों में से एक है. इस त्योहार में दुनियाभर के करोड़ों मुसलमान जानवरों की कुर्बानी भी देते हैं.

इस साल शनिवार 7 जून को ईद उल अजहा का त्योहार पड़ रहा है. लेकिन इसके साथ ही इस मौके पर दी जाने वाली जानवरों की कुर्बानी को लेकर एक बार फिर विवाद देखा जा रहा है. महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार में मंत्री नितेश राणे ने मुस्लिम समुदाय को वर्चुअल बकरीद मनाने की सलाह दे दी है. राणे ने कहा है कि जब हिंदू त्योहार वर्चुअली मन सकते हैं, तो बकरीद क्यों नहीं? इतना ही नहीं, उन्होंने ये भी कहा कि अगर जबरदस्ती किसी सोसाइटी में बकरे कटेंगे तो महाराष्ट्र की हिंदुत्व सरकार छोड़ने वाली नहीं है. इस बीच इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने बकरीद के मौके पर मुस्लिम समुदाय को सिर्फ उन जानवरों की कुर्बानी देने की सलाह दी है जिन पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं है. इसके साथ ही उन्होंने अपील की कुर्बानी किए गए जानवरों का खून नालियों में नहीं बहाया जाना चाहिए.

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तो चलिये जानते हैं कि यह त्योहार मुसलमानों के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इन मौके पर जानवरों की कुर्बानी का क्या महत्व है और इसके पीछे इस्लामी नियम क्या कहते हैं? आइए, ईद उल अज़हा के इतिहास, महत्व, और इस्लामी कायदे-कानून को विस्तार से समझते हैं…

बकरीद का क्या है इतिहास?

ईद उल अज़हा का इतिहास पैगंबर इब्राहिम अलैहिस्सलाम से जुड़ा है. वह इस्लाम, ईसाई और यहूदी तीनों ही धर्मों में सम्मानित पैगंबर हैं. कुरान के अनुसार, अल्लाह ने इब्राहिम अलैहिस्सलाम की भक्ति और आज्ञाकारिता की परीक्षा लेने के लिए उनसे अपने सबसे प्रिय बेटे की कुर्बानी मांगी. इस पर उन्होंने बिना हिचके अल्लाह की आज्ञा का पालन करने का फैसला किया और अपने प्रिय बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने का फैसला किया.

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इस्लामिक मान्यता के अनुसार, हजरत इस्माइल अलैहिस्सालाम को भी रास्ते में एहसास हो गया कि उनके पिता अल्लाह के हुक्म पर उनकी कुर्बानी देने के लिए ही उन्हें लेकर जा रहे हैं. हालांकि इसके बावजूद वह पीछे नहीं हटे. उन्होंने बस इतना कहा कि उनके पिता अपनी आंखों पर पट्टी बांध लें, क्योंकि वह खुली आंखों से अपने बेटे पर छुरी नहीं चला सकेंगे. इस तरह इब्राहिम आंखों पर पट्टी बांधकर अपने बेटे की कुर्बानी देने ही वाले थे, तभी जिब्रील अलैहिस्सालाम वहां आए और नन्हें इस्माइल की जगह एक दुंबा (भेड़ जैसी एक नस्ल) रख देते हैं. जिब्रील बताते हैं कि अल्लाह ने उनकी कुर्बानी कबूल कर ली है.

हर सक्षम मुसलमान के लिए कुर्बानी जरूरी

यह घटना कुरान में भी वर्णित है और इस्लाम में जानवरों की कुर्बानी की परंपरा का आधार बनी. यह त्योहार विश्वास, आज्ञाकारिता और अल्लाह के प्रति समर्पण का प्रतीक है. इसी की याद में मुसलमान हर साल ईद उल अज़हा पर जानवरों की कुर्बानी देते हैं. यह कुर्बानी अल्लाह के प्रति समर्पण और गरीबों के प्रति उदारता को दर्शाती है.

इस्लामी नियमों के अनुसार, कुर्बानी एक सुन्नत-ए-इब्राहिमी (यानी पैगंबर इब्राहिम की परंपरा) है, जिसे हर सक्षम मुसलमान पर वाजिब माना जाता है. हालांकि, यह केवल उन लोगों के लिए अनिवार्य है, जो आर्थिक रूप से सक्षम हों और निश्चित मात्रा में संपत्ति (निसाब) के मालिक हों. कुर्बानी के लिए आमतौर पर बकरी, भेड़ या ऊंट का चयन किया जाता है और इसे ज़िलहिज्जा (बकरीद के महीने) की 10वीं से 12वीं तारीख तक किया जाता है.

कुर्बानी के लिए क्या हैं कायदे-कानून?

इस्लामी कायदे-कानून के अनुसार, कुर्बानी के लिए कुछ सख्त नियम हैं. सबसे पहले, जानवर स्वस्थ, वयस्क, और किसी भी शारीरिक दोष से मुक्त होना चाहिए. उदाहरण के लिए, बकरी या भेड़ कम से कम एक साल की होनी चाहिए, जबकि ऊंट पांच साल का होना चाहिए. कुर्बानी करने वाले व्यक्ति को नीयत (इरादा) करना होता है कि वह यह कुर्बानी केवल अल्लाह की राह में कर रहा है.

तीन हिस्सों में बांटा जाता है कुर्बानी का मांस

कुर्बानी के जानवर का मांस तीन हिस्सों में बांटा जाता है. इसमें से एक हिस्सा परिवार के लिए, एक हिस्सा उन रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए जिनके घर कुर्बानी नहीं हुई है, और एक हिस्सा गरीबों-फकीरों के लिए रखा जाता है.

इस्लाम में कुर्बानी का मकसद बस मांस खाना या किसी जानवर की बलि देना नहीं है, बल्कि यह त्याग और दान की भावना को दर्शाता है. कुरान में भी कहा गया है, “न उनका मांस अल्लाह तक पहुंचता है, न उनका खून, बल्कि अल्लाह तक तुम्हारा तकवा (ईश्वर का भय) पहुंचता है.’ इसका मतलब है कि कुर्बानी का असली मकसद अल्लाह के प्रति भक्ति और समाज के प्रति जिम्मेदारी है. इसीलिए, बकरीद के दौरान मुसलमान नमाज अदा करते हैं, कुर्बानी देते हैं और लोगों के साथ त्योहार की खुशियां मनाते हैं.

क्या दी जा सकती है वर्चुअल कुर्बानी?

ईद उल अज़हा की परंपरा 14 सदी पहले पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय से चली आ रही है. उन्होंने हज और कुर्बानी की परंपराओं को व्यवस्थित किया और इसे इस्लाम का अभिन्न हिस्सा बनाया. आज, दुनिया भर में लगभग 1.9 अरब मुसलमान इस त्योहार को मनाते हैं. इस साल, बकरीद 7 जून को मनाई जाएगी, और इसके लिए तैयारियां जोरों पर हैं. दिल्ली की जामा मस्जिद, मुंबई की हाजी अली दरगाह, और लखनऊ की ईदगाह में खास नमाज का आयोजन होगा.

यह त्योहार हमें सिखाता है कि विश्वास और उदारता के साथ समाज में एकता और समृद्धि लाई जा सकती है. वैसे हाल के वर्षों में बकरीद को लेकर कुछ विवाद भी सामने आए हैं, जिसमें पशुओं की बलि को लेकर खास तौर से सवाल उठते रहे हैं. कुछ लोग इसे पर्यावरण या पशु क्रूरता से जोड़कर सवाल उठाते हैं. इसी कड़ी में कुछ लोग ईको फ्रेंडली होली या दिवाली का उदाहरण देते हुए वर्चुअल बकरीद मनाने की अपील भी करते हैं.

हालांकि मुस्लिम विद्वानों का कहना है कि कुर्बानी एक धार्मिक कर्तव्य है, जिसे इस्लामी नियमों के तहत मानवीय तरीके से किया जाता है. इसके साथ ही वह कहते हैं कि वर्चुअल कुर्बानी जैसी किसी चीज की इस्लाम में इजाजत नहीं. वह कहते हैं कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में, जहां विभिन्न समुदाय एक साथ रहते हैं, इस तरह के मुद्दों पर संवेदनशीलता और आपसी समझ की जरूरत है.

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