पटना. बिहार चुनाव को लेकर सबसे चर्चा में रहने वाला सवाल हमेशा यही रहा है क्या सचमुच बिहार बदला है? और अगर बदला है तो क्या बदला, कैसे बदला? इस सवाल का जवाब आज किसी राजनीतिक बयान में नहीं, बल्कि उन आंकड़ों में मिलता है जो पिछले चार दशकों की चुनावी हिंसा, पुनर्मतदान और कदाचार को सामने रखते हैं. 1985 में 63 मौतों से शुरू हुई बिहार की चुनावी हिंसा की कहानी 2025 में आकर शून्य हिंसा और जीरो रीपोल यानी शून्य पुनर्मतदान पर समाप्त होती दिख रही है. यह बदलाव सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक परिवर्तन का भी आईना है.
दरअसल, बिहार का चुनावी इतिहास जितना राजनीतिक उतार–चढ़ाव से भरा रहा है, उतना ही हिंसा और कदाचार के लिए भी चर्चित रहा है. 1980 और 90 के दशक में बिहार चुनाव का मतलब अक्सर गोलीबारी, बूथ लूट, फर्जी मतदान, पुलिस पर हमला और बड़ी संख्या में पुनर्मतदान से जुड़ा माना जाता था. लेकिन, 2025 का चुनाव इस लंबे इतिहास के ठीक उलट खड़ा है-जहां न हिंसा की बड़ी घटना हुई और न एक भी मतदान केंद्र पर पुनर्मतदान कराना पड़ा.
हिंसा और बूथों पर पुनर्मतदान
1985 का विधानसभा चुनाव बिहार में अत्यधिक हिंसक माना जाता है. चुनाव प्रक्रिया के दौरान 63 लोगों की मौत हुई और 156 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान कराना पड़ा. यह वह दौर था जब चुनावी हिंसा को सिस्टम का हिस्सा मान लिया गया था और प्रशासनिक नियंत्रण कई जगहों पर धराशायी दिखता था. इसी तरह 1990 का चुनाव भी बिहार के लिए बेहद खूनी साबित हुआ. सियासी उथल-पुथल और जातीय तनाव के बीच 87 लोगों की मौत हुई. यह संख्या बिहार को देश के सबसे संवेदनशील चुनावी राज्यों में शामिल करने के लिए पर्याप्त थी.
जब टी.एन. शेषन ने 4 बार चुनाव टाल दिए
भारत के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण हो जब किसी राज्य में चुनाव 4 बार स्थगित किए गए हों, लेकिन 1995 में यही हुआ. तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने अभूतपूर्व हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और चुनावी कदाचार को देखते हुए बिहार में चुनाव चार बार टाल दिए. यह दौर बिहार की चुनावी छवि के सबसे काले पन्नों में से एक माना जाता है.
2005 : 660 बूथों पर पुनर्मतदान
2005 के चुनाव तक स्थिति सुधार की ओर बढ़ी जरूर थी, लेकिन पूरी तरह नहीं. इस चुनाव में हिंसक घटनाओं और अव्यवस्थाओं के कारण 660 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान कराना पड़ा. यह संख्या उस दौर की उस प्रशासनिक चुनौती का प्रमाण है, जिससे बिहार उबरने के प्रयास में था.
2025 : पहली बार जीरो रीपोल, शून्य हिंसा
2025 का चुनाव इस ऐतिहासिक सिलसिले में पहली बार ऐसा रहा, जिसमें एक भी बूथ पर पुनर्मतदान नहीं कराना पड़ा. न कोई बड़ी हिंसक घटना हुई, न ही किसी तरह की बूथ कैप्चरिंग की स्थिति सामने आई. चुनाव आयोग की चौकसी, सुरक्षा प्रबंधन, CCTV निगरानी, जिला प्रशासन की सक्रियता और मतदाताओं की जागरूकता- यह सब मिलकर एक ऐसा चुनाव निर्माण कर गए जिसे बिहार का सबसे शांतिपूर्ण चुनाव कहा जा सकता है.
चार दशक में बिहार ने तय की लंबी यात्रा
इस शांतिपूर्ण चुनाव को जानकार बिहार की बदलती सामाजिक संरचना, अपराध नियंत्रण और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के नए मिजाज का परिणाम भी बताते हैं. दलों के बीच ध्रुवीकरण तो है, लेकिन हिंसा अब चुनाव का मुख्य हथियार नहीं रह गया है. प्रशासनिक जिम्मेदारी का स्तर बढ़ा है और मतदाता भी बूथ कैप्चरिंग को स्वीकार करने वाली उस पुरानी मानसिकता से बाहर निकल चुके हैं.
बिहार के चुनावों का चेहरा पूरी तरह बदला
बिहार में अक्सर कहा जाता है- क्या बदला है? इसका जवाब आज स्पष्ट है कि 1985 की 63 लाशों से लेकर 2025 के शून्य पुनर्मतदान तक बिहार बदला है. यह बदलाव सिर्फ कानून-व्यवस्था का नहीं, बल्कि सामाजिक परिपक्वता, चुनावी जागरूकता और राजनीतिक संस्कृति के धीरे-धीरे बदलते चरित्र का संकेत है. 2025 का चुनाव बिहार के लिए केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि उस लंबी यात्रा का पड़ाव है जिसमें लोकतंत्र हिंसा से निकलकर विश्वास और भागीदारी की ओर बढ़ा है.

3 weeks ago
