Last Updated:July 13, 2025, 13:06 IST
Bathani Tola Massacre: 11 जुलाई 1996 को बिहार के भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में रणवीर सेना ने 21 निर्दोष लोगों की हत्या कर दी थी। यह नरसंहार जातीय और सामाजिक संघर्ष का क्रूर चेहरा था जिसकी जड़ें नक्सल आंदोल...और पढ़ें

बथानी टोला नरसंहार की क्रूर यादें आज भी नहीं भूल पाए लोग.
हाइलाइट्स
भोजपुर के बथानी टोला नरसंहार को 1992 के बारा नरसंहार का बदला माना गया, रणवीर सेना ने दिया था अंजाम. 2010 में 23 आरोपियों को सजा मिली, पर 2012 में पटना हाई कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में सभी को बरी कर दिया. लालू यादव शासन काल में वर्ग संघर्ष को हथियार बनाने से बिहार में जातीय तनाव बढ़ा और कई नरसंहार किये गए.पटना. बिहार के भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में 11 जुलाई 1996 को नरसंहार हुआ था. यह बिहार के इतिहास का एक भयावह अध्याय है जिसमें 21 निर्दोष लोगों-ज्यादातर दलित और मुस्लिम समुदाय से की बर्बर हत्या कर दी गई थी. यह घटना न केवल जातीय संघर्ष की चरम अभिव्यक्ति थी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक शक्ति संतुलन के गहरे प्रभाव को भी बताती है. जानकार बताते हैं कि बथानी टोला में हिंसा का कारण 1992 के बारा गांव नरसंहार का बदला माना जाता है, जहां माओवादियों ने 35 भूमिहारों की हत्या की थी. यह जातीय प्रतिशोध की एक कड़ी थी जहां जमींदारों ने दलितों और गरीबों को निशाना बनाया.
दरअसल, बथानी टोला नरसंहार की जड़ें 1970 के दशक में नक्सल आंदोलन और भूमि सुधार की मांगों से भी जुड़ी थी. उस दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने दलितों और गरीब किसानों को संगठित कर जमींदारों के खिलाफ आवाज उठाई जिससे उच्च जातियों-विशेषकर भूमिहारों-में असुरक्षा की भावना बढ़ गई थी. इसके बाद गया जिले में वर्ष 1992 में बारा नरसंहार को अंजाम दिया गया जिसमें 35 से अधिक भूमिहारों को हाथ-पैर बांधकर नहर किनारे ले जाया गया और गला रेतकर हत्या कर दी गई. इसके बाद वर्ष 1994 में रणवीर सेना का एक निजी सेना के तौर पर गठन हुआ था जो उच्च जातियों के हितों की रक्षा के लिए बनी थी.
भोजपुर जिले के बथानी टोला की फाइल तस्वीर.
स्थानीय पुलिस की मौजूदगी संदिग्ध रही
कहा जाता है कि बारह नरसंहार का बदला लेने के लिए 11 जुलाई 1996 को दोपहर में रणवीर सेना के सशस्त्र सदस्यों ने बथानी टोला पर हमला बोल दिया. गोलियों और तलवारों से लैस हमलावरों ने 11 महिलाओं, 8 बच्चों और 2 पुरुषों-जिनमें 6 महीने से लेकर 70 साल तक की उम्र के लोग शामिल थे, की हत्या कर दी. यह घटना दिनदहाड़े हुई थी जिसमें स्थानीय पुलिस की मौजूदगी संदिग्ध रही. शुरुआती जांच में 33 नामजद और 35 अज्ञात आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ. वर्ष 2010 में आरा सेशन कोर्ट ने 23 आरोपियों को दोषी ठहराया, लेकिन 2012 में पटना हाई कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में सभी को बरी कर दिया, जिसने पीड़ितों में गहरा अविश्वास पैदा किया और विभिन्न वर्गों में वैमनस्यता बढ़ाने का काम किाय.
राजनीति के दखल ने भड़काई ‘आग’
जानकार बताते हैं कि बथानी टोला नरसंहार में राजनीति का गहरा हाथ रहा. 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में सामाजिक न्याय की राजनीति चरम पर थी, लेकिन जातीय हिंसा पर नियंत्रण नहीं हो सका. रणवीर सेना के गठन और उसके हमलों को कुछ जानकारों ने स्थानीय राजनेताओं के समर्थन से जोड़ा जो वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए जातीय तनाव को हवा दे रहे थे. हाई कोर्ट के फैसले पर सरकार की सुस्ती और बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने में देरी ने राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को उजागर किया. हाल के वर्षों में जेडीयू और भाजपा ने इस घटना को विपक्ष, खासकर राजद पर हमला बोलने के लिए उठाया जिससे यह मुद्दा फिर से राजनीतिक हथियार बन गया है.
भूला नहीं है बिहार…1996 का बथानी टोला नरसंहार. जनता दल यूनाइटेड ने लालू यादव के शासन काल पर सवाल उठाया है.
जातीय संघर्ष का प्रतिफल बथानी टोला नरसंहार
बथानी टोला नरसंहार ने बिहार में जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया. इस घटना ने दलितों और उच्च जातियों के बीच अविश्वास को बढ़ाया जिसका असर चुनावी राजनीति में देखा गया. वर्ष1997 का लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार इसकी अगली कड़ी थी जहां 58 दलितों की हत्या हुई. न्यायिक प्रक्रिया में बार-बार अभियुक्तों की रिहाई ने पीड़ितों के मन में असुरक्षा और गुस्सा पैदा किया जिससे नक्सली गतिविधियां और बढ़ीं. हालांकि, 2007 के बाद बड़े नरसंहार रुके, लेकिन छोटे-मोटे टकराव जारी रहे. 2023 की जाति आधारित जनगणना ने फिर से जातीय समीकरणों को हवा दी जो भविष्य में तनाव को प्रभावित कर सकता है.
जातीय जंग ने मानवता को शर्मसार किया
बथानी टोला नरसंहार केवल एक हिंसक घटना नहीं, बल्कि बिहार की सामाजिक-राजनीतिक संरचना का आईना है. भूमि और शक्ति के लिए लड़ी गई यह जंग ने मानवता को शर्मसार किया. राजनीति ने इसे ईंधन दिया और न्यायिक प्रणाली की कमजोरियां इसे और जटिल बनाया. आज भी यह घटना बिहार के सामाजिक ताने-बाने पर सवाल उठाती है. सरकार को चाहिए कि वह ऐसी घटनाओं से सबक लेते हुए सामाजिक समरसता और न्याय सुनिश्चित करे, अन्यथा जातीय संघर्ष का यह दंश फिर सिर उठा सकता है.
पत्रकारिता क्षेत्र में 22 वर्षों से कार्यरत. प्रिंट, इलेट्रॉनिक एवं डिजिटल मीडिया में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन. नेटवर्क 18, ईटीवी, मौर्य टीवी, फोकस टीवी, न्यूज वर्ल्ड इंडिया, हमार टीवी, ब्लूक्राफ्ट डिजिट...और पढ़ें
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