35 वर्षों से, भारत पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद और छद्म युद्ध का सामना कर रहा है. यह युद्ध पारंपरिक युद्ध की तरह सीधे तौर पर नहीं है, बल्कि एक अनदेखी और छिपी हुई लड़ाई है. 1990 के दशक की शुरुआत से पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों में हिंसा फैलाने के लिए आतंकवादी गुटों को प्रशिक्षण, हथियार, और पनाहगाह दी. पाकिस्तान ने यह विश्वास बनाए रखा कि हर बार ‘परमाणु युद्ध की धमकी’ देकर वह भारत को जवाबी कार्रवाई से रोक सकेगा, और कुछ हद तक ऐसा हुआ भी.
इस छद्म युद्ध की कड़ी में 1993 के मुंबई सीरियल धमाके, 1999 का कांधार हाईजैक, 2001 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा और संसद पर हमले, 2005 दिल्ली व 2006 मुंबई लोकल सीरियल ब्लास्ट, 2008 जयपुर धमाके, 26/11 मुंबई हमला, 2016 पठानकोट और उरी हमले, 2019 पुलवामा हमले, और हालिया 2025 पहलगाम आतंकी हमले जैसे कई बड़े हमले शामिल रहे हैं. इन सभी हमलों का पाकिस्तान और उसके आतंकवादी संगठनों से सीधा या परोक्ष संबंध रहा है.
2016 में उरी में भारतीय सेना के बेस कैंप पर हुए आतंकी हमले ने भारत की रणनीति में महत्वपूर्ण मोड़ लाया. वर्षों तक संयम की नीति अपनाने के बाद भारत ने अब एक मजबूत और निर्णायक जवाब देने का फैसला किया. इस बदलाव का परिणाम था 2016 में नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में किया गया सर्जिकल स्ट्राइक. इसके बाद 2019 में पुलवामा हमले के बाद, भारत ने बालाकोट (PoK) में एयर स्ट्राइक करके दुनिया को यह संदेश दिया कि अब भारत केवल सहने वाला नहीं, बल्कि कार्रवाई करने वाली नीति पर चलेगा.
1947, 1962, 1965, 1971, 1984 और 1999 — इन सभी युद्धों को पाकिस्तान ने भारत पर थोपे, और हर बार उसे हार का सामना करना पड़ा, साथ ही भारी जान-माल का नुकसान भी हुआ. 1971 में, पाकिस्तान ने अपना पूर्वी हिस्सा गंवाकर एक नया राष्ट्र, बांग्लादेश, खो दिया, जो उसकी सबसे बड़ी सैन्य और राजनीतिक हार मानी जाती है. लगातार पारंपरिक युद्धों में पराजित होने के बाद, पाकिस्तान यह समझ गया कि भारत को युद्ध के मैदान में हराना अब संभव नहीं है. इस रणनीतिक बदलाव के बाद, पाकिस्तान ने पारंपरिक युद्धों की जगह ‘छद्म युद्ध’ और ‘आतंकवाद’ का सहारा लिया, ताकि भारत को कमज़ोर किया जा सके और उसे संघर्ष में उलझाया जा सके.
“अफगान मुजाहिदीन, अफ़गान-सोवियत युद्ध”
अफ़गान-सोवियत युद्ध ने “जिहाद + आतंकवाद” को एक रणनीतिक हथियार के रूप में स्थापित किया, और यह पाकिस्तान द्वारा सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान युद्ध में पहली बार इस्तेमाल किया गया. यहीं से पाकिस्तान को इस रणनीति की ताकत का अहसास हुआ. दिसंबर 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, और इस घुसपैठ ने पाकिस्तान के लिए अपनी संप्रभुता पर गंभीर खतरा पैदा कर दिया.
इस दौरान, अमेरिका ने अफगान लड़ाकों का खुलकर समर्थन किया, जो सोवियत सेना के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे. जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, तब अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने व्यक्तिगत रूप से पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक को फोन किया और पाकिस्तान को 3.2 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता देने की पेशकश की, ताकि वह अमेरिका का साथ दे सके और अफगान मुजाहिदीन को समर्थन दे सके, जो रूस के खिलाफ लड़ रहे थे.
चूंकि अमेरिका पहले से ही अफगान युद्ध में शामिल था, पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया-उल-हक ने अमेरिकी अधिकारी “केसी” से आश्वासन मिलने के बाद यह सहमति दी कि पाकिस्तान मुजाहिदीन को मदद देगा और सोवियत संघ पर दबाव बनाने की कोशिश करेगा. पाकिस्तान ने अमेरिका को अफगानिस्तान में सोवियत सेना की गतिविधियों पर खुफिया जानकारी प्रदान करने का नया तरीका पेश किया. बदले में, पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैन्य और आर्थिक सहायता मिली, ताकि वह सोवियत सेना के खिलाफ लड़ रहे मुजाहिदीन का समर्थन करता रहे. अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ चलाए गए जिहाद ने चरमपंथ और कट्टरता को बढ़ावा दिया. पाकिस्तान ने इस रणनीति को भारत के खिलाफ लागू किया — कम लागत में लंबे समय तक भारत को अस्थिर बनाए रखना और हर आतंकी कार्रवाई के पीछे परमाणु युद्ध की धमकी की ढाल तैनात करना, ताकि भारत कोई कठोर सैन्य जवाब न दे सके.
अफगान मुजाहिदीन, जो पहले केवल एक हथियार के रूप में इस्तेमाल होते थे, सोवियत युद्ध के बाद पाकिस्तान के हाथ लग गए. पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने इसे एक अवसर के रूप में देखा, ताकि वे जम्मू-कश्मीर में चल रही राजनीतिक लड़ाई को और हवा दे सकें. 1989 से पाकिस्तान ने इन बेरोज़गार अफगान मुजाहिदीन को कश्मीर भेजना शुरू किया. अफगान तालिबान की सोच देवबंदी विचारधारा से उत्पन्न हुई है. सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान, अफगान लड़ाके पाकिस्तान से आए आतंकवादियों को ‘पंजाबी मुजाहिदीन’ कहते थे, लेकिन जब ये पाकिस्तानी आतंकी जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ करने लगे, तो इन्हें जानबूझकर ‘अफगान मुजाहिदीन’ कहा गया, जबकि असल में ये पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के निवासी थे.
पाकिस्तान में कई आतंकी संगठन हैं जो खुद को सिर्फ ‘कश्मीर घाटी’ पर केंद्रित बताते हैं, जिनमें जमात-ए-इस्लामी (JI), हिज़बुल मुजाहिदीन (HM), जैश-ए-मोहम्मद (JM), और लश्कर-ए-तैयबा (LeT) शामिल हैं. पाकिस्तान का लक्ष्य कश्मीर में धार्मिक लड़ाई यानी ‘जिहाद’ चलाकर उसे पाकिस्तान का हिस्सा बना लेना था. इसी मकसद से उसने अफगान मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-झंगवी जैसे आतंकी संगठनों के पाकिस्तानी लड़ाकों को कश्मीर भेजा। सोवियत-अफगान युद्ध में सोवियत सेना की हार के बाद, अफगान मुजाहिदीन की एक बड़ी संख्या बच गई, जिन्हें कश्मीर घाटी में भेजा गया. इस स्थिति ने ‘ऑपरेशन टॉपैक’ या ‘जिया का प्लान’ को शुरू करने के लिए एक अच्छा अवसर प्रदान किया, जो 1984 में पाकिस्तान में बनाई गई एक योजना थी. इस योजना के तहत भारतीय प्रशासन वाले जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह को गुपचुप तरीके से समर्थन देना था. हालांकि, जम्मू कश्मीर की जनता ने इसे कभी सफल होने नहीं दिया.
1990-91 के दौरान, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने रणनीतिक रूप से जमात-ए-इस्लामी द्वारा बनाए गए आतंकी संगठनों हिज़बुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा, और जैश-ए-मोहम्मद को मजबूत करना शुरू किया. इन समूहों को पाकिस्तान ने कश्मीर में आतंकवाद फैलाने और भारतीय सुरक्षा बलों से लड़ने के लिए सक्रिय रूप से समर्थन दिया.
ऑपरेशन टॉपैक या ‘जिया का प्लान’
1971 के युद्ध में पाकिस्तान की बुरी हार और बांग्लादेश के अलग होने के बाद, पाकिस्तान को यह समझ में आ गया कि वह भारत जैसी ताकतवर सेना से सीधा युद्ध नहीं जीत सकता. इसके बाद पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल जिया-उल-हक और उसकी खुफिया एजेंसी ISI ने एक योजना बनाई, जिसे ‘ऑपरेशन टॉपैक’ या ‘जिया का प्लान’ कहा गया. इस योजना का उद्देश्य था – भारत को अंदर से कमजोर करना, आतंकवादियों के माध्यम से भारत में खून-खराबा फैलाना, और नेपाल और बांग्लादेश की खुली सीमाओं का फायदा उठाकर भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाना.
13 दिसंबर 1989 को कश्मीर में आतंकवाद की शुरुआत मानी जाती है, जब गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबैया सईद को आतंकियों ने अगवा कर लिया. सरकार को मजबूरी में 5 आतंकियों को छोड़ना पड़ा, और इस घटना से आतंकियों के हौसले बढ़ गए. कश्मीर घाटी में खुला आतंकवाद शुरू हुआ, जो ऑपरेशन टॉपैक की पहली बड़ी सफलता थी. अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने अप्रैल 2001 में जो रिपोर्ट जारी की थी, उसमें कहा गया था कि हिज़बुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा, अल-बद्र और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन, जो आज भी कश्मीर में हिंसा फैला रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान से पूरी मदद मिलती है.
जैश-ए-मोहम्मद (JeM)
पाकिस्तान में मसूद अज़हर ने साल 2000 में इसकी शुरुआत की, तभी वह भारत की जेल से रिहा हुआ. उसका मुख्य उद्देश्य कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना था. जैश-ए-मोहम्मद कट्टरपंथी पार्टी जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (फज़लुर रहमान गुट) से जुड़ा हुआ है. मसूद अज़हर को दिसंबर 1999 में उस समय रिहा किया गया था, जब इंडियन एयरलाइंस के अपहरण किए गए विमान के बदले 155 यात्रियों की जान बचाने के लिए भारत ने उसे छोड़ा. जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी कश्मीर में हमले करते हैं, जबकि इसका नेटवर्क पेशावर और मुज़फ्फराबाद से चलता है, और 2001 तक इसके ट्रेनिंग कैंप अफगानिस्तान में थे.
लश्कर-ए-तैयबा (LT)
लश्कर-ए-तैयबा पाकिस्तान के एक धार्मिक संगठन मरकज़-उद-दावा-व-इरशाद (MDI) का आतंकी हिस्सा है. यह संगठन 1989 में बना था और अमेरिकी विरोधी सोच फैलाता है. लश्कर की कमान अब्दुल वहीद कश्मीरी के पास है, और यह कश्मीर में भारत के खिलाफ लड़ने वाला एक प्रमुख आतंकी संगठन है. 2001 में, लश्कर ने कई हमले किए, जैसे श्रीनगर एयरपोर्ट पर हमला जिसमें 5 भारतीय और 6 आतंकी मारे गए, पुलिस स्टेशन पर हमला जिसमें 8 पुलिसकर्मी मारे गए, और बीएसएफ पर हमला जिसमें 4 जवान शहीद हुए. 13 दिसंबर 2001 को संसद भवन पर हमले के लिए भारत सरकार ने लश्कर और जैश-ए-मोहम्मद दोनों को ज़िम्मेदार ठहराया. लश्कर को पैसा पाकिस्तान और कश्मीर के कुछ व्यापारियों, एनजीओ, और खाड़ी देशों व यूके में रहने वाले पाकिस्तानी लोगों से मिलता है.
हरकत-उल-मुजाहिदीन (HUM)
यह पाकिस्तानी आतंकी संगठन कश्मीर में आतंकी हमलों को अंजाम देता है. इसका जुड़ाव पाकिस्तान की कट्टरपंथी पार्टी जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (फज़लुर रहमान गुट) से है. इसके पुराने नेता फज़लुर रहमान खलील थे, जिन्होंने 1998 में ओसामा बिन लादेन के साथ मिलकर अमेरिका और पश्चिमी देशों पर हमले की अपील करने वाला फतवा जारी किया था. 2000 में उसने संगठन की कमान फारूक कश्मीरी को दी। HUM ने अफगानिस्तान में आतंकी ट्रेनिंग कैंप चलाए, जिन्हें 2001 में अमेरिकी हमलों में नष्ट कर दिया गया. इसका एक गुट अल-फरान था, जिसने 1995 में कश्मीर में पाँच विदेशी पर्यटकों का अपहरण किया था. एक को मार दिया गया और बाकी चार को भी बाद में मार डाला गया. HUM ने 24 दिसंबर 1999 को इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण किया था, जिसके बदले में भारत ने मसूद अज़हर और उमर शेख को रिहा किया. उमर शेख ने बाद में अमेरिकी पत्रकार डैनियल पर्ल का अपहरण और हत्या की. इस संगठन के ठिकाने मुज़फ्फराबाद, रावलपिंडी और पाकिस्तान के अन्य हिस्सों में हैं, लेकिन इसका अधिकांश काम कश्मीर में ही होता है.
“पाकिस्तान का भ्रम तोड़ने में 35 साल लगे”
लगभग 35 वर्षों तक भारत ने अत्यधिक संयम का परिचय दिया—हर आतंकी हमले, हर शहीद जवान, और हर बार जब सीमा पार से हिंसा थोपी गई, तब भी भारत ने कूटनीतिक और राजनीतिक मार्गों को प्राथमिकता दी. भारत में आतंकवाद के इतिहास को समझने के लिए वर्ष 1989 एक निर्णायक मोड़ है. इसी वर्ष जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद ने गंभीर रूप धारण किया, जब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) के नेतृत्व में अलगाववादियों ने ‘स्वतंत्र कश्मीर’ की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ा. इस विद्रोह को पाकिस्तान ने पूर्ण समर्थन दिया—आतंकियों को हथियार, पैसा और प्रशिक्षण मुहैया कराया गया.
दरअसल, पाकिस्तान 1980 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ जो रणनीति आज़मा चुका था, अब वही मॉडल भारत के खिलाफ लागू कर रहा था. ISI का भरोसा था कि भारत को धीरे-धीरे चोट पहुंचाई जा सकती है, और यदि भारत कोई सख्त जवाब दे, तो परमाणु युद्ध की धमकी देकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को हस्तक्षेप के लिए मजबूर किया जा सकता है. इस ‘न्यूक्लियर ब्लैकमेल’ की रणनीति के तहत ही पाकिस्तान ने आतंकवाद को अपनी “राजनीतिक नीति” का औजार बना लिया.
दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद भारत ने ‘ऑपरेशन पराक्रम’ के तहत सीमा पर विशाल सैन्य जमावड़ा किया. लेकिन बावजूद इसके, कार्रवाई सीमित ही रही, इससे पाकिस्तान का विश्वास और गहरा हो गया कि भारत युद्ध नहीं चाहेगा.
फिर 26/11 मुंबई आतंकी हमले ने भारत की सहनशीलता की अंतिम परीक्षा ली. आतंकियों ने देश के आर्थिक और सुरक्षा केंद्र पर सीधा हमला किया. सेना कार्रवाई के लिए पूर्ण रूप से तैयार थी. प्रधानमंत्री कार्यालय में उच्चस्तरीय बैठकें हुईं, सभी विकल्पों पर गहन विचार-विमर्श भी हुआ, लेकिन उस समय की सरकार ने निर्णायक कदम नहीं उठाया.
“ऑपरेशन सिन्दूर” उस संयम की अंतिम कड़ी थी, जो अब टूट गई है. ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत पहलगाम आतंकवादी हमलों की पृष्ठभूमि में की गई. 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में पाकिस्तान के आतंकियों ने 25 भारतीय और 1 नेपाली पर्यटक की हत्या कर दी. इस हमले में भारतीय महिलाओं के सुहाग चीन लिए गए.
इसके बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर जवाबी कार्रवाई करने का निर्णय लिया. इसी के तहत 7 मई 2025 को भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में नौ आतंकवादी ठिकानों पर सटीक हवाई हमले किए, जिसे भारत ने ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया.
ऑपरेशन सिंदूर ने भारत की रणनीतिक सोच में मौलिक बदलाव दिखाया. 1971 के बाद पहली बार भारतीय बलों ने अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर आतंकी गढ़ों पर हमला किया. इस कदम से स्पष्ट संदेश गया कि आतंकवादियों को उनका ठिकाना सुरक्षित नहीं रहेगा और भारत अब उनकी ‘घर में घुसकर’ नकेल कसने पर विश्वास करता है. इस अभियान ने आतंकवाद और उसके इर्द-गिर्द रहने वाली धारणा की दीवार को ध्वस्त कर दिया.
दशकों तक हर आतंकी हमले के बाद धैर्य दिखाने के बाद, अब भारत ने स्पष्ट नीति बना ली है कि भविष्य में किसी भी आतंकवादी हमले को सिर्फ ‘आतंकी घटना’ नहीं, बल्कि ‘भारत पर घोषित युद्ध’ माना जाएगा.