क्या आपने कभी मखमली रोटी खाई है. मखमल जैसी नर्म. अंगुली भर रखो तो कट जाए. मुंह में जाते ही घुल जाए. किसी जमाने में ऐसी रोटी राजघरानों की शान है. हालांकि अब तो ये गायब हो चुकी है. राजघराने गए तो ये रेशमी रोटियां भी गायब हो गईं. इसके साथ ही गायब हो गया मखमली पराठा भी, जिसको खाने वाले उसके दीवाने हो जाते थे.
मखमली रोटी नाम पड़ा उसकी मखमल जैसी नर्मी और बिल्कुल बारीक रेशमी परतों के लिए. ये न आम तंदूरी रोटी थी, न तवा पराठा बल्कि महीन मैदा और थोड़ा मलमल जैसी बारीक सत्तेदार लेयरिंग के साथ बनती थी. उसमें कभी अंडे, कभी मलाई या दूध मिलाकर आटा गूंथा जाता था. घी या मक्खन में दम पर या रोटियां सेंकने वाली धीमी आंच पर पकाया जाता था.
इतनी पतली कि दूसरी तरफ का हिस्सा झांके
रोटी की मोटाई इतनी पतली होती थी कि दूसरी तरफ का हिस्सा हल्का झांकने लगता था, इतनी मुलायम कि उंगलियों से भी फट जाए. इसमें खासियत होती थी कि मुंह में जाते ही घुल जाए. हर निवाले में घी, केसर, केवड़ा, गुलाब जल की खुशबू आए.
वाजिद अली शाह के बावर्चीखाने की देन
ज़्यादातर इतिहासकार और दस्तरख़्वान रिसर्चर इसे अवध (लखनऊ) के नवाब वाजिद अली शाह के बावर्चीख़ाने की देन मानते हैं. इसके कुछ रूप पटियाला और भोपाल की बेगमों के दस्तरख़्वान में भी दिखते हैं. इस रोटी के बारे में ज्यादा जानने से पहले इसे लेकर कहे जाने वाली तीन किस्सों को भी जान लें.
प्रतीकात्मक तस्वीर (image generated by leonardo ai)
कहानी 1 – नवाब वाजिद अली शाह और मखमली रोटी
कहा जाता है कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह को खाना खाने में जितना शौक था, उतना ही खाना देखने का भी. एक बार नवाब साहब ने अपने खास बावर्ची से कहा, “ऐ हाजी मियां! कोई ऐसी रोटी बना के लाओ, जो दिखाई दे तो मखमल की चादर लगे और खाई जाए तो मुंह में घुल जाए.”
हाजी मियां ने बहुत सोचा. तंदूर वाली रोटी, तवा पराठा, ताफ्तान, शीरमाल सब बन चुके थे. फिर उसने पहली बार मलाई, दूध, केवड़ा और केसर डालकर मैदा गूंथा. बहुत बारीक परतें बनाई, बीच में घी और अरारोट लगाया. फिर इसे धीरे-धीरे सेंक कर पेश किया.
वाजिद अली शाह का शानदार खाने और महफिलें सजाकर रासरंग करने का शौक था.
कहानी 2- पटियाला के महाराजा और मखमली पराठा
महाराजा भूपिंदर सिंह को अपने भारी भरकम पराठों के लिए जाना जाता था. एक दिन लखनऊ के नवाबी दस्तरख़्वान से लौटे महाराजा ने कहा,
“हमारे यहां भी ऐसा पराठा चाहिए जो मखमली हो. ऐसा कि छुरी से भी न कटे.”
पटियाला के शाही बावर्ची गुलाम रसूल किचन वाले ने खूब कोशिशें कीं. मैदा, मलाई, केसर, बादाम-पिस्ता का पेस्ट मिलाकर मखमली पराठा तैयार किया.
वो इतना नरम और घी-दार था कि महाराजा ने खाकर कहा, “आज पहली बार लगा जैसे रोटी नहीं मखमल खा रहा हूं.” उस दिन के बाद से महाराजा के दस्तरख़्वान में हर जश्न और मुशायरे में मखमली पराठा बनवाया जाता था. जब भी कोई मेहमान खाने आता था तो उसे मखमली पराठा जरूर पेश किया जाता.
कहानी 3 – बेगम सुल्ताना जहां का दस्तरख़्वान (भोपाल)
भोपाल की बेगम सुल्ताना जहां ने एक बार एक मुशायरे में कहा, “आज ऐसी रोटी चाहिए जो महबूब की जुल्फ़ों की तरह नर्म हो.” उसकी फरमाइश पर बावर्चियों ने पहली बार अंडे, मलाई और केवड़ा वाला आटा गूंथ कर मखमली रोटी बनाई. कहते हैं, उस रात पूरे मुशायरे में शायरी से ज़्यादा मखमली रोटी का ज़िक्र हुआ.
प्रतीकात्मक तस्वीर (image generated by leonardo ai)
ये तीनों कहानियां यही कहती हैं कि शाही खाने में सिर्फ स्वाद नहीं, तकरीब, महक और शान भी चाहिए होती थी. अवध के नवाब रोटी को भी उतना ही शाही बनाना चाहते थे जितना कबाब या बिरयानी. इसलिए उनके शाही बावर्चियों ने रोटियों के कई वेरिएशन बनाए. जैसे – शीरमाल, ताफ्तान और फिर बनी मखमली रोटी. जिसे बाद में हैदराबाद के निज़ाम, पटियाला के महाराजा और भोपाल की बेगम सुल्ताना जहां ने भी अपनाया.
क्या अब कहीं बनती है ऐसी मखमली रोटी
असली मखमली रोटी अब लगभग लुप्तप्राय है. हालांकि इसके नज़दीकी कुछ रूप आज भी लखनऊ के पुराने कबाबी मोहल्लों, हैदराबाद के चारमीनार के पीछे गलियों में और भोपाल के इब्राहीमपुरा में मिल जाते हैं. अब लोग इसे ‘मलमल पराठा’ या ‘रेशमी रोटी’ कहने लगे हैं, मगर असली मखमली रोटी की तरह टेक्सचर और ख़ुशबू अब नहीं के बराबर बची है.
कुछ चुनिंदा होटल जैसे, इम्पीरियल दिल्ली, ताज लखनऊ और फलकनुमा हैदराबाद अपनी ‘रॉयल अवधी थाली’ में इसका आधुनिक रूप पेश करते हैं, लेकिन ये मूल जैसी नहीं हैं. अवध में कहा जाता था,
“मखमली रोटी वो, जो कबाब के साथ भी चाकू से ना कटे, मगर जीभ पर रखते ही घुल जाए.”
यानी ऐसी मुलायम कि छुरी से नहीं, बल्कि उंगलियों से भी संभालनी मुश्किल.
मखमली पराठे का प्रतीकात्मक चित्र (image generated by leonardo ai)
क्या होता था मखमल पराठा
‘मखमल पराठा’ नाम सुनते ही ज़हन में रेशमी मुलायम परतों वाला घी से चमचमाता एक शानदार पराठा तस्सवुर में आता है. असल में मखमल पराठा भारतीय शाही रसोईयों की एक बेहद नायाब और लुप्त हो चुकी डिश है, जिसका ज़िक्र खासकर पटियाला, अवध, और हैदराबाद की दरबारी बावर्चीखानों में मिलता है.
ये ‘मखमली’ यानी मखमल जैसी मुलायम बनावट और स्वाद के चलते पड़ा. यह आम पराठे से बिल्कुल अलग था. बारीक परतों वाला. घी में बहुत धीरे-धीरे सेंका हुआ और खासतौर पर बादाम, पिस्ता, केवड़ा, और केसर के लेप में तैयार किया जाता था.
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पराठे के बीच भरते थे सूखे मेवे या कीमा
इस पराठे के आटे में महीन मैदा और थोड़ा अरारोट मिलाया जाता था ताकि परतें बहुत बारीक और मुलायम बनें. घी से परत-दर-परत बेलकर कम आंच पर दम में सेंका जाता था, जिससे उसका टेक्सचर बिलकुल रेशमी मखमल जैसा हो जाए. पराठे के बीच में कभी-कभी मावा (खोया), सूखे मेवे, या कीमा भी भरा जाता था. इसके ऊपर परोसने से पहले गुलाब जल, केवड़ा जल या केसर का अर्क छिड़का जाता था.
शाही कबाब, निहारी के साथ परोसी जाती थी
इसे चांदी के थाल में रखा जाता था. कभी-कभी इस पर सोने-चांदी के वर्क भी लगाए जाते थे. इसे शाही कबाब, निहारी या दम-ए-पटियाला के साथ परोसा जाता था. पटियाला के दरबार में इसे खासकर सर्दियों में रात के भोज के समय परोसा जाता था. लखनऊ के नवाबी दौर में भी शाही दस्तरख़्वान का हिस्सा रहा. बाद में कुछ रूपों में हैदराबाद के किचन में इसे शीरमाल की तरह मीठे फ्लेवर में भी बनाया गया.
कहा जाता है कि पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह को जब कोई खास दावत अपने अंग्रेज़ मेहमानों के लिए रखनी होती, तो वे ‘मखमल पराठा’ ज़रूर बनवाते थे. एक बार एक अंग्रेज़ जनरल ने इसे खाकर कहा, “ये तो मेरी बीवी के हाथ से भी ज्यादा मुलायम है.”