रागों पर थिरकती थी वाजिद अली की रसोई.. बेवफा कबाब, बिना प्याज-लहसुन की बिरयानी

12 hours ago

कहा जाता है कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह की शाही रसोई में संगीत बजता रहता है. जिससे रसोई और खानों का मूड तय होता था. वो ऐसे नवाब थे जो खानों की रवायतों और प्रयोगों को अगले लेबल पर ले गए. बहुत से वो व्यंजन जो आपके इर्द गिर्द बहुत मशहूर होंगे, उसके बारे में आपको अंदाज ही नहीं होगा कि ये वाजिद अली शाह के दिमाग की देन है. कई बार वो चुनौतियां देते थे. क्या आपको बेवफा कवाब की कहानी मालूम है और उसी तरह बगैर प्याज लहसुन के बनाई गई बिरयानी की.

सबसे पहले बात करते हैं नवाब वाजिद अली शाह की शाही रसोई और गीत-संगीत से उसके रिश्ते की. उनके लिए वो जगह कलात्मक साधना की तरह थी, जिसमें संगीत, राग, इत्र, इबादत और खाने का ज़ायका एक साथ घुल-मिल जाते थे. उनका मानना था कि “भूख भी एक सुर है, और खाना उसका राग.”
यह अवध की संस्कृति में “रसोई को रस का साधन” मानने का सबसे बड़ा उदाहरण था.

वाजिद अली शाह के दरबार में खाना पकाने के समय विशेष राग बजाए जाते थे. हर समय का राग अलग होता था और उसी अनुसार खाना भी अलग समय के अनुसार अलग जायका और मूड लिए होता था. अगर रात में राग दरबारी शंकरा के स्वर बिखरते थे तो ये भोजन भारी, गाढ़ा और मांसाहारी होता था. सुबह की राग भैरव से होती थी मतलब ये समय हल्के सात्विक भोजन का है, लिहाजा उस समय खाना या नाश्ता उसी मूड का होता था.

बावर्ची इन रागों को सुनते हुए खाना पकाते थे, ताकि हाथों की चाल और दिमाग की गति में तालमेल बना रहे. उन्हें सिखाया गया था कि खाना “आवाज़” सुनकर पकाया जाए, घड़ी देखकर नहीं. शाही बावर्चियों को संगीत की प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी. ये अभिनव प्रयोग लगता है. बाद खानपान की दुनिया में इसे दोहराया गया हो या किसी और तरीके से किया गया हो, लगता नहीं. लेकिन ये जरूर लगता है कि वाजिद अली अपने समय के कितने इनोवेटिक शख्स रहे होंगे.

‘कोफ्ता ए नरगिसी’ के साथ राग यमन में ठुमरी

जब “कोफ्ता-ए-नरगिसी” पकता था, तो अक्सर राग यमन में एक ठुमरी गाई जाती थी, “नैन मिलाय के, प्रेम बताय के…” बावर्ची मानते थे कि इससे हाथों में नमी और दिमाग में लय बनी रहती है. अवध के नवाब की रसोई के किस्से पूरे देश में प्रसिद्ध हैं. यहां तक कि जब अंग्रेजों ने उन्हें कोलकाता के लिए दरबदर कर दिया तो भी वो अपने साथ सारी दरबारी महफिल, जनानखाना और शाही रसोई का लावलश्कर ले गए.

‘बेवफा कबाब’ की कहानी

तो आपको इस नाम से क्या लग रहा है. कैसा रहा होगा बेवफ़ा कबाब और कैसे बना होगा. इसका भी एक किस्सा तो है ही. नवाब वाजिद अली शाह ने मुख्य खानसामे से कहा, “एक ऐसा कबाब बनाओ, जो जीभ पर आते ही ग़ायब हो जाए – जैसे किसी महबूब की बेवफ़ाई!”

नवाब का मतलब था, मुलायम, रेशमी, मुंह में घुल जाने वाला – कच्चा, मगर पका हुआ लगे. यह चुनौती “तलत अली बावर्ची” को दी गई. उसने महीनों तक मांस को पपीते के रस, दही और 120 से ज़्यादा मसालों में मैरीनेट किया. फिर उसे पतले तवे पर धीमी आंच पर पकाया — बिना पलटे.

और फिर बन ही वो कबाब जिसे कहा गया, “बेवफ़ा कबाब” या “गालौटी कबाब” (गालौटी मतलब जो “गालों” में घुल जाए). यही कवाब है जिसे लखनऊ के कई मशहूर कबाब ब्रांड बनाते हैं और दुनियाभर को खिलाते हैं.

बिन प्याज लहसुन की बिरयानी

वाजिद अली शाह और बिना प्याज-लहसुन की बिरयानी की कहानी अवधी और लखनवी खाने की दुनिया में एक अनोखा, दिलचस्प और थोड़ा रहस्यमयी किस्सा है. इसे रसोई की चुनौती, नवाबी ज़ायके और धार्मिक-सांस्कृतिक संवेदनशीलता का सुंदर संगम कहा जा सकता है.

1856 के आसपास, वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने सत्ता से हटा दिया. वह कोलकाता (मेटियाब्रुज) में निर्वासित जीवन बिता रहे थे, तब भी उन्होंने अपनी शाही जीवनशैली छोड़ी नहीं.

एक दिन उनके दरबार में चर्चा चल रही थी कि बिरयानी का स्वाद प्याज और लहसुन के बिना अधूरा होता है. कई दरबारी और बावर्ची भी सहमत थे. उस समय लखनवी बिरयानी प्याज-लहसुन के साथ ही बनती थी, लेकिन वाजिद अली शाह का मन हुआ कि ये साबित किया जाए कि इन दोनों के बगैर भी बिरयानी “लज़ीज” बन सकती है.

नवाब ने अपने सबसे भरोसेमंद ख़ास बावर्ची ‘मोहम्मद महफूज़ अली’ को बुलाया और कहा, “अगर बिना प्याज और लहसुन के भी तुम ऐसा ज़ायका पैदा कर सको कि उंगलियां चाटने को लोग मजबूर हो जाएं — तो समझो तुम्हारा कमाल!”

महफूज़ अली ने चुनौती ली, लेकिन आसान तो नहीं था. प्याज-लहसुन सिर्फ स्वाद नहीं देते, बल्कि मांस को नर्म करने और “मसाले को बाइंड” करने का भी काम करते हैं.

महफूज़ अली ने मसालों का एक अनूठा मिश्रण तैयार किया. जायफल, जावित्री, केवड़ा, गुलाब जल, इलायची, दालचीनी, लौंग का संतुलित मेल. दही को “बॉडी” के लिए इस्तेमाल किया गया. तेजपत्ता, हरा धनिया और पुदीना. साफ घी और धीमी आंच पर दम – यानी ‘दम-पुख्त’ तकनीक. सबसे खास बात थी “मांस को दही और पपीते के रस से मैरीनेट करना”, जिससे बिना प्याज-लहसुन के भी वह बेहद नर्म और स्वादपूर्ण बना.

जब यह बिरयानी नवाब के सामने पेश की गई, तो उन्होंने एक निवाला चखा. आंखें बंद कर लीं. फिर धीरे से मुस्कुराते हुए बोले,
“ये तो इबादत है… खाने के बहाने खुदा का ज़िक्र है!” नवाब ने इसे नाम दिया, “नीर प्याज़, नीर लसुन बिरयानी” यानी “प्याज़-लहसुन से रहित बिरयानी”

यह बिरयानी आगे चलकर कुछ विशेष धार्मिक अवसरों पर पेश की जाने लगी, खासकर उन मौकों पर जब प्याज़-लहसुन से परहेज़ होता था (जैसे मुहर्रम के दिनों में या वैष्णवों के लिए). आज भी कई पारंपरिक बावर्ची घराने – ख़ासकर लखनऊ और मेटियाब्रुज (कोलकाता) में – इस शैली की बिरयानी बनाते हैं. इसे “सात्विक नवाबी बिरयानी” भी कहा जाता है.

जब सिवैयां में मिठास नए प्नयोग से आई

वाजिद अली शाह को मीठी सिवैयाँ पसंद थीं, लेकिन एक दिन उन्होंने अपने खास बावर्ची से कहा, “कोशिश करो कि सिवैयाँ इतनी जायकेदार हों कि बिना चीनी के भी खाई जाएं.”
बावर्ची ने सूखी सिवैयां को घी में भूनकर उनमें खसखस, सूखे मेवे, गुलाबजल, केवड़ा, और इलायची डाली. फिर उसमें दूध नहीं, बल्कि मावा (खोया) मिलाया गया. धीमी आंच पर पकाया गया. तो ये खाना चीनी से बेशक मीठा नहीं था लेकिन एक नया मीठा प्रयोग बनकर आया, इसे किमामी सिवैयां कहा गया. ये मुहर्रम और ईद पर प्रसाद की तरह बनाई जाती है.

बिना आग के ‘दम की बिरयानी’

एक बार नवाब ने मज़ाक में कहा, “ऐसी बिरयानी बनाओ जो खुद-ब-खुद दम खा ले, हम चूल्हे को हाथ भी न लगाएं.” जवाब में ये बन भी गया. बावर्ची ने तंदूर की राख का उपयोग किया, जिसमें बिरयानी के “हांडी” को गर्म पत्थरों के बीच दबाकर रखा गया.
चूल्हे की आंच नहीं, बल्कि भीतर की भाप और गर्मी से दम होता रहा. “दम-ए-लखनवी” नाम की बिरयानी बनी, जो बिना सीधे आंच के पकाई जाती थी. इसके स्वाद में इतनी नरमियत और सुगंधित अंदाज था कि खुद नवाब चौंक गए.

स्रोत:
Pushpesh Pant – Gourmet Journeys through India
Sadaf Hussain – Dastarkhwan-e-Awadh
पाक इतिहासकारों के लेख, विशेषतः मेटियाब्रुज की रसोई पर लेख
लखनऊ और कोलकाता की रसोई पर आधारित डोक्युमेंट्री: “Raja Rasoi aur Anya Kahaniyaan”
अब्दुल हलीम शरर – Guzishta Lucknow
डॉ. सलमा हुसैन – Solely for the Soul: Nawabi Cuisine and Culture
Raja Rasoi Aur Anya Kahaniyaan (Epic TV)
संजय सूर्यवंशी की अवध पर शोध-पत्र (Lucknow University archives)

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