8 साल पहले मुस्लिमों का मसीहा बनने हैदराबाद आए एर्दोगान, तब क्यों निकली थी हवा

4 hours ago

दुनिया की मुस्लिम राजनीति में अगुवा के तौर पर उभरने के लिए तुर्कीये के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान ने अब सीधे सीधे पाकिस्तान के साथ खड़े हैं. आठ साल पहले उन्होंने भारत में आकर यहां मुस्लिमों का मसीहा बनने की कोशिश की. यहां मुस्लिम राजनीति का कार्ड फेंका लेकिन दाल गल नहीं पाई. हैदराबाद ने उन्हें लेकर बहुत ठंडा रुख दिखाया तो भारत सरकार ने भी उनकी कोशिशों पर टका सा जवाब दे दिया.

तब भारत के दौरे पर आकर खासतौर पर हैदराबाद जाने की उनकी वजह यही थी कि प्रतीकात्मक तौर पर ये शहर देश में मुस्लिम संस्कृति और निजाम राज का प्रतीक रहा है. फिर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से हैदराबाद और तुर्कीये के आटोमन साम्राज्य के बीच गहरे भी संबंध रहे हैं.

क्यों फ्लॉप था हैदराबाद दौरा

तुर्कीये के राष्ट्रपति रेसेप तैइप एर्दोगान मई 2017 में भारत दौरे में नई दिल्ली के साथ-साथ हैदराबाद भी गए थे. उनके इस दौरे को फ्लॉप माना गया क्योंकि ना तो दिल्ली ने बहुत गर्मजोशी दिखाई और ना हैदराबाद ने. हैदराबाद में स्थानीय स्तर पर भी उनके दौरे को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं था. हैदराबाद में उनके दौरे को भारतीय मीडिया में ज्यादा कवरेज नहीं मिली.

क्यों उनका ये दौरान प्रभावित हुआ

तब भारत और तुर्कीये के बीच कुछ राजनीतिक मुद्दों पर मतभेद शुरू हो चुके थे. तुर्की का पाकिस्तान के साथ बेहतर होते संबंध और कश्मीर मुद्दे पर उसका रुख भारत के लिए संवेदनशील था. एर्दोगान भारत दौरे से पहले कश्मीर पर टिप्पणी कर चुके थे, जिसमें उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप की बात कही थी, जो भारत को स्वीकार नहीं थी. इसने दौरे के माहौल को प्रभावित किया.

निजाम और तुर्कीये के रिश्ते कैसे थे

हैदराबाद के निजाम तुर्कीये के खलीफा यानि आटोमन सुल्तान को इस्लामिक दुनिया का आध्यात्मिक नेता मानते थे. पहले विश्व युद्ध (1914–18) के दौरान निजाम ने ऑटोमन साम्राज्य को आर्थिक सहायता भेजी, क्योंकि वे तुर्की के मुस्लिम शासकों के प्रति वफादार थे.

1919–24 के दौरान तुर्कीये में खलीफा की सत्ता को बचाने के लिए चल रहे खिलाफत आंदोलन में हैदराबाद के निजाम और मुसलमानों ने तुर्कीये का समर्थन किया. निजाम ने धन और राजनयिक मदद दी, लेकिन बाद में अतातुर्क ने खिलाफत को खत्म कर दिया (1924).

अपने दौरे में खासतौर पर हैदराबाद का प्रोग्राम बनाया

तो जब वर्ष 2017 में तैयप एर्दोगान ने भारत का दौरा किया तो खासतौर पर उन्होंने हैदराबाद का प्रोग्राम बनाया. वर्ष 2014 में तुर्कीये की सत्ता संभालने के बाद दुनिया में मुस्लिमों का रहनुमा बनने की कोशिश शुरू कर दी. इसके चलते संयुक्त में कश्मीर मुद्दे को उठाया. मुस्लिम देशों को साथ लाने का भरसक प्रयास किया.

उनका संदेश भारत के आंतरिक मामलों में दखल माना गया

खैर जब 2017 में एर्दोगान हैदराबाद पहुंचे तो उन्हें लगा कि यहां के मुस्लिम उनकी स्वागत के लिए लाल कालीन बिछा देंगे. उन्हें मसीहा के तौर पर देखेंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. वह हैदराबाद की ऐतिहासिक विरासत चारमीनार और मक्का मस्जिद गए. भाषण में “भारत के मुसलमानों के साथ एकता” का संदेश दिया, जिसे भारत सरकार ने आंतरिक मामलों में दखल माना.

तब कुछ विश्लेषकों और आलोचकों ने माना था कि एर्दोगान का हैदराबाद दौरा स्थानीय मुस्लिम समुदाय को संदेश देने या भारत में धार्मिक आधार पर प्रभाव बनाने की रणनीति का हिस्सा हो सकता है.

पहले से ही हैदराबाद में माहौल तनाव वाला हो गया

यदि यह माना जाए कि एर्दोआन का इरादा मुस्लिम समुदाय के बीच प्रभाव बनाना था, तो उनका हैदराबाद दौरा इस दृष्टिकोण से भी असफल रहा. उनके दौरे को लेकर माहौल पहले ही तनावपूर्ण हो गया. हैदराबाद में उनकी उपस्थिति संदेह की नजर से देखी गई. भारतीय मुस्लिम समुदाय ने भी उनके दौरे को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाया.

वह हैदराबाद में इस्लामिक सेंटर बनवाना चाहते थे

केवल यही नहीं उन्होंने हैदराबाद में तुर्कीये की सरकार की ओर से इस्लामिक सेंटर बनाने की पहल की, लेकिन भारत सरकार की अनुमति नहीं मिली. कुल मिलाकर उनका ये ऐसा दौरा था जिसमें उन्होंने जिस मुस्लिम राजनीति के प्लेन को उड़ाने की कोशिश की, वो रन-वे पर भी नहीं पहुंच पाया.

फिर दोनों के रिश्ते और ठंडे हो गए

जाहिर सी बात है कि तब एर्दोगान ने हैदराबाद की मुस्लिम विरासत को अपने इस्लामिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल करना चाहा, जिसे भारत सरकार ने सांप्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश माना. इसके बाद भारत और तुर्की के रिश्ते और भी ठंडे हो गए.

चीन से गलबहियां के लिए उइगर मुद्दा भूल चुके हैं

एक जमाने में उन्होंने फिलिस्तीन, कश्मीर और उइगर मुसलमानों के मुद्दों पर मुखरता दिखाई थी. फिलस्तीन के मामले पर अमेरिका ने उन्हें आंखें दिखाईं तो चीन के साथ गलबहियां करने के चलते उइगर मुसलमानों के मुद्दे को भी वह अब भूल चुके हैं लेकिन कश्मीर के मामले को रह-रहकर भी उठाते रहे हैं. हालांकि उइगर के मुद्दे को पूरी तरह छोड़कर वह हमास (फिलिस्तीन), मुस्लिम ब्रदरहुड (मिस्र) और कश्मीर मुद्दे पर मुखर रहते हैं.

क्या तुर्कीये के ब्रिक्स में शामिल होने की कोशिश को लगेगा झटका

हां, भारत के विरोध से ब्रिक्स में तुर्कीये की पूर्ण सदस्यता की संभावना को झटका लग सकता है. भारत ने पहले ही तुर्कीये की सदस्यता का विरोध किया है और हाल के तनाव (मई 2025 तक) इस स्थिति को और मजबूत करते हैं.

तुर्कीये को फिलहाल ब्रिक्स में पार्टनर देश का दर्जा मिला है, जो दिखाता है ब्रिक्स पूरी तरह से तुर्की को बाहर नहीं करना चाहता लेकिन इसके साथ ये भी जरूरी है कि उसको भारत के साथ अपने संबंधों को सुधारना होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं है.

तो ये कहा जा सकता है कि भारत-तुर्कीये संबंधों में खटास निश्चित रूप से तुर्कीये के ब्रिक्स में शामिल होने के समीकरण को बिगाड़ रही है. भारत का विरोध ब्रिक्स में तुर्कीये की पूर्ण सदस्यता की राह में एक बड़ा अवरोध है. पाकिस्तान के साथ हालिया तनाव और पाकिस्तान को हथियार सप्लाई करने के साथ भारत में तुर्कीये के बहिष्कार की स्थिति इसे जटिल बनाते हैं. हालांकि तुर्कीये को पार्टनर देश का दर्जा और रूस-चीन का समर्थन उसे कुछ हद तक मंच पर बनाए रखता है. हालांकि तुर्कीये की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह भारत के साथ अपने संबंधों को कितना सुधार पाता है और क्या वह कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर तटस्थ रुख अपना सकता है. जो लगता तो नहीं है

Read Full Article at Source