‘यह सवाल यह है कि क्या मैं अल्पसंख्यक संस्थान हूं या नहीं? मेरे अल्पसंख्यक संस्थान होने को लेकर कई तरह के सवाल उठाए गए हैं. आलम यह है कि यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है. खैर, मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. जब मेरी स्थापना इन सरकारों और हुक्मरानों ने की है, तो मेरा भविष्य उन्हीं के हाथों में है. मेरा काम तो यहां हर साल आंखों में सपने लेकर आने वाले युवाओं को पढ़ाना-लिखाना है, उन नए पौधों को शिक्षा के माध्यम से तराशना है, उनकी प्रतिभा को निखारना है ताकि वे देश-दुनिया में भारत का नाम रोशन कर सकें. अभी हाल ही में मेरे कैंपस से निकली सबा हैदर नाम की भारत की बेटी ने अमेरिका में चुनाव जीता. मुझे अंदाजा भी नहीं था कि कभी मेरे कैंपस में खेलने-कूदने वाली यह बेटी एक दिन अमेरिका जैसे देश में हिंदुस्तान का परचम लहरा देगी. न जाने मेरी बगिया से निकले कितने फूल देश-दुनिया में अपनी महक बिखेर रहे हैं. नामों की बात करूं तो यह फेहरिस्त काफी लंबी हो जाएगी.
यूं तो आजाद भारत के बाद मेरी बुलंदी में पर लग गए, लेकिन मेरी नींव तो महान समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने रखी. असल में उनकी मंशा थी कि मुस्लिम समुदाय को सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए अंग्रेजी और आधुनिक भाषाओं में निपुण होना होगा. इसके लिए उन्होंने 1863 में गाजीपुर और 1858 में मुरादाबाद में स्कूलों की स्थापना कर मेरे निर्माण की आधारशिला रख दी. वर्ष 1864 में अलीगढ़ में ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ की स्थापना की गई. बात यहीं नहीं रुकी. 7 जनवरी 1877 को सैयद अहमद खान ने अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी का भ्रमण किया, जिसके बाद उन्होंने अलीगढ़ में मोहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की.
इसके बाद उनके बेटे सैयद महमूद ने मोहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड समिति के सामने एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा. मोहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज पूरी तरह से प्रथम आवासीय शैक्षिक संस्थानों में से एक था. यहां बच्चे रहकर अपनी पढ़ाई-लिखाई कर सकते थे. शुरुआत में यह कॉलेज कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था. बाद में इसे 1885 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मान्यता मिल गई. वर्ष 1901 में जब भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन ने कॉलेज का भ्रमण किया, तो यहां के कार्यों की प्रशंसा की. देखते ही देखते कॉलेज की ‘द अलीगेरीयन’ नाम से अपनी पत्रिका निकलने लगी. यही नहीं, यहां एक अलग विधि विद्यालय की स्थापना भी हो गई. इसी बीच इसे विश्वविद्यालय का दर्जा देने के लिए आंदोलन होने लगे, जिन्हें शांत करने के लिए कॉलेज का विस्तार किया गया और कई नए पाठ्यक्रम जोड़े गए. 1907 में लड़कियों के लिए एक अलग विद्यालय भी स्थापित कर दिया गया. इस तरह देखते ही देखते वर्ष 1920 में यह कॉलेज ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ बन गया, और इस तरह मैं अस्तित्व में आया। अब मैं विश्वविद्यालय बन चुका था. 1921 में भारतीय संसद ने एक अधिनियम के माध्यम से मुझे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया. इसके बाद से मेरी अहमियत बढ़ती ही गई. तब लोग कहते थे कि मुझे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज पर ब्रिटिश राज का पहला उच्च संस्थान का दर्जा दिया गया. आज मेरे कैंपस में 300 से अधिक कोर्स पढ़ाए जाते हैं. और हां, एक बात स्पष्ट कर दूं कि मेरे नाम में मुस्लिम होने या अल्पसंख्यक का दर्जा होने का मतलब यह कतई नहीं है कि यहां दूसरी जाति या धर्म के बच्चों की एंट्री नहीं है या उन्हें यहां पढ़ने का मौका नहीं मिलता। मेरे दरवाजे सभी के लिए खुले हैं.
मेरे कैंपस में देश के सभी राज्यों के अलावा अफ्रीका, पश्चिम एशिया एवं दक्षिण एशिया से छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं. कुछ पाठ्यक्रमों में सार्क और राष्ट्रमंडल देशों के छात्रों के लिए सीटें भी आरक्षित हैं। मेरा कैंपस अलीगढ़ शहर में 467.6 हेक्टेयर में फैला हुआ है. यहां 37,327 से अधिक छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. यही नहीं, मेरे पास 1686 शिक्षक तथा लगभग 5610 गैर-शिक्षक कर्मचारी भी हैं. मेरे कैंपस में अब 117 अध्ययन विभाग वाले कुल 13 संकाय, 3 अकादमी, 21 केंद्र एवं संस्थान हैं. मेरे परिसर में छात्रों के लिए 80 छात्रावास और 19 हॉल हैं. मेरी मौलाना आजाद लाइब्रेरी में लगभग 13 लाख पुस्तकें और दुर्लभ पांडुलिपियां भी हैं. अकबर के दरबारी फैजी द्वारा फारसी में अनुवादित गीता भी है और 400 साल पहले फारसी में अनुवादित महाभारत की पांडुलिपि भी रखी हुई है.’
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FIRST PUBLISHED :
November 8, 2024, 12:42 IST