पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं. संजय गांधी पर यह मुहावरा एकदम सटीक बैठता है. 1969 में संजय गांधी जब तेईस साल के थे, तब उन्होंने भारत में एक छोटी और सस्ती कार बनाने के लिए लाइसेंस मांगा. इस लाइसेंस के लिए कई आवेदक कतार में थे, मगर 1970 में मिला केवल संजय को. विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर भाई-भतीजावाद के आरोप लगाए, लेकिन उनका खंडन करने के लिए प्रधानमंत्री ने कोई जहमत नहीं उठाई. इसके बाद जब संजय के मारुति कार के कारखाने के लिए जमीन की बात आई, तो बंसीलाल की अगुवाई वाली हरियाणा सरकार ने उन्हें 300 एकड़ से भी ज्यादा जमीन औने-पौने दामों में सौंप दी. इस जमीन को मुक्त करवाने के लिए सैकड़ों किसानों को बेदखल किया गया. पी.एन. हक्सर, जो 1973 तक इंदिरा गांधी के शक्तिशाली प्रधान सचिव थे, ने मारुति परियोजना का विरोध किया तो उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ा.
ये सत्ता में संजय के उभार के प्रारंभिक लक्षण थे. धीरे-धीरे कांग्रेस के भीतर ही एक छोटा लेकिन ताकतवर गुट अस्तित्व में आने लगा, जो अक्सर प्रधानमंत्री की औपचारिक कार्यप्रणाली से अलग और समानांतर रूप से काम करता था. यह सीधे संजय को रिपोर्ट करता था. इंदिरा गांधी के आवास पर संजय के कमरे में एक विशेष टेलीफोन लाइन लगाई गई थी, जिसके जरिए प्रधानमंत्री के एडिशनल प्राइवेट सेक्रेटरी आर.के. धवन कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों, पुलिस कमिश्नरों, दिल्ली के उपराज्यपाल तथा पार्टी के प्रभावी पदाधिकारियों व सरकारी अधिकारियों के संपर्क में रहते थे. सभी निर्देश संजय की ओर से और उनके नाम पर दिए जाते थे. कई बार तो खुद प्रधानमंत्री को भी अपने बेटे के इस तरह के संविधानेतर निर्देशों के बारे में जानकारी नहीं होती थी. संजय ने अपनी मंडली में धवन के अलावा और भी ऐसे कई यार-दोस्त जमा कर लिए थे, जो अवसरानुकूल उनकी मदद को आतुर रहते थे. इनमें हरियाणा के बंसीलाल तो थे ही, मध्य प्रदेश के विद्याचरण शुक्ल, अंबिका सोनी और एक सोशलाइट रुखसाना सुल्ताना भी शामिल थीं.
आपातकाल की घोषणा से 5 दिन पहले यानी 20 जून 1975 को संजय गांधी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया. संजय ने पूरे परिवार को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि इंदिरा गांधी के साथ एकजुटता दिखाने के लिए सभी को इस रैली में भाग लेना चाहिए. इस तरह के राजनीतिक आयोजन में शामिल होने का सोनिया गांधी के लिए यह पहला मौका था.
निशाने पर आने लगे थे संजय गांधी
लेकिन धीरे-धीरे संजय लोगों के निशाने पर आने लगे थे. 1973 में जयप्रकाश नारायण ने कई सांसदों को पत्र लिखकर उनसे व्यक्तिगत अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए आगे आने की अपील की थी. उन्होंने ‘सिटिजन्स फॉर डेमोक्रेसी’ नामक एक संगठन बनाया और असंतुष्ट लोगों के लिए एक तरह से मार्गदर्शक बन गए. उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. कुछ ऐसे पत्र-पत्रिकाएं जो इंदिरा गांधी और कांग्रेस के विरोधी थे, संजय के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर कहानियां छापने लगे. उन्हें ‘शैतान’ तक कहा जाने लगा. संजय लगातार अपने खिलाफ साजिशें रचे जाने के आरोप लगाते रहे और कहते रहे, “कब तक मम्मी को मेरी तरफ से जवाब देना होगा? अब मैं खुद इन आरोपों का जवाब देना चाहता हूं.”
23 दिसंबर 1976 को कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक प्रशिक्षण शिविर के समापन के मौके पर इंदिरा गांधी ने भी कहा था, ‘आपातकाल के पहले से ही संसद में संजय पर जबरदस्त हमले हुए. वास्तव में मुझे लगता है कि अगर वे निशाने पर नहीं होते तो राजनीति में कभी नहीं आते, क्योंकि इस तरह की चीजों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन जब उन पर हमले हुए तो उन्हें लगा कि उनके पक्ष में कोई नहीं बोल रहा. इसी बात ने उन्हें राजनीति में आने के लिए विवश किया.’
लाड़-प्यार में पला एक ‘बिगड़ैल बच्चा’!
जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार ठहराया तो उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. इससे इंदिरा के भी कई शुभचिंतकों को झटका लगा. जैसे नेहरू और इंदिरा के प्रबल प्रशंसक रहे लेखक एवं फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास इस्तीफा न देने के फैसले से दुखी और विचलित हो गए. अब्बास का दावा था कि कांग्रेस के कुछ ‘विशेष तत्वों’, जिनमें संजय भी शामिल थे, ने इंदिरा को कानून की अवहेलना करते हुए ‘मुकाबला करने के लिए’ उकसाया. अब्बास ने संजय को लाड़-प्यार में पला एक ऐसा बिगड़ा बच्चा करार दिया था, जिसने कुछ गलत और ‘आपत्तिजनक’ (मुक्त-बाजार) विचार अपना लिए थे. अब्बास ने अपनी पुस्तक “20 मार्च 1977 – ए डे लाइक एनी अदर डे’ में संजय के बारे में विस्तार से लिखा है. यहां 20 मार्च की तारीख इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन इंदिरा गांधी और कांग्रेस को स्वतंत्रता के बाद पहली बार सत्ता से बाहर होना पड़ा था.
आपातकाल के पहले से ही संसद में संजय पर जबरदस्त हमले हुए. वास्तव में मुझे लगता है कि अगर वे निशाने पर नहीं होते तो राजनीति में कभी नहीं आते, क्योंकि इस तरह की चीजों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन जब उन पर हमले हुए तो उन्हें लगा कि उनके पक्ष में कोई नहीं बोल रहा. इसी बात ने उन्हें राजनीति में आने के लिए विवश किया.
इंदिरा गांधी, 23 दिसंबर 1976
इंदिरा की एक और समर्थक सुभद्रा जोशी, जो सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए पहचान रखती थीं, यह जानकर स्तब्ध रह गईं कि प्रधानमंत्री के आवास का उपयोग सेल्फ-प्रोपेगेंडा के लिए किया जा रहा है. वे उन युवकों से भिड़ गईं जो पोस्टरों को इधर-उधर ले जा रहे थे. उन्होंने उनसे पूछा कि यह सब किसके कहने पर किया जा रहा है तो युवकों का जवाब था: “संजय जी.” सुभद्रा जोशी, जिन्होंने 1962 में बलरामपुर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराया था, महात्मा गांधी और नेहरू के साथ काम कर चुकी थीं और नैतिक साहस की प्रतीक थीं. उन्होंने संजय को फोन कर साफ शब्दों में कहा कि प्रधानमंत्री के आवास से इस प्रकार की गतिविधियां नहीं चलनी चाहिए. लेकिन उन्हें यह जानकर और ज्यादा हैरानी हुई कि अगली ही सुबह 13 जून 1975 को इंदिरा गांधी के साथ एकजुटता दर्शाने के लिए दिल्ली में बिजली, पानी और बस सेवाएं ठप कर दी गई थीं. यह उस महीने की बात थी, जब राजधानी में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है.
रैली का प्रसारण न हुआ, गुजराल को भुगतना पड़ा खामियाजा
आपातकाल की घोषणा से 5 दिन पहले यानी 20 जून 1975 को संजय गांधी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया. संजय ने पूरे परिवार को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि इंदिरा गांधी के साथ एकजुटता दिखाने के लिए सभी को इस रैली में भाग लेना चाहिए. इस तरह के राजनीतिक आयोजन में शामिल होने का सोनिया गांधी के लिए यह पहला मौका था. आर.के. धवन ने सुनिश्चित किया था कि कांग्रेस शासित राज्यों का प्रत्येक मुख्यमंत्री रैली के लिए यथासंभव भीड़ जुटा सके. वहां उमड़े जनसैलाब को देखकर अनुभवी राजनीतिज्ञ इंदिरा गांधी भी मंत्रमुग्ध हो गई थीं और उन्हें इस बात का जरा भी एहसास नहीं हुआ कि भीड़ का एक बड़ा हिस्सा भाड़े पर एकत्र किया गया था.
सरकारी स्वामित्व वाले दूरदर्शन पर इस रैली का प्रसारण नहीं किया गया. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल, जो नेहरूवादी विचारधारा में प्रशिक्षित थे, ने इसके प्रसारण से इनकार कर दिया. उनका तर्क था कि यह रैली एक पार्टी का कार्यक्रम है, न कि सरकारी और इसलिए इसका टीवी पर प्रसारण नहीं किया जा सकता. गुजराल की यह ‘गुस्ताखी’ संजय को रास नहीं आई. अंतत: गुजराल को मॉस्को में भारत का राजदूत बनाकर भेज दिया गया और उनकी जगह विद्याचरण शुक्ल को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की कमान सौंपी गई.
‘आपातकाल लागू’, कैबिनेट को सिर्फ सूचना दी गई
सरकार के मामलों में संजय के खुलेआम दखल की वजह से देश में नागरिक असंतोष हर दिन बढ़ता जा रहा था. इस रैली के पांच दिन बाद उसी स्थान पर पूरे विपक्ष ने अपनी ताकत दर्ज कराई. जयप्रकाश नारायण ने पुलिस और सशस्त्र बलों से अपील की कि अगर उनका अंत:करण अनुमति न दे तो वे किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें.
अगली सुबह तुरंत कैबिनेट की बैठक बुलाई गई. लेकिन स्थापित परंपरा के अनुसार विचार-विमर्श या सलाह-मशवरा किए बिना इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को सीधे यह सूचना दी गई कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू किया जा रहा है. इसके लागू होते ही इंदिरा गांधी को शासन करने की असीमित शक्तियां मिल गईं और चुनाव व नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित हो गईं.