उफ! दिल्ली की गर्मियां, ब्रिटिश राज में अंग्रेज भी हिल गए, कहा सबसे क्रूर मौसम

1 day ago

समूचे उत्तर भारत में भीषण गर्मी पड़ रही है. कुछ लोग इसे खौफनाक गर्मी कह रहे हैं. ब्रिटिश राज में जब अंग्रेजों ने दिल्ली की राजधानी बनाया तब वह यहां की खौफनाक गर्मी से हिल गए थे. ये दिल्ली की हिला देने वाली जबरदस्त गरमी ही थी कि अंग्रेज इस मौसम में यहां रह ही नहीं पाते थे. अपनी ग्रीष्म राजधानी शिमला ले जाया करते थे. कुछ अंग्रेज मसूरी, नैनीताल कूच कर जाते थे. दिल्ली की गर्मियों को लेकर ब्रिटिश राज में भारत में रहे अंग्रेजों ने अपनी किताबों में लिखा है. डायरी में भी संस्मरण लिखे हैं. वह मानते थे कि यहां की गर्मियां जैसी हैं वैसी तो कहीं पड़ती ही नहीं. ये दुनिया का सबसे क्रूर मौसम है.

अंग्रेज चले गए. ब्रिटिश राज भी खत्म हो गया. दिल्ली 78 सालों से आजाद भारत की राजधानी है लेकिन यहां की गर्मियों का भयावह अंदाज नहीं बदला है. इन दिनों भी तापमान 45 डिग्री सेंटीग्रेड को छू रहा है. लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं. दोपहर में यहां की सड़कें सूनी पड़ जाती हैं. रात भी गर्म हवाओं के बीच गुजरती है. सुबह निकलिए तो पसीने से कपड़े भीग जाते हैं.

आज दिल्ली की गर्मियां और लू के थपेड़े ब्रिटिश काल से कुछ अलग नहीं हैं. अंग्रेज अफसर, उनकी पत्नियां और बाकी यूरोपीय लोग इस शहर की भीषण गर्मी से परेशान रहते थे. कई ब्रिटिश डायरियों, यात्रा वृतांतों और दस्तावेजों में दिल्ली की गर्मी के बारे में ऐसा लिखा गया है कि पढ़ने पर भी पसीना आ जाए.

शहर वीरान हो जाता था

अंग्रेजों के लिए दिल्ली की गर्मी सिर्फ मौसम नहीं, एक अभिशाप थी. वो इसे दुनिया का सबसे निर्दयी मौसम मानते थे. दोपहर का समय ऐसा होता था कि पूरा शहर वीरान हो जाता. सड़कों पर न आदमी, न जानवर. बाजार बंद. खिड़कियां-दरवाजे सब बंद. अगर कहीं कोई दिखता भी, तो वह कोई फकीर या मजदूर होता, जिसे मजबूरी में धूप में निकलना पड़ता.

मई-जून की दोपहर में दिल्ली में ऐसा सन्नाटा छा जाता था, जैसे शहर वीरान हो गया हो. अंग्रेज अफसर ‘ब्लडी इनसफररेबल हीट’ (असहनीय गर्मी) शब्दों का इस्तेमाल करते थे. (News18 AI)

कौए तक छांव में चले जाते थे

कैप्टन जॉन ब्रिग्स ने 1820 में लिखा,

“दिल्ली की लू ऐसी होती है, जैसे भट्टी की गर्म हवा. दोपहर में ना आदमी दिखते हैं, न जानवर. बाजार बंद हो जाते हैं और कौए तक छांव में चले जाते हैं.”

सड़कों पर पसर जाता था सन्नाटा

फ्रेडरिक स्लायशर, जो 1870 में दिल्ली में सिविल सर्वेंट थे, अपनी डायरी में लिखते हैं, “दोपहर के समय दिल्ली की सड़कों पर सन्नाटा पसरा होता था. जैसे किसी महामारी ने शहर को खामोश कर दिया हो. कभी-कभी कोई फकीर या भिखारी दिखता है, जो तपती सड़क पर भीख मांगता हुआ गुजरता है.”

दफ्तरों में रखी जाती थीं बर्फ की सिल्लियां

अंग्रेजों ने गर्मी से बचने के लिए कई जुगाड़ किए. उनके बंगलों और क्लबों में खस की टट्टियां (पर्दे) लटकाए जाते थे, जिन्हें ठंडे पानी से भिगोया जाता था ताकि गर्म हवा कमरे में न घुसे. बड़े दफ्तरों में दिनभर बर्फ की सिल्लियां रखी जाती थीं. शाम होते-होते ब्रिटिश क्लबों में जमावड़ा होता. जिन-टॉनिक और बर्फ के टुकड़ों के साथ दिनभर की गर्मी की चर्चा होती.

दिल्ली की गर्मी से बचने का सबसे बड़ा उपाय था, हिल स्टेशनों का रुख करना. अंग्रेज अफसर मार्च के बाद ही शिमला, मसूरी, नैनीताल जैसे ठंडी जगहों पर चले जाते थे. (News18 AI)

चेहरा तवे पर रखे आटे की तरह जलने लगता था

लेडी विलिंगडन, जो 1935 में वायसराय की पत्नी थीं, उन्होंने तब लिखा,

“कोई भी अंग्रेज महिला सुबह 10 बजे के बाद बाहर नहीं निकलती. लू ऐसी चलती है कि छाता भी उड़ जाए. चेहरा तवे पर रखे आटे की तरह जलने लगे.”

अंग्रेज हिल स्टेशन की ओर रुख कर जाते थे

दिल्ली की गर्मी से बचने का सबसे बड़ा उपाय था, हिल स्टेशनों का रुख करना. अंग्रेज अफसर मार्च के बाद ही शिमला, मसूरी, नैनीताल जैसे ठंडी जगहों पर चले जाते थे. 1860 के दशक से तो शिमला को भारत की ‘समर कैपिटल’ भी बना दिया गया था. वहीं से भारत सरकार गर्मी के महीनों में चलती थी.

लार्ड हार्डिंग ने लिखा, दिल्ली की गर्मी आतंक है

लॉर्ड हार्डिंग, जो 1912 में वायसराय बने थे, उन्होंने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करते समय लिखा, “दिल्ली की गर्मी एक आतंक है. कोई भी व्यक्ति, चाहे कितना भी बहादुर क्यों न हो, इस लू और गर्मी के प्रकोप से अछूता नहीं रह सकता.”

क्या था आग उगलती गर्मी का इलाज

ब्रिटिश काल के क्लबों और बंगलों में बर्फ का खास महत्व था. दिल्ली के जिमखाना क्लब, इंपीरियल होटल और सिविल लाइन्स के बंगलों में बर्फ की सिल्लियां रखी जाती थीं. कैप्टन लॉरेंस ने अपनी डायरी में लिखा, “शाम का समय जिन-टॉनिक और पिघलती बर्फ के साथ बिताने का था. दिनभर की आग उगलती गर्मी का बस यही इलाज था.”

फिर दोपहर में अंग्रेज ‘सिएस्ता’ लेते थे

दिल्ली में गर्मी के मौसम में अंग्रेज अपने घरों में दोपहर को ‘सिएस्ता’ यानी अनिवार्य नींद लेते थे. हर खिड़की-दरवाजे बंद. खस की टट्टियां, पंखे और बर्फ की व्यवस्था. दोपहर में सरकारी दफ्तर भी लगभग खाली रहते. ब्रिटिश डायरियों में दर्ज है कि दोपहर 12 से 4 बजे तक दिल्ली मौत की तरह खामोश हो जाती थी.

सड़कें धधकती रहतीं, लोग घरों में दुबक जाते

विलियम डैलरिम्पल ने अपनी किताब ‘सिटी ऑफ जिन्स’ में लिखा,

“दिल्ली की गर्मी ऐसी होती थी कि दोपहर होते-होते शहर वीरान हो जाता. बस कभी-कभार किसी बैलगाड़ी की आवाज़ या किसी फकीर की पुकार सुनाई देती. लोग अपने घरों में दुबक जाते और सड़कें धधकती रहतीं.”

पत्थर भी आग उगलने लगते

दिल्ली की गर्मी में सिर्फ लोग ही नहीं, पत्थर तक तपते थे. कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा, “दोपहर तक दिल्ली के पत्थर भी आग उगलने लगते. जैसे ही सूरज सिर पर आता, पूरा शहर दरवाजे-खिड़कियां बंद कर लेता. सड़क पर कोई नहीं दिखता. ऐसा लगता जैसे शहर पर मौत उतर आई हो.”

गर्मी में दोपहर का लंच गायब हो जाता था

अंग्रेज अफसर और उनकी पत्नियां, जो इंग्लैंड की नमी भरी ठंडक से आए थे, दिल्ली और उत्तरी भारत की भयंकर गर्मी से अक्सर परेशान रहते थे. ब्रिटिश परिवार सुबह जल्दी उठ जाते थे, नाश्ता जल्दी कर लेते थे, क्योंकि दिन चढ़ने के साथ गर्मी असहनीय हो जाती थी.

दिल्ली की गर्मी में दोपहर को भारी खाना नहीं खाया जाता था. आमतौर पर सलाद, सैंडविच, कोल्ड मीट प्लेटर (ठंडी कटी हुई मटन/चिकन), फ्रूट कस्टर्ड या पडिंग,लाइम जूस या लेमन स्क्वैश का सेवन होता था.

बर्फ की सिल्ली मंगाकर ड्रिंक्स ठंडी की जाती थीं. शाम को चाय होती थी. रात को थोड़ा औपचारिक भोजन होता था. गर्मी इतनी भीषण होती थी कि दोपहर में ठंडी चीज़ें — लेमन स्क्वैश, नींबू पानी, बेल का शर्बत, आम पन्ना — खूब पसंद किए जाते. अंग्रेज़ों ने गर्मी में देसी शीतल पेय भी अपनाए.

अब भी दिल्ली वैसी ही धधकती है

आज भी दिल्ली की गर्मियां कुछ अलग नहीं. फर्क बस इतना है कि अब एयर कंडीशनर और कूलर आ गए हैं. मगर मई-जून में दिल्ली की दोपहरें आज भी वैसी ही धधकती हैं, जैसी सौ-दो सौ साल पहले थीं. अंग्रेजों की डायरियां और दस्तावेज इस बात की गवाही देते हैं कि दिल्ली की गर्मी ने इतिहास में भी अपनी जगह बना रखी है.

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