Last Updated:March 01, 2025, 12:57 IST
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप और यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की में तीखी बहस देखी गई है. यह पहली बार नहीं है जब कोई देश अपने हितों के लिए लड़ा है. इंदिरा गांधी ने भी अमेरिका से सीधी टक्कर ली थी.
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अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत की पीएम ने दिया था करारा जवाब.
हाइलाइट्स
डोनाल्ड ट्रंप और जेलेंस्की के बीच तीखी बहस देखी गईअमेरिका के राष्ट्रपति को भारत भी आंख दिखा चुका हैइंदिरा गांधी ने निक्सन को 42 मिनट इंतजार करायासुपरपॉवर होने के लिए हथियार और पैसा जरूरी है. एक मजबूत नेता होने के लिए नहीं. वैसे भी अब सुपरपॉवर की पहचान मार्केट पॉवर से होती है. जंग के मैदान में आपकी ताकत से नहीं. एक मजबूत इंटरनेशनल लीडर होने के लिए पर्सनालिटी और अपने देश की जनता का प्यार मिलना जरूरी है. अमेरिका तो शुरू से एक ताकतवर देश रहा है. इसका मतलब ये नहीं कि इसके राष्ट्रपति किसी और देश के नेता को कमतर आंक सकते हैं. ऐसा होता तो वेनेजुएला, क्यूबा, ईरान जैसे देश नतमस्तक हो गए होते. वियतनाम वार में अमेरिका को शर्मिंदगी झेलनी नहीं पड़ती. क्रास्त्रो जैसे अमेरिका विरोधी नेता की दुनिया में फैन फॉलोइंग नहीं होती. आंख में आंख दिखाकर बात करने का जज्बा होना चाहिए. इससे कोई मतलब नहीं कि सामने अमेरिका का राष्ट्रपति बैठा है. हमारे पीएम मोदी ने इसी जज्बे के बूते पूरी दुनिया की कूटनीति में अलग मुकाम हासिल किया है. आज किसी और वर्ल्ड लीडर में हम पर दबंगई दिखाने की हैसियत नहीं है. ऐसी हिमाकत इंदिरा गांधी के समय की गई थी, लेकिन आयरन लेडी ने तब उसका माकूब जवाब दिया था. इस लिहाज यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के साथ वाइट हाउस में जो हुआ उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
आपको रूसी हमले से पहले का वक्त याद होगा. कैसे नाटो वाले जेलेंस्की को चढ़ा रहे थे. झुकना मत, रूस हमला करेगा तो हम लोग हैं. इसमें जो बाइडन भी शामिल थे. और जब पुतिन ने आर्मी घुसा दी तो यूक्रेन के आसमान को नो फ्लाइ जोन घोषित करने से भी सब के सब पीछे हट गए. आज बाइडन के उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रंप ने मुंह फेर लिया है. फिर जेलेंस्की जब उनके दर पर गए तो क्या सोच कर गए? इस बात में दम तो है ही कि जेलेंस्की बिना चुनाव कराए सत्ता पर काबिज हैं. उन्हें यूक्रेन के लोगों का सपोर्ट भी है या नहीं क्या पता. और फिर जब यूरोप का सपोर्ट था तो वहां घिघियाने क्यों लगे? डट कर जवाब देना था.
इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति को कराया था इंतजार
हमारा देश भी 1971 में ऐसे ही हालात से गुजर रहा था. पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लाभाषी मुसलमानों पर डिक्टेटर यह्या खान की आर्मी जुल्म ढा रही थी. इंदिरा गांधी से ये देखा न गया. नवंबर में वो अमेरिका गईं. जब वाइट हाउस में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मिलने पहुंची तो उन्हें 42 मिनट तक इंतजार कराया गया. इससे पहले निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर का पाकिस्तान प्रेम जगजाहिर था. किसिंजर तो पाकिस्तानी मदद से चीन पहुंच गए थे और दोनों देशों के कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की बुनियाद रख चुके थे. इनका सौ साल में हाल ही में निधन हुआ है. खैर, तब निक्सन भारत की महिलाओं को बदसूरत और न जाने क्या-क्या कहते पाए गए. दो साल पहले जो डिप्लोमैटिक केबल लीक हुए उससे पता चलता है कि इंदिरा के लिए भी निक्सन गाली निकालते थे. वाइट हाउस में इंतजार कराने के बाद इंदिरा ने उनको बता दिया कि पूर्वी पाकिस्तान के हालात ठीक नहीं है और हम ज्यादा दिन जुल्मोसितम देख नहीं सकते. लेकिन बदला अभी बाकी था. इंदिरा वाइट हाउस के ठीक सामने ब्लेयर हाउस में रुकी थीं. यहीं हाल ही में मोदी भी रुके थे. अगले दिन जब निक्सन की बारी आई और वो इंदिरा से मिलने ब्लेयर हाउस पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि इंदिरा रेडी हो रही हैं, इंतजार कीजिए. और ठीक 42 मिनट का इंतजार करवाया गया. तब हमारे देश की ताकत आज जैसी नहीं थी लेकिन इंदिरा गांधी की थी.
और जब तीन दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने जंग की शुरुआत कर दी. तब निक्सन-किसिंजर बौखला गए. अपना सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा और इंग्लैंड को अपना एयरक्राफ्ट कैरियर ईगल जहाज अरब सागर की तरफ भेजने पर राजी किया. यहां तक कि किसिंजर ने चीन से अपील कर दी कि उत्तर से भारत पर दबाव बनाओ. वो तो रूस ने ऐन मौके पर अपनी परमाणु पनडुब्बियां भेजकर दोस्ती का फर्ज निभाया और पाकिस्तान के रहनुमाओं को वापस जाना पड़ा. जब जनरल नियाजी से सरेंडकर कर दिया उसके बाद भी किसिंजर-निक्सन की गुस्ताखी जारी रही. लेकिन इंदिरा पर इसका कोई असर नहीं हुआ. जंग के बीच 15 दिसंबर को इंदिरा गांधी ने निक्सन के नाम एक चिट्ठी लिखी. वाशिंगटन में भारत के राजदूत एलके झा से कहा कि जाओ और ये चिट्ठी पहुंचाओ. तब रूस-यूक्रेन जंग की तरह हम पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चे पर लड़ ही तो रहे थे. इस चिट्ठी में इंदिरा ने अमेरिकी दोगलेपन की बखिया उधेड़ दी. आप भी इसे पढ़िए..
‘प्रिय श्रीमान राष्ट्रपति,
मैं आपको एक बहुत ही दुखद क्षण में यह पत्र लिख रही हूं, जब हमारे दोनों देशों के संबंधों में तनाव आ गया है. मैं अपने सभी भावनाओं को अलग रखकर शांति से यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि इस त्रासदी की जड़ें कहां हैं.
इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब अंधकार और त्रासदी के बीच हमें अतीत की महान घटनाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए. अमेरिका की आजादी के घोषणा-पत्र ने दुनिया भर में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों को प्रेरित किया. इस घोषणा-पत्र में कहा गया था कि जब कोई सरकार लोगों के जीवन, स्वतंत्रता और खुशहाली के अधिकारों को नष्ट करने लगे, तो लोगों को उसे बदलने या समाप्त करने का अधिकार है.
25 मार्च से बांग्लादेश में जो कुछ भी हो रहा है, उसे पूरी दुनिया ने देखा है. 7.5 करोड़ लोगों ने महसूस किया कि न तो उन्हें जीने की आज़ादी है, न स्वतंत्रता और न ही खुश रहने का कोई अवसर. पूरी दुनिया के समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविज़न ने इन घटनाओं को स्पष्ट रूप से दिखाया है. अमेरिका के कई विद्वानों ने भी इस संकट के वास्तविक कारणों को समझाया है.
आज जो युद्ध चल रहा है, उसे रोका जा सकता था. पिछले नौ महीनों में दुनिया के बड़े नेताओं ने इस समस्या को हल करने की कोशिश नहीं की. मैंने कई देशों का दौरा किया और शांति बनाए रखने की अपील की, लेकिन किसी ने इस गंभीर मुद्दे की जड़ को सुलझाने की कोशिश नहीं की. शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति तो दिखाई गई, लेकिन उनकी समस्या के मूल कारण पर ध्यान नहीं दिया गया.
अगर दुनिया के बड़े देशों, खासकर अमेरिका, ने पाकिस्तान के नेताओं पर दबाव डालकर शेख मुजीबुर रहमान को रिहा करवाया होता, तो युद्ध को टाला जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसके बजाय, पाकिस्तान में दिखावटी सरकार बनाई गई और चुनावों का नाटक किया गया.
अमेरिका ने भी माना कि मुजीब इस पूरे मामले का केंद्र बिंदु हैं और लंबे समय में पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) को अधिक स्वायत्तता देनी होगी. लेकिन यह कहकर कुछ भी नहीं किया गया कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान की स्थिति नाजुक है.
श्रीमान राष्ट्रपति, मैं आपसे पूरी ईमानदारी से पूछती हूं – क्या एक व्यक्ति, शेख मुजीबुर रहमान, को रिहा करवाना या उनसे गुप्त बातचीत करना, युद्ध से भी ज्यादा खतरनाक था? पाकिस्तान के शासकों को लगा कि वे जो चाहें कर सकते हैं, क्योंकि किसी ने भी – यहां तक कि अमेरिका ने भी – यह नहीं कहा कि पाकिस्तान की अखंडता के साथ उसके लोगों के मानवाधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं.
हमने पूरे नौ महीने तक धैर्य रखा और युद्ध से बचने की कोशिश की. लेकिन जब पाकिस्तान ने 3 दिसंबर को दिनदहाड़े हमारे हवाई अड्डों पर बमबारी की, तो हमारे पास जवाब देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था.
हम पर आरोप लगाया जा रहा है कि हमने इस संकट को बढ़ावा दिया, लेकिन यह पूरी तरह से गलत है. मैंने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया और बेल्जियम की यात्रा करके सभी को बताया कि एक राजनीतिक समाधान की तुरंत जरूरत है. जब डॉ. हेनरी किसिंजर अगस्त 1971 में भारत आए, तो मैंने उनसे भी यही बात कही. लेकिन आज तक, हमें किसी भी तरह के समाधान का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है.
सादर,
इंदिरा गांधी’
इंदिरा गांधी के निक्सन के प्रति दृढ़ रुख और जेंलेंस्की के साथ ट्रंप के व्यवहार की तुलना कूटनीति में दृढ़ता, रणनीतिक गठजोड़ और गरिमा बनाए रखने के महत्व को उजागर करती है. इंदिरा गांधी भारत के हितों पर अडिग रहीं. वहीं, ज़ेलेंस्की की स्थिति यह दिखाती है कि जब कोई नेता कमजोर स्थिति में हो और एक महाशक्ति पर निर्भर हो, तो उसके लिए अपने हितों को सुरक्षित रखना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
Location :
New Delhi,New Delhi,Delhi
First Published :
March 01, 2025, 12:47 IST