नेता तो बहुत हुए पर नीतीश जैसा कोई नहीं... 'नीतीश मॉडल' क्यों है एक केस स्टडी?

2 hours ago

पटना. जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से बिहार की राजनीति में आगे आए नीतीश कुमार ने वर्ष 1977 में नालंदा के हरनौत विधानसभा क्षेत्र से जनता पार्टी के टिकट पर पहला चुनाव लड़ा, लेकिन वह हार गए. वर्ष 1979 में फिर लोकदल के उम्मीदवार बने, मगर इंदिरा गांधी की सुनामी में डूब गए. 1980 में तीसरी बार हरनौत से जनता पार्टी (सेक्युलर) के टिकट पर उतरे, पर चंद्रशेखर की पार्टी की हवा निकल चुकी थी और फिर उनकी हार हुई. लगातार तीन पराजय से निराश होकर नीतीश कुमार ने राजनीति छोड़ने का मन बना लिया था. तब उन्होंने सोचा कि अब इंजीनियरिंग की डिग्री काम आएगी- शायद कोई फैक्ट्री लगाएं या बिजनेस शुरू करें. मन में मंथन चल रहा था और उनकी प्लानिंग भी शुरू हो चुकी थी. लेकिन, कहते हैं न नीयति आपकी सोच से अलग कुछ अलग सोचती है. करीबी दोस्तों- जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और अन्य साथियों ने रोका. राजनीति में ही रहने की सलाह देते हुए बोले- नीतीश, तुम्हारी लड़ाई जनता की है, अभी बहुत कुछ करना बाकी है. नीतीश कुमार ने हिम्मत जुटाई और 1985 में हरनौत से चौथी बार लड़े और जीत प्राप्त की. इसके बाद तो उनकी इसी दृढ़ता ने उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनाया जहां 20 साल से सत्ता संभाल रहे हैं. असफलता ने उन्हें सब दिया और सिखाया कि – हार मत मानो, बस रणनीति बदलो और जीतते जाओ!

ऊपर के पैराग्राफ में बताई गई कहानी नीतीश कुमार के बारे में बहुत कुछ कह जाती है, क्योंकि भारतीय राजनीति में लंबे समय तक टिकने वाले नेता बहुत हुए, लेकिन ऐसे नेता कम हैं जिन्होंने समय, परिस्थिति और समीकरणों को अपने अनुसार मोड़ना भी सीखा और जनता की नजरों में विश्वसनीयता बनाए भी रखी. इस दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा इसी संतुलन का अनोखा उदाहरण हैं. वर्ष 1977 से शुरू हुई नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा अब 48वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है. नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा 1994 में तब नई दिशा लेने लगी जब उन्होंने समाजवादी पृष्ठभूमि से निकलकर बड़े राजनीतिक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत की. यह वह दौर था जब बिहार में लालू प्रसाद यादव समुदाय का दबदबा चरम पर था. नीतीश कुमार ने न सिर्फ इस दबदबे को चुनौती दी, बल्कि अपने लिए एक अलग वैकल्पिक सामाजिक-राजनीतिक स्पेस भी तैयार किया.

नीतीश कुमार की 48 साल की राजनीतिक यात्रा, संघर्ष, गठबंधन और सुशासन के मॉडल के साथ बिहार की राजनीति में अनूठा संतुलन पेश करती है.

संघर्ष, पहचान और गठबंधनों की राजनीति

नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा ने 1990 के दशक में आकार लेना शुरू किया और वर्ष 1994 में तब नई दिशा लेने लगी जब उन्होंने समाजवादी पृष्ठभूमि से निकलकर बड़े राजनीतिक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत की. यह वह दौर था जब बिहार में लालू प्रसाद यादव का दबदबा चरम पर था. वह स्वयं को पिछड़ों और वंचित वर्ग का अकेला नेता के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे थे. लेकिन, नीतीश कुमार ने लालू यादव के इस दावेदारी और दबदबे न सिर्फ चुनौती दी, बल्कि अपने लिए एक अलग वैकल्पिक सामाजिक-राजनीतिक स्थान भी तैयार किया. वर्ष 1995 के चुनाव में उनकी भूमिका निर्णायक नहीं रही, लेकिन 2000 तक आते-आते परिस्थिति बदल गई. चुनाव परिणाम त्रिशंकु थे और 67–67 सीटों के बीच सत्ता का संतुलन कठिन बन पड़ा था. यहीं से नीतीश कुमार का निर्णायक रणनीतिक कौशल सामने आया.

‘न्याय के साथ विकास’ का सूत्र और सत्ता परिवर्तन

वर्ष 2003 में ‘न्याय-विकास-समानता’ का मॉडल पेश कर उन्होंने बिहार को एक नई दिशा देने की कोशिश की. फरवरी 2005 के चुनाव में यह नैरेटिव गूंजा भी, लेकिन उनके नेतृत्व में एनडीए को स्पष्ट बहुमत नहीं आया. बावजूद इसके नीतीश कुमार की लोकप्रियता और संगठनात्मक मजबूती ने उन्हें आगे के चुनाव में निर्णायक स्थान पर पहुंचा दिया. नवंबर 2005 के चुनाव में जेडीयू-भाजपा गठबंधन ने जबरदस्त बहुमत से जीत दर्ज की. जेडीयू 88 सीटें और भाजपा ने 55 सीटें जीत ली. बिहार की राजनीति में यही वह मोड़ था जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार के पूर्णकालिक और स्थायी मुख्यमंत्री बने.

छात्र जीवन से निकलकर 1977 में  नीतीश कुमार, शरद यादव और लालू यादव ने एक साथ राजनीति में आए थे.  

नीतीश मॉडल: सुशासन, सामाजिक न्याय और विकास का संतुलन

नीतीश कुमार ने बिहार की शासन–व्यवस्था में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए. शिक्षा, कानून-व्यवस्था, महिलाओं के सशक्तिकरण और आधारभूत ढांचे पर उनका फोकस रहा. महिला आरक्षण, पंचायती व्यवस्था में सुधार और कानूनी व्यवस्था की मजबूती ने उनके शासन को पहचान दी. यही कारण था कि 2010 के चुनाव में उन्हें इतिहासिक 206 सीटों का जनादेश मिला जो बिहार के चुनाव इतिहास में अभूतपूर्व माना जाता है. इसमें जेडीयू ने 115 सीटें जीतीं और भाजपा के खाते में 91 सीटें आईं.

गठबंधनों की राजनीति: सिद्धांत और वास्तविकता का टकराव

नीतीश कुमार की राजनीति को समझने की कुंजी उनके गठबंधन निर्णयों में देखी जा सकती है. उन्होंने भाजपा के साथ दशकों तक रहकर भी 2013 में उससे अलग होने का बड़ा निर्णय लिया. 2015 में महागठबंधन- राजद और कांग्रेस के साथ जाकर उन्होंने फिर सत्ता पाई, मगर 2017 में यह गठबंधन टूट गया और फिर वह एनडीए के साथ आ गए. इस यात्रा का संदेश साफ है नीतीश कुमार किसी दल के स्थायी विरोधी या स्थायी साथी नहीं, बल्कि स्थायी रूप से सत्ता और स्थिरता के पक्षधर हैं.

2020–2025: नए समीकरण और पुराना अनुभव

नीतीश कुमार ने 2020 से 2025 के बीच भारतीय राजनीति की शायद सबसे जटिल गठबंधन यात्रा तय की. उन्होंने भाजपा से अलग होकर महागठबंधन में फिर वापसी कर ली और इसकी तमाम आलोचनाएं हुईं. इसी दौर में वह फिर 2022 में महागठबंधन से निकलकर दोबारा एनडीए में लौट आए. इस उतार-चढ़ाव के बीच भी उनका प्रभाव कम नहीं हुआ. वर्ष 2025 के चुनाव परिणामों में भी उनकी संगठनात्मक ताकत और राजनीतिक समझ सामने आई-जहां एक बार फिर एनडीए ने बिहार में मजबूत बहुमत दर्ज किया.

लालू यादव और नीतीश कुमार जब 2015 में करीब आए तो यह तस्वीर काफी सुर्खियों में रही थी.

नीति, नेतृत्व और विवाद में भी संतुलन की कला

बदलते सियासी समीकरणों के बीच भी नीतीश कुमार की पहचान शांत, संयमित और सिद्धांतवादी नेता की रही है, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उनके निर्णय हमेशा अधिक रणनीतिक रहे. उन्होंने कई बार कठोर फैसले लिए-भ्रष्टाचार, लॉ एंड ऑर्डर और शिक्षा सुधार जैसे विषयों पर. उनकी लोकप्रियता में उतार-चढ़ाव जरूर आए, कई बार आलोचनाओं के शिकार हुए… कई बार अप्रतिष्ठित उपमाओं से भी संबोधित किए गए, लेकिन उनका जन सेवा का फोकस बना रहा और वे हमेशा सत्ता समीकरण के ‘सेंटर प्वाइंट’ बने रहे.

भारत के सबसे चतुर राजनीतिक प्रबंधकों में से एक

नीतीश कुमार की बीते 31 वर्ष (2004 से) की यात्रा बताती है कि राजनीति सिर्फ भाषणों और नारों का खेल नहीं, बल्कि समय, परिस्थिति और जनभावना को समझने की क्षमता है. एक ओर वे सुशासन के प्रतीक बने, दूसरी ओर वे गठबंधन राजनीति के सबसे कुशल ‘मैनेजर’ भी साबित हुए. आज उनका राजनीतिक मॉडल भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण ‘केस स्टडी’ है- जहां सिद्धांत, समसामयिक बुद्धिमत्ता और परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय एक साथ चलते हैं. अंत में, नीतीश कुमार की राजनीतिक कहानी सिर्फ सत्ता में बने रहने की कहानी नहीं, बल्कि समय, समीकरण और जनभावना को समझने की कला की कहानी है. सच यही है- नेता तो बहुत हुए, पर नीतीश जैसा कोई नहीं!

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