जब भी बांग्ला भाषा का जिक्र होगा, टैगोर के साथ एक सिनेमाई चेहरा जेहन में जरूर उभरेगा. वो कोई और नहीं सत्यजीत रे थे. 1921 में जन्मे बंगाली फिल्म निर्देशक रे लेखक और चित्रकार भी थे. उन्होंने दुनिया के सामने भारतीय सिनेमा को अलग पहचान दिलाई. उन्हें 20वीं सदी का एक महान फिल्मकार माना जाता है. भारतीयों को अपने इस 'कोहिनूर' की वैल्यू पता है लेकिन कट्टरपंथियों के सामने झुकी बांग्लादेश सरकार अपना ही इतिहास और संस्कृति बर्बाद करने पर आमादा है. याद कीजिए जब यह पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था, तब उर्दू और बांग्ला की लड़ाई में जनता पिस रही थी. तब बांग्लादेश में बांग्ला भाषा के लिए लड़ाई लड़ी गई और अलग देश ही बन गया लेकिन आज के कट्टरपंथियों को पता ही नहीं जिस घर को उन्होंने हथौड़ा मारकर गिराया है उसकी ईंटें कितनी कीमती थीं.
हां, 24 घंटे पहले भारत सरकार को जानकारी मिली थी तो मदद की पेशकश की गई. उम्मीद थी कि पैसा देने पर उस ऐतिहासिक इमारत को संजोया जा सकेगा लेकिन सत्यजीत रे के दादा उपेंद्र किशोर राय चौधरी का बनवाया घर बांग्लादेश सरकार ने तोड़वा दिया. यह मैमनसिंह में बना था. वैसे सत्यजीत कभी वहां नहीं रहे लेकिन दादा उपेंद्र की शख्सियत भी कम नहीं थी. बंगाली साहित्य में उनका योगदान अमूल्य था. उपेंद्र को बंगाली पुनर्जागरण में प्रमुख माना जाता है.
सत्यजीत रे के जीवन पर अपनी किताब में संदीप जोशी लिखते हैं कि हिंदी सिने जगत में दो बार ही कदम रखा. 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति' मुंशी प्रेमचंद की कहानियों पर बनी ये फिल्में, अपने आप में संपूर्ण तो हैं लेकिन रे अपनी मातृभाषा बांग्ला को लेकर कहीं ज्यादा संवेदनशील थे. उन्होंने अपना संपूर्ण लेखन भी बांग्ला और अंग्रेजी में ही किया है. हालांकि एक्सपर्ट कहते हैं कि उनकी फिल्मों की भाषा वैश्विक है, ऐसी भाषा जिसे भारतीय दर्शकों से कहीं ज्यादा और पहले विदेशी जनमानस ने आत्मसात किया था.
बांग्लादेश की सरकार चला रहे लोग अपनी अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखकर सोचते तो ऐसे मशहूर सिनेमाकार की पैतृक संपत्ति को यूं खंडहर न होने देते. वे म्यूजियम में तब्दील कर टका कमा सकते थे. भारत के बंगाल ही नहीं, महाराष्ट्र और दुनियाभर से सत्यजीत रे को जानने वाले उनकी पैतृक निशानी को देखने जा सकते थे. सिनेमा को समझने वाला हर शख्स उस नाम से परिचित है. लेकिन मोहम्मद यूनुस की सरकार भूल गई कि उनका देश कैसे बना. वे बांग्लादेश से भारत की हर निशानी को मिटाना चाहते हैं. पाकिस्तान और चीन के प्रभाव में बांग्लादेश अपनी संस्कृति पर कुल्हाड़ी चला रहा है.
सत्यजीत रे एक ऐसी परंपरा और परिवार के वारिस थे जिसका जुड़ाव बंगाल में साहित्य और कला जगत से गहराई से था. उनके दादा रवींद्रनाथ टैगोर के मित्र थे और बंगाल में पहली प्रेस उन्होंने ही खड़ी की थी. धीर-गंभीर व्यक्तित्व वाले 6 फुट से भी ऊंचे रे के परिवार में कई कहानीकार हुए. सत्यजीत की पसंद का सिनेमा मानवीय संबंधों पर आधारित था. सत्यजीत रे तब अस्वस्थ थे. 30 मार्च 1992 को कोलकाता के एक नर्सिंग होम में बिस्तर पर लेटे हुए ही उन्होंने सिनेमा में योगदान के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट की ऑस्कर ट्रॉफी ली थी. बंगाली सिनेमा भारत और बांग्लादेश को एक सूत्र में बांधता है. इससे न सिर्फ रिश्ते अच्छे होते बल्कि बांग्लादेश को आर्थिक लाभ भी होता.