मुगालता न पाले PAK, जंग हुई तो चीन नहीं बचाएगा! 1971 में भी मुंह मोड़ लिया था

4 hours ago

India Pakistan Conflict: ‘पर्वतों से ऊंचा, समंदरों से गहरा’ ये वो जुमला है जो बीजिंग और इस्लामाबाद अपनी दोस्ती को बयान करने के लिए बार-बार दोहराते हैं. चीन के एक पूर्व जासूसी प्रमुख ने तो पाकिस्तान को ‘चीन का इजरायल’ तक कह दिया था. मगर ये कसीदे हकीकत की जमीन पर कब तक टिकते हैं? खासकर तब, जब भारत पहलगाम हमले का जवाब सैन्य कार्रवाई से देने का विकल्प खुले तौर पर रख रहा हो. पहलगाम नरसंहार के बाद चीन का बयान आया लेकिन बेहद नपे-तुले शब्दों में. उसमें ‘निष्पक्ष जांच’ की बात थी. चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने पाकिस्तान के उप-प्रधानमंत्री इशाक डार से कहा, ‘भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष किसी के हित में नहीं है. संयम बरता जाए.’ मगर इससे ज्यादा कुछ नहीं. यूएन सिक्योरिटी काउंसिल, जहां 2019 के पुलवामा हमले के बाद भारत को खुला समर्थन मिला था. इस बार चीन ने पर्दे के पीछे पाकिस्तान को कूटनीतिक कवच देने की पूरी कोशिश की. नतीजा? यूएन का बयान बेहद ढीला रहा. भारत की जांच को कोई समर्थन नहीं. लेकिन यहीं से कहानी पलटती है. ये साफ दिखता है कि चीन का समर्थन अब बिना शर्त नहीं है. वो ‘ऑल-वेदर फ्रेंड’ की जगह ‘ऑन-डिप्लोमैटिक-ड्यूटी’ जैसा साथी बनकर रह गया है.

मुनीर की गलतफहमी या खुशफहमी?

पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल असीम मुनीर ISI बैकग्राउंड से हैं. पुलवामा हमले से मुनीर के तार सीधे जुड़ते हैं. भारत ने आर्टिकल 370 हटाया, कश्‍मीर के हालत बदलने की ठानी. घाटी में अमन-चैन लौटा तो पाकिस्तान की नींद हराम होने लगी. मुनीर शायद यह सोच बैठे कि कश्मीर को फिर से युद्ध का मैदान बनाना पाकिस्तान के लिए फायदेमंद हो सकता है. पाकिस्तान के घरेलू हालात बेकाबू हैं. मुल्क आर्थिक तबाही में है, पूर्व पीएम इमरान खान जेल में बंद हैं अवाम को सेना से नफरत है.

दुनिया गाजा, यूक्रेन और ताइवान में उलझी है. अमेरिका डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्‍ट्रपति बनने के बाद से अलग चाल पकड़े है. अरब देश पाकिस्तान से मुंह फेर रहे हैं. बच जाता है चीन, जो हर संकट में पाकिस्तान की ढाल बन जाता है. शायद मुनीर ने मान लिया कि चीन फिर साथ खड़ा हो जाएगा. मगर सच्चाई कुछ और है.

चीन के लिए पाकिस्तान में ‘वैल्यू’ कहां है?

चीन के लिए पाकिस्तान का महत्व तीन वजहों से रहा: अफगानिस्तान तक पहुंच, CPEC के जरिए स्ट्रैटेजिक इन्वेस्टमेंट, और भारत की ताकत को सैन्य मोर्चे पर उलझाए रखना. अब ये तीनों खंभे डगमगा चुके हैं.

तालिबान: बीजिंग अब सीधे काबुल से बात कर रहा है. पाकिस्तान का अफगानिस्तान गेटवे बनना अब पुरानी बात हो गई. CPEC: जिसे कभी बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का ताज कहा जाता था, वो अब चीन की नीतिगत विफलता का प्रतीक बन चुका है. ग्वादर पोर्ट आज भी अधूरा है. बगावत, ठेकेदारों की बकाया रकम और जनता के विरोध ने प्रोजेक्ट को अटका दिया है. मिलिट्री कंट्रोल: पाकिस्तान अभी भी भारत को सैन्य तौर पर उलझाने का जरिया है, मगर अब यह दोस्ती महंगी पड़ रही है. पाकिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था में इस्लामिक उग्रवाद की घुसपैठ बीजिंग को डरा रही है. चीनी वर्कर्स को भी निशाना बनाया गया.

1971 में भी PAK से मुंह मोड़ लिया था

ये कोई पहली बार नहीं कि पाकिस्तान ने चीन से उम्मीद लगाई और उसे सिर्फ बेबसी मिली. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय भी पाकिस्तान को उम्मीद थी कि चीन सैन्य रूप से दखल देगा. मगर बीजिंग ने सिर्फ बयान दिए. नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान टूटा, बांग्लादेश बना. 1972 में डॉन अखबार ने संपादकीय में लिखा था, ‘अगर हमने यह कल्पना न की होती कि चीन बिना शर्त समर्थन देगा, तो शायद देश को अपमान से बचाया जा सकता था.’

ट्रंप के ट्रेड वॉर में उलझा चीन

भारत और पाकिस्तान की सैन्य ताकत में फर्क बेहद बड़ा है. भारत की सेना, बजट और तकनीक पाकिस्तान से काफी आगे हैं. इसीलिए पाकिस्तान बार-बार परमाणु हथियारों की धमकी या आतंक का सहारा लेता है. दूसरी ओर, चीन खुद अपने ही संकटों में फंसा है. PLA (चीनी सेना) के भीतर बड़े पैमाने पर पर्ज चल रहे हैं. टॉप जनरल हटाए जा रहे हैं. खासकर न्यूक्लियर और मिसाइल कमांड के अधिकारी. PLA की युद्ध क्षमता पर खुद चीन को भरोसा नहीं बचा. देश के अंदर मंदी है, एक्सपोर्ट घट रहे हैं, जनता असंतुष्ट है. 2027 की पार्टी कांग्रेस से पहले शी जिनपिंग कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहेंगे जो उनकी कुर्सी हिला दे.

LAC पर 2020 की हिंसा के बाद भारत और चीन ने धीरे-धीरे तनाव घटाया. बीजिंग अब नई दिल्ली के साथ रिश्ते सुधारने के लिए तत्पर है. ट्रंप के ट्रेड वॉर, घरेलू संकट और दक्षिण चीन सागर पर बढ़ते अमेरिकी दबाव के बीच, भारत से टकराव बीजिंग के लिए अब घाटे का सौदा है. चीन की रणनीतिक प्राथमिकताएं भी बदल चुकी हैं. ताइवान, दक्षिण चीन सागर और दक्षिण-पूर्व एशिया की अर्थव्यवस्थाएं उसकी प्राथमिकता हैं. दक्षिण एशिया फिलहाल बैक बर्नर पर है.

फिर अकेला पड़ जाएगा पाकिस्तान!

भारत ने पहले ही सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया है. इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है. पीएम मोदी ने सुरक्षा एजेंसियों को जवाब देने की खुली छूट दी है. जगह, समय और तरीका, सब उनका चयन होगा. पाकिस्तान का दांव और मुनीर की ये रणनीति कि चीन कूटनीतिक सुरक्षा कवच बनकर खड़ा रहेगा, शायद उल्टा पड़ जाए. अगर चीन ने सिर्फ जुबानी समर्थन तक खुद को सीमित रखा, तो पाकिस्तान एक बार फिर 1971 की तर्ज पर खुद को अकेला पाएगा. बीजिंग दो पाटों में फंसा है. एक तरफ ‘भाईचारा’, दूसरी तरफ ‘राष्ट्रीय स्वार्थ’. और जब बात दो में से एक चुनने की आती है, तो चीन हमेशा अपना फायदा चुनता है.

Read Full Article at Source