नई दिल्ली: क्या सुप्रीम कोर्ट अब ‘सुपर संसद’ बन गई है? क्या आर्टिकल 142 लोकतंत्र पर ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ है? ये सवाल हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान से उभरे हैं. और जवाब में देश के दो सबसे तेजतर्रार वकीलों- कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी, ने जो दलीलें पेश की हैं, वो इस बहस को नया मोड़ दे रही हैं.
पूरा विवाद शुरू कहां से हुआ?
तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा बिल्स को मंजूरी देने में हुई देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल 3 महीने में फैसला दें, वरना माना जाएगा कि उन्होंने मंजूरी दे दी है. इसी पर प्रतिक्रिया देते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने अनुच्छेद 142 को ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ करार दे डाला. उनका तर्क था कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद को कोर्ट निर्देश नहीं दे सकती. इससे लोकतंत्र खतरे में पड़ता है.
कपिल सिब्बल का तीखा जवाब
राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने धनखड़ के बयान पर कहा, ‘बहुत दुख हुआ. यह देखकर अफसोस होता है कि जब फैसले सरकार के मनमुताबिक हों, तो कोर्ट की तारीफ होती है, और जब न हों, तो उसे लांछित किया जाता है.’ उन्होंने याद दिलाया कि अनुच्छेद 142 संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को दिया है ताकि वो ‘पूर्ण न्याय’ कर सके. सिब्बल ने कहा, ‘राष्ट्रपति एक सांकेतिक पद है. असली शक्ति मंत्रिमंडल के पास होती है. उपराष्ट्रपति को यह समझना चाहिए.’
VIDEO | On Vice President Jagdeep Dhankhar’s remarks on judiciary, Rajya Sabha MP Kapil Sibal (@KapilSibal) says, “When I woke up this morning and read the Vice President’s remarks, I felt deeply saddened and shocked. It’s truly concerning how some government officials respond to… pic.twitter.com/FpvhCaBCAo
— Press Trust of India (@PTI_News) April 18, 2025
सिंघवी का कानूनी चाबुक
कांग्रेस सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी इस मुद्दे पर स्पष्ट और धारदार जवाब दिया. उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा, ‘मैं आदरपूर्वक, लेकिन पूरी मजबूती से असहमत हूं. आर्टिकल 142 कोई नया प्रावधान नहीं है. इसकी जड़ें 50 साल पुरानी न्यायिक परंपरा में हैं.’ वो कहते हैं, डॉ. आंबेडकर ने खुद सुप्रीम कोर्ट को यह विशेष अधिकार देने का समर्थन किया था. और कोर्ट ने हमेशा Article 142 के इस्तेमाल में ‘आत्म-नियंत्रण’ बरता है.
राज्यपाल बनाम संविधान
सिंघवी का बड़ा सवाल था, ‘जब केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल विपक्षी राज्यों में राजनीतिक एजेंट की तरह काम करें, तो क्या कोर्ट चुप रहे?’ उनका इशारा पंजाब, बंगाल और तमिलनाडु की ओर था, जहां राज्यपाल महीनों तक बिल्स को दबाए रखते हैं, या बिना किसी ठोस वजह के मंजूरी नहीं देते.
सिंघवी ने कहा, ‘संविधान ने कभी नहीं सोचा था कि राज्यपाल ऐसे ‘अलसाए चौकीदार’ बन जाएंगे.’ उन्होंने कहा, ‘संविधान बुरा नहीं होता, इंसान की नीयत होती है जो उसे बिगाड़ती है.’
राष्ट्रपति को लेकर विवाद क्यों?
धनखड़ ने जो चिंता जताई, वो राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर थी. लेकिन सिंघवी ने उसे भी खारिज किया. उनका तर्क था, ‘गवर्नर और राष्ट्रपति, दोनों के लिए संविधान का स्ट्रक्चर लगभग एक जैसा है. अगर कोर्ट राज्यपाल को समय सीमा दे सकती है, तो राष्ट्रपति को क्यों नहीं?’ वो पूछते हैं, ‘अगर राष्ट्रपति बिल पर निर्णय नहीं लेते, तो क्या संसद और राज्य सरकारें यूं ही इंतजार करती रहें? क्या यह लोकतंत्र है?’
राजनीति, कानून और नैतिकता
यह बहस अब सिर्फ कानूनी नहीं रही. यह संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, संतुलन और दायित्व की लड़ाई बन चुकी है. जहां सरकार आर्टिकल 142 को ‘ज्यादा शक्ति’ मानती है, वहीं विपक्ष इसे संविधान की ‘अंतिम ढाल’ मानता है. और जब संवैधानिक मर्यादाएं खतरे में हों, तो वही ढाल न्यायपालिका के हाथ में रहनी चाहिए, ऐसा सिंघवी और सिब्बल दोनों मानते हैं.