AIMIM सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी आज भारतीय राजनीति में अहम भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन उन्हें इस भूमिका के लिए तैयार करने का काम किया था उनके पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने. सलाहुद्दीन ने 2008 में आज ही दिन यानी 29 सितंबर को इस फानी दुनिया को अलविदा कहा था.
Source: News18Hindi Last updated on:September 28, 2025 6:57 PM IST
सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी 40 साल में कोई चुनाव नहीं हारे.
भारत की राजनीति में उन दो परिवारों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जिन्होंने अपनी-अपनी कौम के दायरों में रहकर अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया और जरूरत पड़ने पर साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने से परहेज भी नहीं किया. इनमें से एक मुंबई में ठाकरे परिवार रहा तो दूसरा हैदराबाद में ओवैसी खानदान. बाला साहेब ठाकरे ने जहां शिवसेना के बैनर तले हिंदू राजनीति को पोषित किया तो सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ‘ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहदुल मुस्लिमीन’ (AIMIM – एआईएमआईएम) के जरिए देश के मुसलमानों के एक बड़े तबके का दिल जीतने में कामयाब रहे. सलाहुद्दीन की इसी परंपरा को आज उनके पुत्र असदुद्दीन ओवैसी और भी स्वीकार्यता के साथ आगे बढ़ा रहे हैं.
AIMIM की स्थापना मुस्लिमों के सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक विकास को रफ्तार देने के मकसद से की गई थी. वैसे तो इसकी जड़ें नवाब बहादुर यार जंग द्वारा 1938 में गठित ‘एमआईएम’ में मानी जाती हैं, लेकिन असल में यह फली-फूली अपने स्वयंभू कमांडर यानी ‘सालार’ सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी की रहनुमाई में. ‘एमआईएम’ के विवादास्पद अतीत के मद्देनजर ओवैसी परिवार AIMIM के सफर को साल 1958 से ही मानता है, जब सलाहुद्दीन ओवैसी के पिता अब्दुल वाहिद ओवैसी ने इसका पुनर्गठन किया था.
मौलवी अब्दुल वाहिद ओवैसी एक विख्यात वकील थे. हैदराबाद में मुस्लिमों के एक तबके की बुरी दशा के मद्देनजर उन्होंने समुदाय को संगठित करने का जिम्मा उठाया. उन्होंने उम्मीद की जो किरण दिखाई, वो देखते ही देखते लोगों के जेहन में घर कर गई. वे सत्ता की ताकत को चुनौती देने से भी गुरेज नहीं करते थे. ‘फख्र-ए-मिल्लत’ (समुदाय का गौरव) माने जाने वाले बिना दाढ़ी वाले इस मौलवी ने पार्टी को दोबारा खड़ा करने में खुद को पूरी तरह झोंक दिया.
अब्दुल वाहिद ओवैसी ने 1975 में अपनी मृत्यु से पहले 17 साल तक पार्टी चलाई. पिता की मृत्यु के बाद सलाहुद्दीन पार्टी के अध्यक्ष बने. इससे पूर्व अपने पिता की छत्रछाया में रहकर बड़े हुए सलाहुद्दीन ओवैसी पहले ही उन मुद्दों को भांप चुके थे, जो हैदराबाद के मुस्लिमों को परेशान करते थे. सलाहुद्दीन जान चुके थे कि लोगों की नब्ज को समझना ही असली कुंजी है और इसका मतलब था जनता के साथ नजदीकी. अब्दुल वाहिद और सलाहुद्दीन ओवैसी सुबह से लेकर दोपहर के भोजन के समय तक पुराने शहर की गलियों में घूमा करते, तमाम लोगों से मिलते. सालों वे इस दिनचर्या से बंधे रहे.
दंगों को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई:
जब भी कहीं कोई सांप्रदायिक समस्या खड़ी होती, पिता या पुत्र तत्काल प्रभावित क्षेत्र में पहुंच जाते. उन्हें एहसास हो चुका था कि मुश्किल हालात में वहां मौजूद होना कितना जरूरी था और उन्होंने व्यक्तिगत मौजूदगी को अपनी रणनीति बना लिया था. 1970 के दशक में हैदराबाद में कहीं भी सांप्रदायिक हिंसा होने पर ओवैसी पिता-पुत्र के जुझारू रवैये ने दोनों समुदायों के बीच शक्ति संतुलन साधने का काम किया. इसने आम मुसलमानों के बीच भरोसा बढ़ाने में काफी मदद की. लंबे समय तक भय और असुरक्षा के भाव से गुजरने के बाद अब उन्हें लगने लगा था कि कोई तो है, जो उनके दुख-दर्द को समझ रहा है और उनके लिए लड़ने को तैयार है. दूसरा और भी ज्यादा बड़ा असर ये हुआ कि इससे अक्सर दंगाई हतोत्साहित होते थे और बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाने के उनके मंसूबों पर पानी फिर जाता था. कुछ लोगों की राय में चुनावी राजनीति में ओवैसी परिवार के दखल और जिला प्रशासन के बीच उनकी पैठ ने हैदराबाद में दंगों को नियंत्रित और खत्म करने में अहम भूमिका निभाई.
40 साल में कोई चुनाव नहीं हारे:
सलाहुद्दीन अपनी पार्टी AIMIM के पहले निर्वाचित प्रतिनिधि थे. अपने 40 साल के सार्वजनिक जीवन में वे नगर निगम से लेकर संसद तक, कोई चुनाव नहीं हारे. वे सबसे पहले 1960 में हैदराबाद नगर निगम चुनावों में मल्लेपल्ली डिवीजन से चुने गए थे. चौबीस डिवीजन जीतकर AIMIM मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी. दो साल बाद सलाहुद्दीन विधानसभा चुनाव जीतकर पार्टी से पहले विधायक बने. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1984 में वे हैदराबाद से संसदीय चुनाव में उतरे और उनकी जीत का सिलसिला 1999 तक चलता रहा. 2004 में यह जिम्मेदारी उनके बेटे असदुद्दीन ओवैसी को मिली, जिन्होंने तब से हर चुनाव में हैदराबाद की लोकसभा सीट पर फतह हासिल की है.
युवा मुस्लिमों के प्रशिक्षण पर दिया जोर:
सलाहुद्दीन ओवैसी का मानना था कि सरकार कभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा सुनिश्चित नहीं कर पाएगी और इसलिए उन्होंने हैदराबाद में और उसके आसपास कई चिकित्सा एवं शिक्षण संस्थान स्थापित किए. वो चंदा जुटाने में माहिर थे और क्राउडफंडिंग, दान और दीनी जकात के जरिए धन इकट्ठा किया करते थे. लेेकिन सलाहुद्दीन ओवैसी सिर्फ दान लेन-देने और निजी अस्पताल व शिक्षण संस्थान बनवाने तक ही सीमित नहीं थे. उनकी राय थी कि अगर मुसलमानों को देश के विकास में बराबरी की भागीदारी निभानी है तो उचित प्रशिक्षण जरूरी होगा. इसलिए ओवैसी ने ‘सेटविन’ (सोसायटी फॉर एम्प्लॉयमेंट, प्रमोशन एंड ट्रेनिंग इन ट्विन सिटीज ऑफ हैदराबाद एंड सिकंदराबाद) की स्थापना की. सेटविन में स्क्रीन प्रिंटिंग और रेफ्रिजरेटर, एयर-कंडीशनर, टीवी सेट व अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान की रिपेयरिंग के स्किल डेवलपमेंट कोर्स चलते थे. इस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट ने कई युवाओं को खाड़ी देशों में रोजगार पाने में मदद की, जिससे लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आया. आर्थिक स्थिति सुधरने के साथ आत्मविश्वास भी बढ़ा.
इंदिरा मिलने आई थीं, भाजपा लीडर ने बताया था महान नेता
कांग्रेस समेत अन्य प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ सलाहुद्दीन ओवैसी के रिश्ते उतार-चढ़ाव भरे रहे. AIMIM का प्रभाव और ताकत देखकर ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1980 में पार्टी के मुख्यालय का दौरा किया था. बिल्कुल अलग विचारधारा वालों लोगों ने भी उन्हें योगदान को सराहा. 2008 में सलाहुद्दीन के इंतकाल पर भाजपा नेता और केंद्र सरकार में मौजूदा मंत्री जी. किशन रेड्डी, जो उस समय आंध्र विधानसभा के सदस्य थे, ने कहा था, “विचारधारा अलग होने के बावजूद मैं कह सकता हूं कि सलाहुद्दीन ओवैसी एक महान राजनेता थे.” किशन रेड्डी ने यह भी याद किया कि 2004 में जब 44 साल की उम्र में उन्हें राज्य विधानसभा के लिए चुना गया, तब ओवैसी ने उन्हें फोन करके बधाई दी थी. रेड्डी के मुताबिक, “मैं बहुत खुश हुआ कि सलाहुद्दीन ओवैसी जैसे महान नेता को मेरे जैसा एक युवा एमएलए याद रहा.”
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
First published: September 28, 2025 6:57 PM IST