Explainer: क्या जजों के लिए संपत्ति घोषित करने की कोई आचार संहिता या कानून

4 days ago

Last Updated:March 24, 2025, 12:52 IST

क्या भारतीय जजों की संपत्ति जांची जाती है, क्या इसको लेकर कोई आचार संहिता है, हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर से बड़ी संख्या में अधजले नोटों की गड्डियां मिलने के बाद इस तरह के कई सवाल खड़े हो रहे हैं.

 क्या जजों के लिए संपत्ति घोषित करने की कोई आचार संहिता या कानून

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हाइलाइट्स

केवल 13% भारतीय हाईकोर्ट जजों ने संपत्ति घोषित की.2009 में सुप्रीम कोर्ट ने जजों को संपत्ति घोषित करने को प्रोत्साहित किया.न्यायपालिका की स्वतंत्रता के कारण संपत्ति घोषणा पर सख्त नियम नहीं.

एक साल पहले सूचना के अधिकार के तहत जानकारी से पता चला कि हाईकोर्ट में जितने जज हैं, उनमें से केवल 13 प्रतिशत ने ही अपनी संपत्ति के बारे में घोषणा कर रखी है. भारत में 25 हाईकोर्ट हैं और उनमें करीब 1100 के आसपास न्यायाधीश. इसमें केवल 98 ने ही अपनी संपत्ति सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई है. इसमें भी ज्यादातर जज केरल, पंजाब-हरियाणा और दिल्ली हाईकोर्ट के हैं. हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर से बड़े पैमाने पर मिले नोटों के बाद ये सवाल पूछा जा रहा है कि क्या जजों की संपत्ति जाहिर करने संबंधी कोई आचार संहिता है.

इसे लेकर इलाहाबाद और बॉम्बे उच्च न्यायालयों ने कहा कि संपत्ति की घोषणा आरटीआई अधिनियम, 2005 के तहत “सूचना” के रूप में शामिल नहीं है.

गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने में कोई सार्वजनिक हित नहीं है. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और तेलंगाना उच्च न्यायालय ने संपत्ति घोषणाओं को गोपनीय बताया. ये कहा कि उन्हें ऑनलाइन पोस्ट नहीं किया जा सकता.

मार्च 2025 तक, सुप्रीम कोर्ट में 34 जज (मुख्य न्यायाधीश सहित) और हाई कोर्ट्स में लगभग 1,100 जज हैं.

सवाल – न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा के प्रावधान क्या हैं?
– अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968 सरकार न्यायाधीशों और सिविल सेवकों के बीच तुलना करता है , क्योंकि न्यायाधीशों का वेतन सिविल सेवकों , विशेष रूप से भारत सरकार में सचिव स्तर के अधिकारियों के वेतन के संबंध में तय किया जाता है.

इसी से जुड़े नियम 16(1) के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो सेवा का सदस्य है, उसे अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों का विवरण प्रस्तुत करना होगा, जो न्यायाधीशों पर भी लागू होना चाहिए.

1997 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ न्यायिक मानदंड अपनाए , जिनमें कहा गया था कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने नाम पर, अपने जीवनसाथी या उन पर निर्भर किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर अचल संपत्ति या निवेश के रूप में रखी गई सभी परिसंपत्तियों की घोषणा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करनी चाहिए. हालांकि ऐसा हो नहीं पाया तो वर्ष 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर न्यायाधीशों की संपत्ति घोषित करने का संकल्प लिया. जिसमें कहा गया कि “पूरी तरह स्वैच्छिक के आधार पर” न्यायाधीशों को ये करना चाहिए.

उसी वर्ष दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि सभी न्यायाधीश अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने पर सहमत हो गए हैं. लेकिन जैसा ऊपर बताया जा चुका है ज्यादातर जज अपनी संपत्ति घोषित करने में खास दिलचस्पी नहीं लेते. हालांकि अगर वो ऐसा करते तो एक मिसाल भी कायम होती.

प्रतीकात्मक तस्वीर (image generated by leonardo ai)

सवाल – क्या इसे लेकर संसद द्वारा कभी कुछ कहा गया है?
– दरअसल कार्मिक, लोक शिकायत तथा विधि एवं न्याय संबंधी संसदीय समिति ने भी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की संपत्तियों और देनदारियों को अनिवार्य तौर पर जाहिर करने के लिए कानून बनाने की सिफारिश की. इस विधेयक का नाम था “न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010”. जिसमें न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य संपत्ति घोषणा भी शामिल थी. हालांकि 15 वीं लोकसभा के भंग होने के बाद यह विधेयक निरस्त हो गया. इसे दोबारा पेश नहीं किया गया.

हालांकि अगस्त 2023 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने ‘न्यायिक प्रक्रियाएं और उनके सुधार’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की , जिसमें सिफारिश की गई कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उचित प्राधिकारी को वार्षिक संपत्ति रिटर्न प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक कानून बनाया जाना चाहिए।
साथ ही सर्वोच्च न्यायालय को परिसंपत्ति घोषणा के लिए स्पष्ट प्रोटोकॉल स्थापित करना चाहिए.

वर्ष 2014 में सरकार ने जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) की स्थापना की कोशिश की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे 2015 में असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिससे कोलेजियम सिस्टम बरकरार रहा।

सवाल – आखिर क्यों न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा आवश्यक है?
– इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह सार्वजनिक विश्वास और जवाबदेही से जुड़ा हुआ है. न्यायाधीश नियमित रूप से कानून, सरकारी नीतियों और निविदाएं देने से संबंधित निर्णयों की समीक्षा करते हैं, जिससे उनके लिए अपनी परिसंपत्तियों के संबंध में पारदर्शिता सुनिश्चित करना जरूरी हो जाता है. यदि किसी निविदा या काम के लिए जिम्मेदार मंत्री को अपनी संपत्ति का खुलासा करना आवश्यक है, तो मंत्री के निर्णयों की समीक्षा करने वाले न्यायाधीश को भी ऐसा ही करना चाहिए.

ताकि जनता का भी विश्वास मजबूत रहे: न्यायाधीशों द्वारा अपनी संपत्ति की घोषणा से न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बढ़ाने में मदद मिलेगी, क्योंकि यह निष्पक्षता और निष्पक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दिखाता है.

सवाल – सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की संपत्ति को लेकर कुछ कहा या फैसला किया है?
– सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) का कार्यालय सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम, 2005 के तहत एक ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ है और आरटीआई अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अधीन है. लिहाजा न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता के लिए जजों को अपनी संपत्ति की घोषणा करनी चाहिए.

यानि 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें जजों को अपनी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था. इसके तहत कई जज अपनी संपत्ति की जानकारी स्वेच्छा से सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर प्रकाशित करते हैं. लेकिन इसको लेकर कोई अनिवार्य नियम नहीं है.

सवाल – न्यायाधीशों की संपत्ति घोषणा करने को लेकर दूसरे देश क्या करते हैं?
– संयुक्त राज्य अमेरिका में नैतिकता अधिनियम, 1978 के तहत संघीय न्यायाधीशों को आय के स्रोत और राशि का खुलासा करना होता है. न्यायाधीशों को उन उपहारों के स्रोत, विवरण और मूल्य भी बताने होते हैं, जिनका कुल मूल्य एक निश्चित न्यूनतम राशि से अधिक है.

दक्षिण कोरिया में लोक सेवा नैतिकता अधिनियम,1993 के तहत न्यायाधीशों और उनके जीवनसाथियों सहित सभी उच्च पदस्थ सार्वजनिक अधिकारियों को अचल संपत्ति, अमूर्त संपत्ति और गैर-सार्वजनिक व्यावसायिक संस्थाओं में शेयरों के अपने स्वामित्व का खुलासा करना होता है.
फिलीपींस में भ्रष्टाचार एवं भ्रष्ट आचरण विरोधी अधिनियम, 1960 के तहत सार्वजनिक अधिकारियों को घोषणा के रूप में अपनी संपत्ति का खुलासा करना जरूरी है.

रूस में भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के तहत न्यायाधीशों और उनके परिवार के सदस्यों तथा न्यायाधीश पद के आवेदकों के लिए संपत्ति और आय पर नियंत्रण अनिवार्य है.

सवाल – भारत में जजों की संपत्ति की जांच या घोषणा नहीं हो, इसको लेकर अक्सर क्या तर्क दिया जाता है?
– जजों की संपत्ति की जांच या घोषणा को लेकर अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है. इस वजह से इस मुद्दे पर सख्त नियम लागू करने में हिचकिचाहट रही है.

सवाल – क्या भ्रष्टाचार और कदाचार को लेकर भारत में किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई हुई है?
– आज तक भारत में किसी भी जज का महाभियोग सफलतापूर्वक पूरा नहीं हुआ. जस्टिस वी. रामास्वामी (1993) के खिलाफ महाभियोग शुरू हुआ, लेकिन यह विफल रहा.

सवाल – सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों का वेतन कितना होता है?
– सुप्रीम कोर्ट के जज को लगभग 2.5 लाख रुपये मासिक और हाई कोर्ट के जज को लगभग 2.25 लाख रुपये मासिक वेतन मिलता है. साथ में पेंशन और अन्य लाभ. कई जज वकालत के क्षेत्र से आते हैं. कुछ अन्य मामले भी सामने आए.

– जस्टिस सौमित्र सेन (कलकत्ता हाई कोर्ट) पर वर्ष 2011 में उन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे थे, जिसके बाद महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई, हालांकि उन्होंने इस्तीफा दे दिया. वह कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे. उनके ऊपर 1983 में एक कोर्ट रिसीवर के तौर पर काम करते हुए ₹33 लाख की गबन करने का आरोप था. 2011 में राज्यसभा ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित किया. लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इसी प्रकार न्यायमूर्ति पी. डी. दिनाकरण और न्यायमूर्ति दिलीप बी. भोसले ने भी भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद इस्तीफा दिया.

Location :

Noida,Gautam Buddha Nagar,Uttar Pradesh

First Published :

March 24, 2025, 12:52 IST

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