Nepal Protest: कहावत है कि जवानी के पीछे जमाना चलता है. इस कहावत को हम मौजूदा समय श्रीलंका और बांग्लादेश के बाद नेपाल में चरितार्थ होते हुए देख रहे हैं. तो क्या एशिया के अन्य देशों की तरह नेपाल में भी श्रीलंका और बांग्लादेश जैसी स्थिति आने वाली है? ऐसा हम नहीं कहते हैं लेकिन मौजूदा नेपाल की परिस्थितियां तो यही बयां करती हुई दिखाई दे रही हैं. लंबे समय से देशों पर राज कर रही सरकारों को अगर कोई जड़ से उखाड़ फेंकने की हिम्मत कर सकता है तो वो है युवा. नेपाल के इतिहास में शायद ये पहली बार हो रहा हो कि जब नेपाल की संसद पर इस तरह से कोई हमला हुआ हो.
एक के बाद एक करके नेपाल के सत्ता के सभी नेताओं के या तो घर जला दिए जा रहे हैं या फिर वो इस्तीफा देकर इस आंदोलन से बचते हुए दिखाई दे रहे हैं. खबर लिखे जाने तक गृह मंत्री रमेश लेखक और कृषि मंत्री रामनाथ अधिकारी सहित कई मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है. पीएम केपी शर्मा ओली को लेकर भी कयास लगाए जा रहे हैं कि वह देश छोड़कर भाग सकते हैं. विपक्ष के कई नेता सरकार से इस्तीफे की मांग कर रहे हैं. काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने तो प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए उन्हें आतंकवादी तक कह दिया. गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने केपी ओली के पार्टी ऑफिस में आग लगा दी है और कई जगहों पर तोड़फोड़ भी मचाई है.
कहीं इसके पीछे विदेशी ताकतें तो नहीं...
विश्लेषकों की मानें तो यह आंदोलन केवल आंतरिक नीतियों के खिलाफ नहीं, बल्कि चीन और अमेरिका सहित अन्य विदेशी देशों के बीच नेपाल में बढ़ते रणनीतिक प्रभाव के विरुद्ध भी एक परोक्ष प्रतिक्रिया हो सकता है. इस बीच नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने इमरजेंसी बैठक बुलाई है. कयास लगाए जा रहे हैं कि वह इस्तीफा भी दे सकते हैं. प्रदर्शनकारियों ने नेपाल कांग्रेस का दफ्तर भी फूंक दिया है. अगर पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो काफी कुछ बांग्लादेश तख्ता पलट से पूरी घटना मेल खाती हुई दिखाई दे रही है. हालांकि बाद में बांग्लादेश की आवामी लीग पार्टी ने मोहम्मद युनूस पर आरोप लगाते हुए कहा कि ये बांग्लादेश में हुए हिंसक प्रदर्शन कोई क्रांति नहीं थी बल्कि विदेशी ताकतों के समर्थन से एक सोची समझी चाल थी बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्ता पलट की.
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नेपाल की स्थिति पर याद आए बांग्लादेश और श्रीलंका के हालात
हाल ही में बांग्लादेश में युवाओं का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था तब उन्होंने संसद और सरकारी दफ्तरों पर हमला बोल दिया था. इससे पहले श्रीलंका में भी आर्थिक संकट और महंगाई से परेशान जनता राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गई थी. इन घटनाओं में एक चीज़ कॉमन रही सोशल मीडिया की भूमिका. फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म ने युवाओं को आपस में जोड़ा, उन्हें संगठित किया और आंदोलन को आग की तरह फैला दिया. यह सिर्फ गुस्से की आवाज़ नहीं रहा, बल्कि सत्ता के खिलाफ चुनौती का बड़ा हथियार साबित हुआ.
तो क्या सोशल मीडिया इतनी बड़ी ताकत हो गई...
नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के विद्रोहों में सबसे बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की रही. तो क्या अब सोशल मीडिया कंपनियां अब इतनी ताकतवर हो गई हैं कि वे किसी भी देश में सत्ता बदलने की वजह बन सकती हैं? सोशल मीडिया ने जनता को आवाज दी है. युवाओं को तानाशाही और भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने का मंच मिला है. यह लोकतंत्र का नया चेहरा बनकर उभरा है. हालांकि इसके खतरे भी उतने ही गंभीर हैं. सोशल मीडिय पर आने वाली फेक न्यूज और अफवाहें पूरे देश का माहौल बिगाड़ देती हैं. कई बार बाहरी ताकतें भी इन प्लेटफॉर्म्स के जरिए किसी देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं. यही वजह है कि कई सरकारें इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा मानकर सोशल मीडिया पर बैन लगाने तक को मजबूर हो जाती हैं.
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